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कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशें, उद्देश्य, सुझाव, गुण तथा सीमाएँ

कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशें
कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशें

कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशें व क्रियान्वयन (Recommendations and Implementation of Kothari Commission 1966)

कोठारी आयोग (1966) की सिफारिशें- स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत सरकार ने अपने देश की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार उच्च शिक्षा के पुनर्गठन के लिए सर्वप्रथम 1948 ई. में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया, तत्पश्चात् 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु माध्यमिक शिक्षा आयोग गठित किया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (राधाकृष्णन आयोग) ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन व स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अपने ठोस सुझाव दिये, जिनमें से कुछ सुझावों के क्रियान्वयन द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परंतु वांछित उद्देश्य प्राप्त न हो सके। 1952 में गठित मुदालियर शिक्षा आयोग ने भी तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर करते हुए उसके पुनर्गठन हेतु अनेक ठोस सुझाव दिये, परंतु इन सबसे भी वांछित आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी, क्योंकि दोनों आयोग एकांगी अर्थात् शिक्षा के एक ही पक्ष की ओर ध्यान देने वाले थे। अतः ऐसे आयोग के गठन की आवश्यकता अनुभूत की गई जो विविध स्तरों पर शिक्षा के समस्त पहलुओं से सम्बन्धित हो और शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन करके देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा सम्बन्धी नीतियों, शिक्षा के राष्ट्रीय प्रतिमान एवं शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में विकास की सम्भावनाओं पर महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सुझाव एवं संस्तुतियाँ प्रस्तुत करें। अतः भारत सरकार ने शिक्षा के पुनर्गठन पर सम्पूर्ण रूप से सोचने समझने व देश के लिए समान शिक्षा नीति को निश्चित करने के उद्देश्य से 14 जुलाई 1964 को डॉ. डी. एस. कोठारी, जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष थे, की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया, ताकि दी गई अनुशंसाओं का अनुसरण करके मनुष्य के वैयक्तिक व सामाजिक विकास की दिशा सुनिश्चित की जा सके। इसके व्यापक उद्देश्य स्वरूप और महत्व के आधार पर इसे शिक्षा आयोग 1964-66 तथा राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1964-66 के नाम से जाना जाता है। इसे आयोग को इसके अध्यक्ष के नाम पर कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग में कुल 17 सदस्य थे जिनमें 5 विदेशी शिक्षा विशेषज्ञ भी सम्मिलित थे।

आयोग के गठन के कारण (उद्देश्य) एवं कार्यक्षेत्र (Aims and Area of Organizing Commission) 

आयोग ने शिक्षा को राष्ट्र के विकास का मूल आधार मानते हुए, राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के 5 उद्देश्य, लक्ष्य अथवा कार्य निश्चित किए और इन्हें पंचमुखी कार्यक्रम की संज्ञा दी। आयोग ने इनमें से प्रत्येक की प्राप्ति के लिए अनेक अन्य कार्य भी निश्चित किए जो निम्नलिखित हैं-

आयोग के गठन का सर्वप्रमुख उद्देश्य शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि करना था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र ने राष्ट्रीय विकास के एक नये युग में प्रवेश किया था। अतः जनता की निर्धनता को दूर करने का दृढ़ संकल्प व सभी के लिए एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करना, कृषि का आधुनिकीकरण व उद्योगों का तीव्र विकास, आधुनिक विज्ञान व प्रौद्योगिक का अभिग्रहण तथा परम्परागत आध्यात्मिक मूल्यों के साथ उनका सामंजस्य आदि लक्ष्यों की पूर्ति हेतु शिक्षा को उत्पादन परक बनाने पर जोर दिया गया व इसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिये गये-

(i) विज्ञान शिक्षा को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर अनिवार्य करना तथा इस शिक्षा का उपयोग उत्पादन कार्यों में करना। कार्यानुभव ( Work Experience) को विद्यालयी शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना तथा माध्यमिक शिक्षा को व्यवसायपरक बनाना।

(ii) देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में शिक्षा के महत्वपूर्ण योगदान के विचार से एक सच्चे प्रजातांत्रिक समाज का निर्माण, राष्ट्रीय एकता व अखण्डता की उन्नति हेतु अनवरत प्रयास को ध्यान में रखते हुए एक सुसंगठित व उचित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को सुनिश्चित करना।

