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समावेशी शिक्षा हेतु रणनीतियाँ | Strategies of Inclusive Eduation in Hindi

समावेशी शिक्षा हेतु रणनीतियाँ
समावेशी शिक्षा हेतु रणनीतियाँ

समावेशी शिक्षा हेतु रणनीतियाँ (Strategies of Inclusive Eduation)

समावेशी शिक्षा हेतु निम्न रणनीतियाँ हो सकती हैं-

1. समावेशित विद्यालय वातावरण- बालकों की शिक्षा चाहे वह किसी भी स्तर की हो, उसमें विद्यालय के वातावरण का बहुत योगदान होता है। विद्यालय का वातावरण ही कुछ चीजों की शिक्षा बालकों को स्वयं देता है। समावेशित शिक्षा के लिये यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण सुखद और स्वीकार्य होना चाहिए। इसके अतिरिक्त विद्यालय में विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक, चलिष्णुता, दैनिक आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक साज-समान शैक्षिक सहायताओं, उपकरणों, संसाधनों, भवन आदि का समुचित प्रबंध आवश्यक हैं। बिना इनके विद्यालय में समावेशित माहौल बनाने में कठिनाई हो सकती है।

2. सबके लिये विद्यालय- समोवशित शिक्षा की मूल भावना है एक ऐसा विद्यालय जहाँ सभी बालक एक साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं, परंतु सामान्यतः इस तरह की बातें देखने और सुनने में आती है कि किसी बालक का उसकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में अपनी असमर्थता दर्शाते हुये, विद्यालय में प्रवेश देने से मना कर दिया या किसी विशेष विद्यालय में उसके दाखिले के लिये कहा हो।

समावेशित शिक्षा के उद्देश्यों को सभी बालकों तक पहुँचाने के लिये यह आवश्यक है। कि विद्यालय में दाखिले की नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए। हालाँकि शिक्षा के आधार अधिनियम 2009 इस सन्दर्भ में एक प्रभावी कदम कहा जा सकता है परंतु धरातल पर इसकी वास्तविकता में अभी भी सन्देह होता है।

3. बालकों के अनुरूप पाठ्यक्रम- बालकों को शिक्षित करने का सबसे असरदार तरीका है कि उन्हें खेलने के तरीकों तथा गतिविधियों के माध्यम से सिखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। समावेशित शिक्षा व्यवस्था के लिये आवश्यक है कि विद्यालय पाठ्यक्रम, बालकों की अभिवृत्तियाँ, मनोवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुये निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम में विविधता तथा पर्याप्त लचीलता होनी चाहिए ताकि उसे प्रत्येक बालक की क्षमताओं, आवश्यकताओं, तथा रुचि के अनुसार अनुकूल बनाया सकें, बालकों के विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं का विकास को सके, उसे विद्यालय से बाहर, बालक के सामाजिक जीवन से जोड़ा जा सकें, बालकों को सामाजिक रूप से एक उत्पादित नागरिक बनाने में योगदान दे सकें इसके अतिरिक्त बालक के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सके।

4. मार्गदर्शन व निर्देशन की व्यवस्था- विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में नियमित शिक्षक, विशेष शिक्षक, अभिभावक और परिवार, समुदायिक अभिकरणों के साथ विद्यालय कर्मचारियों के बीच व्यवस्था और सहकारिता शामिल हैं।

समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत घर से विद्यालय जाते समय बालक को आरम्भ में नये परिवेश में अपने आपको समायोजित करने में कुछ असुविधा हो सकती है। जैसे आरम्भ में कक्षा के कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होना, दोस्तों का अभाव, नामकरण आदि के कारण बालक के आत्मविश्वास में कमी होना। इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तनों के कठिनाई के दौर में मार्गदर्शन एवं निर्देशन से बालक को इस संक्रमण काल में काफी सहायता मिलती है। उचित मार्गदर्शन व निर्देशन से बालक और उसके माता-पिता दोनों ही इन परिवर्तनों के लिये मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार किये जा सकते हैं।

5. सहायक तकनीकी उपकरणों का उपयोग- आज के युग में तकनीकी उपायों से मानव जीवन काफी हद तक सुगम हो गया है मानव जीवन के प्रत्येक पहलु पर आज तकनीक का प्रभाव देखा जा सकता है। समावेशित शिक्षा के सफलता के लिये और उसके प्रचार प्रसार के लिये शिक्षा व्यवस्था में तकनीक का उपयोग किये जाने की आवश्यकता है। टी.वी., कार्यक्रमों, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सहायक शिक्षा व चलुष्णुता तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके बालकों की शिक्षा, सामाजिक अर्न्तक्रिया, मनोरंजन, आदि में प्रभावशाली भूमिका निभाई जा सकती है। इसलिये आज आवश्यकता इस बात की है कि समावेशित शिक्षा वातावरण हेतु बालकों, अभिभावकों, शिक्षकों को इसकी नवीन तकनीकी विधियाँ से परिचित करवाया जाये तथा उनके प्रयोग पर बल दिया जाये।

6. समुदाय की सक्रिय भागीदारी- विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा की पूरी बुनियाद प्रतिभागिता निर्मित करने पर टिकी हुई है। एक अकेले व्यक्ति के प्रयासों से उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है। समावेशित शिक्षा हेतु यह आवश्यक है कि विद्यालयों को सामुदायिक जीवन का केन्द्र बनाया जाना चाहिए जिससे कि बालक की सामुदायिक जीवन की भावना को बल मिलें क्योंकि उसे एक निश्चित समय के पश्चात् उसी समुदाय का एक सक्रिय सदस्य के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये समय-समय पर विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम, वाद-विवाद, खेलकूद, देशाटन, जैसे मनोरंजन कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए और उनमें बालकों के अभिभावकों और समाज के अन्य सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया जाना चाहिए जिसे कि उन्हें इन बालकों के एक समावेशित शिक्षा वातावरण में शिक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में फैली भ्रांतियों को दूर कर उन्हें इन बालकों की योग्यता व प्रतिभा परिचित करवाया जा सके।

7. शिक्षकों का पर्याप्त प्रशिक्षण- शिक्षक को ही शिक्षा पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति तथा शैक्षिक संस्थानों की आधारशिला माना गया है। यद्यपि यह बात सत्य भी है कि विद्यालय भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य सहगामी क्रियायें, सहायक शिक्षण सामग्री, आदि सभी वस्तुएँ व क्रियाकलापों का भी शैक्षिक प्रक्रिया को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है क्योंकि समावेशित शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक केवल अपने आपको केवल शिक्षण कार्य तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखता है, अपितु विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों का कक्षा में उचित ढंग से समायोजन करना, उनके लिये विशिष्ट प्रकार की शैक्षिक सामग्री का निर्माण करना, विद्यालय के अन्य कर्मचारियों, अध्यापकों तथा विशिष्ट अध्यापक से बालक की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सहयोग व सहकारपूर्वण व्यवहार करना, बालक को मिलने वाली आर्थिक सुविधाओं का वितरण करना आदि कार्य भी करने पड़ते हैं। इसलिये अध्यापक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्णत: निपुर्ण हो, उसे विशिष्ट सामग्री की जानकारी हो, बालकों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक अभिवृत्तियाँ रखता हो, उनके मनोविज्ञान को समझाता हो।

इस प्रकार समावेशी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना है। यह शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने का समर्थन करती है।

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