(iii) शिक्षा द्वारा सच्चे लोकतंत्रीय समाज का निर्माण, राष्ट्रीय एकता, व्यक्ति की श्रेष्ठता एवं पूर्णता की खोज हेतु शिक्षा के सम्पूर्ण क्षेत्र की जाँच करना, ताकि कम से कम में एक ऐसी सुसन्तुलित एवं सुंसगठित राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली विकसित की जा सके, जो राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों को महत्वपूर्ण योगदान दें।

(iv) शिक्षा के सभी स्तरों पर असाधारण विस्तार के बावजूद शिक्षा के अनेक अंगों के सम्बन्ध में व्याप्त असंतोष को दूर करने के लिए माध्यमिक स्कूलों व विश्वविद्यालय के शिक्षा के क्षेत्रों में पर्याप्त उन्नयन करने हेतु पाठ्यक्रम में विभिन्नीकरण (Diversification of Courses) की योजना का विस्तार करना ताकि उद्योगों व व्यवसायों हेतु प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सके तथा शिक्षकों के वेतनों व कार्य-दशाओं में वांछनीय परिवर्तन लाना अर्थात् शिक्षा की संख्यात्मक (Quantitative) उन्नति के अनुपात में गुणात्मक (Qualitative) उन्नति को सुनिश्चित करना।

(v) शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सब साधनों के उत्तम प्रयोग हेतु शिक्षा का आधार उत्तम व प्रगतिशील बनाने का दृढ़ संकल्प करना ।

(vi) भारत में राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास हेतु शिक्षा के सम्पूर्ण क्षेत्रों की जाँच क्योंकि शिक्षा प्रणाली के सब अंग एक दूसरे पर शक्तिशाली प्रतिक्रिया करते हैं और करना, प्रभाव भी डालते हैं।

उपर्युक्त कारणों तथा प्रयोजन के लिए 14 जुलाई 1964 ई. को भारत सरकार ने निम्नलिखित सदस्यों से युक्त एक शिक्षा आयोग के गठन का निर्णय लिया था। भारत सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ. दौलत सिंह कोठारी को शिक्षा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया था। इसीलिए इस आयोग को कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग में कुल 17 सदस्य थे, जिसमें 6 सदस्य अन्य देशों के शिक्षा विशेषज्ञ थे। इन सदस्योंकी सूची निम्नवत् है-

(i) प्रो. दौलत सिंह कोठारी अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (ii) श्री जे. पी. नायक-सदस्य एवं सचिव, शिक्षा नियोजन, संस्थान, पूना (iii) श्री जे. एफ. मैक्डूगल-सह-सचिव, संचालक शिक्षा विभाग यूनेस्कों, पेरिस। (iv) श्री ए. आर. दाऊद – सदस्य, निदेशक, अन्तर्राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम, नई दिल्ली । (v) श्री एच. एल. एलविन – सदस्य, शिक्षा संस्थान, लंदन विश्वविद्यालय, लंदन (vi) श्री सादातोशी – सदस्य, टोकियो (vii) श्री आर. ए. गोयल स्वामी – सदस्य, (viii) डा. वी. एस. झा-सदस्य, निदेशक निदेशालय, कामनवेल्थ, लंदन, (ix) डा. एम. बी. माथुर सदस्य, कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, (x) डा. पी. एन. कृपाल सदस्य, शिक्षा सचिव, भारत सरकार, (xi) डा. वी. पी. पाल- सदस्य, निदेशक भारतीय कृषि संस्थान, नई दिल्ली, (xii) कु. एस. पनादीकर – सदस्य, अध्यक्ष शिक्षा विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़, (xiii) प्रो. रोगार रेबेल – सदस्य, निदेशक हावर्ड विश्वविद्यालय, केम्ब्रिज, (xiv) डा. के. जी. सैयदेन सदस्य, निदेशक एशियन शिक्षा संस्थान, नई दिल्ली, (xv) डा. टी. सेन-र 1- सदस्य, उपकुलपति जादवपुर, विश्वविद्यालय, (xvi) प्रो. एस. ए. सोमोवस्की-सदस्य, प्रोफेसर मास्को विश्वविद्यालय, मास्को, (xvii) श्री. एम. जीन थॉमस सदस्य, निदेशक शिक्षा, फ्रांस पेरिस

इस आयोग ने भारत सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा के प्रारूप को विकसित करने का सुझाव दिया, जिसके लिए निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सामान्य अधिनियम व नीतियों को विकसित किया। उसके कार्यक्षेत्र को और अधिक स्पष्ट रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

(i) तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का गहराई से अध्ययन करना उसकी तत्कालीन कमियों व व्याप्त असंतोष के कारणों का पता लगाना व उसमें सुधार के लिए सुझाव देना।

(ii) पूरे देश के लिए शिक्षा के आयोजन और प्रशासन सम्बन्धी तत्व निश्चित करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।

(iii) पूरे देश के लिए समान शिक्षा प्रणाली प्रस्तावित करना तथा शिक्षा में सुधार लाने हेतु ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करना, गुणात्मक जो देश के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास में सहायक हो और यह प्रणाली ऐसी हो, जो भारतीय शिक्षा के परम्परागत गुणों को सुरक्षित रखते हुए वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करे व भविष्य के निर्माण में सहायक हो देना।

(iv) पूरे देश में किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा के प्रसार एवं उसमें गुणात्मक सुधार के लिए उपायों की खोज करना व इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव

आयोग का प्रतिवेदन ( Commission’s Report) 

आयोग के सदस्यों ने सम्पूर्ण देश के राज्यों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों का भ्रमण किया और विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, विद्यालयों तथा तकनीकी व अन्य संस्थानों का निरीक्षण करके छात्रों तथा शिक्षकों से साक्षात्कार व प्रशासकों व शिक्षाविदों से विचार विमर्श करने के बाद, अपने कार्यक्षेत्र की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए 13 कार्यदलों (Task Forces) व 7 कार्य समितियों (Working Groups) का संगठन किया, जिन्होंने 21 माह तक शिक्षा के सभी क्षेत्रों के सम्बन्ध में सभी प्रकार की सूचनायें संग्रहीत की । इसके अतिरिक्त आयोग ने शिक्षा की विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित एक लम्बी प्रश्नावली तैयार कराकर इसे शिक्षा से जुड़े विभिन्न वर्ग के लगभग 5000 व्यक्तियों के पास भेजा। 2400 व्यक्तियों से प्राप्त आँकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण करने के बाद 29 जून 1966 को अपना प्रतिवेदन ‘शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति’ (Education and National Development) सरकार को भेजा।

यह प्रतिवेदन 692 पृष्ठों का एक वृहद दस्तावेज है जो तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में 6 अध्याय हैं, जिनमें सभी स्तरों की शिक्षा व्यवस्था के पुनर्निर्माण का सामान्य विवेचन किया गया है, राष्ट्रीय लक्ष्य एवं शिक्षा का स्वरूप, संरचनात्मक पुनर्संगठन, शिक्षकों की समृद्धि, विद्यालयों में प्रवेश सम्बन्धी नीति व शिक्षा के अवसरों की समानता की चर्चा की गई है द्वितीय खण्ड में शिक्षा के विभिन्न स्तरों एवं क्षेत्रों का समावेश किया गया है और तृतीय खण्ड में आयोग ने जो सुझाव व सिफारिशें दी हैं, उनको क्रियान्वित करने की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है।

आयोग के सुझाव व संस्तुतियाँ (Recommendations and Suggestions of Commission)

कोठारी शिक्षा आयोग ने अपनी संस्तुतियों को आठ खण्डों में प्रस्तुत किया है, जो निम्न प्रकार हैं-

(i) राष्ट्रीय शिक्षा के लक्ष्य (Aims of National Education) (ii) शिक्षा के प्रशासन, वित्त व नियोजन सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Administration, Finance and Planning)

विद्यालयी शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा व विश्वविद्यालयी शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में—(iii) कृषि शिक्षा, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Agricultural Education, Vocational and Technical Education) (iv) दस वर्ष के लिए समान पाठ्यक्रम (Common Curriculum for 10 years)

अथवा, शिक्षा की नवीन संरचना व स्तर (New Educational Structure and Standard) (v) शिक्षकस्तर या शिक्षक की स्थिति व सेवा शर्तों सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teacher’s Status and Service Conditions) (vi) शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Teacher Education) (vii) शैक्षिक अवसरों की समानता सम्बन्धी सुझाव ( Suggestions Regarding Equalisation of Educational Opportunities) (viii) स्त्री शिक्षा प्रौढ़ व समाज शिक्षा सम्बन्धी सुझाव (Suggestions Regarding Women Education, Adult and Social Education)

कोठारी आयोग के सुझावों व संस्तुतियों का मूल्यांकन (Evaluation of Suggestions & Recommendations of Kothari Commission)

आयोग का भारतीय शिक्षा के इतिहास अभूतपूर्व स्थान है, क्योंकि आयोग ने देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व परिवर्धित करने की सिफारिश करके शिक्षा को अत्यन्त व्यावहारिक व उपयोगी बनाने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों आयोग के कुछ सुझावों एवं संस्तुतियों के सम्बन्ध में आयोग की आलेचना की है । अतः आयोग के गुण/विशेषताओं और दोष / सीमाओं का विवेचन आवश्यक है और इन विशेषताओं व दोषों का विवेचन/मूल्यांकन हम की आज की परिस्थितियों और भविष्य की आवश्यकताओं के आधार पर करेंगे।

कोठारी आयोग (राष्ट्रीय शिक्षा आयोग) के गुण (Characteristics of Kothari Commission) 

आयोग के सुझावों व संस्तुतियों के आधार पर निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टव्य हैं-

(i) कोठारी आयोग ने केन्द्र में सशक्त प्रशासनिक ढाँचे और प्रान्तों में समान प्रशासनिक ढाँचे का सुझाव देते हुए शिक्षा की एक समान संरचना प्रस्तुत की, जो लोकतंत्रीय भारत के लिए उत्तम सुझाव था और इससे देश की भावी शिक्षा में समरूपता आयेगी।

(ii) आयोग ने क्रमिक व समयबद्ध शैक्षिक नियोजन के आधार पर वर्तमान और भविष्य की माँगों के आधार पर राष्ट्रीय लक्ष्यों व उपलब्ध संसाधनों के आधार पर 20 वर्षों के अंदर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा योजना, माध्यमिक स्तर पर प्रवेश लेने वाले 70% सामान्य बच्चों के लिए मध्यम स्तर की शिक्षा पूर्ण करने और इनमें से भी योग्य व समक्ष बच्चों हेतु उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने का सुझाव दिया।

(iii) आयोग ने समय की माँग को देखते हुए शिक्षा के अभिनव उद्देश्यों का निर्धारण किया तथा शिक्षा को उत्पादन व रोजगरपरक बनाने हेतु शिक्षा के व्यवसायीकरण पर जोर दिया।

(iv) उच्च शिक्षा के विस्तार पर रोक व उन्नयन पर बल दिया।

(v) आयोग ने क्षेत्र की आवश्यकतानुसार व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करने, पाठ्यक्रम जोर दिया। को अद्यतन बनाने व सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा प्रायोगिक प्रशिक्षण पर जोर दिया।

(vi) आयोग ने शिक्षकों की स्थिति में सुधार करने हेतु, उनके वेतनमान, पदोन्नति, कार्य एवं सेवा दशाओं आदि के विषय में महत्वपूर्ण संस्तुतियाँ प्रस्तुत करके शिक्षकों की समाजिक व आर्थिक स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया।

(vii) आयोग ने शिक्षक शिक्षा के सम्बन्ध में उपयोगी सुझाव व संस्तुतियाँ प्रस्तुत करके शिक्षक शिक्षा में सुधार लाने का प्रयास किया।

(viii) देश के आधुनिकीकरण हेतु विज्ञान शिक्षा की आवश्यकता व उच्च शिक्षा व वैज्ञानिक अनुसंधान पर अधिक व्यय करने का सुझाव दिया। इन्हीं सुझावों के अनुपालन से हमारा देश औद्योगिक क्षेत्र में उन्नति करने के साथ ही अन्तरिक्ष विज्ञान में भी आगे बढ़ रहा है।

(ix) आयोग ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नामांकन हेतु राष्ट्रीय नामांकन नीति बनाने का सुझाव दिया था। इसके लिए आयोग ने विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियों को दिए जाने की सिफारिश की।

(x) आयोग ने विकलांग बच्चों की शिक्षा, पिछड़े वर्गों की शिक्षा और जनजातीय लोगों की शिक्षा के लिए विशेष सुझाव दिए ताकि वे भी सम्मान के साथ आगे बढ़ सकें।

(xi) आयोग ने स्कूल स्तर पर भाषाओं के अध्ययन हेतु संशोधित त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया था, जिससे भाषा समस्या का समुचित निदान किया जा सका।

(xii) आयोग ने उच्च शिक्षा में भी क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षण का माध्यम बनाने का सुझाव देकर अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व को कम करने का प्रयास किया।

(xiii) आयोग ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में निर्देशन व परामर्श सेवाओं की व्यवस्था करने का सुझाव देकर छात्र/छात्राओं की विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु मार्ग प्रशस्त किया।

(xiv) आयोग ने मूल्यांकन की विधियों में सुधार करने का सुझाव देकर परीक्षा प्रणाली को दोषमुक्त बनाने का प्रयास किया।

(xv) आयोग ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सशक्त बनाने का सुझाव दिया व इसे उच्च शिक्षा के लिए समस्त प्रतिनिधित्व करने की संस्तुति की।

(xvi) आयोग ने स्पष्ट किया कि भारत की 70% जनता कृषि पर निर्भर होने के कारण कृषि को कार्यानुभव में विशेष स्थान दिये जाने की अनुशंसा करते हुए पॉलिटेक्निक कॉलेजों में कृषि की शिक्षा की व्यवस्था व महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों के कृषि की उच्च शिक्षा व शोध कार्य की व्यवस्था का सुझाव दिया, जो इस देश के लिए वरदान साबित हुआ।

(xvii) उच्च शिक्षा में भीड़ को रोकने के लिए चयनात्मक प्रवेश प्रणाली अपनाने की संस्तुति की।

(xviii) आयोग ने इंजीनियरिंग शिक्षा को सुदृढ़ बनाने हेतु विशेष सुझाव दिया तथा विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहित करने के लिए उपयोगी सुझाव दिये।

(xix) आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा का व्यापक स्वरूप व उचित योजना प्रस्तुत करते हुए-निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाना, साक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाए रखना व अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने के अवसर देना आदि सुझाव दिये। साथ ही इस प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु शिक्षित युवक युवतियों, शिक्षक-शिक्षार्थियों ग्राम सेविकाओं, समाज कल्याण विभाग और समाज सेवी संगठनों का सहयोग लेना, विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्र बनाना, पत्राचार पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना, स्थायी व सचल पुस्तकालयों की व्यवस्था करना जैसे ठोस सुझाव भी दिये।

(xx) आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल देते हुए स्त्री-पुरुष हेतु समान पाठ्यक्रम पिछड़े, अनुसूचित आदिवासी और पहाड़ी बच्चों के लिए विशेष आर्थिक सहा व प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क बनाने, माध्यमिक, उच्च व व्यावसायिक शिक्षा में छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करने पर बल दिया।

इन सभी संस्तुतियों का भारत की शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा, परंतु भारत अपनी कुछ सामाजिक, आर्थिक तथा योजनागत कमजोरियों के कारण इन सुझावों का पूरा लाभ नहीं उठा सका।

कोठारी आयोग (राष्ट्रीय शिक्षा आयोग) की सीमाएँ (Limitations)

(i) आयोग ने प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के संगठनात्मक स्वरूप को निर्धारित करते हुए कक्षा 11 व 12 के सम्बन्ध में अस्पष्ट सुझाव दिये। यह स्पष्ट नहीं कि पहले से प्रचलित कक्षा-12 को माध्यमिक शिक्षा में लिया जाना है अथवा उसे विश्वविद्यालयी शिक्षा का अंग मानना है।

(ii) आयोग द्वारा प्रस्तुत शिक्षा संरचना उलझी हुई व अस्पष्ट है। यही कारण है कि अगली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना घोषित की गयी। (iii) आयोग द्वारा प्रस्तावित प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के सुझाव भ्रामक प्रतीत होते हैं, क्योंकि कहीं माध्यमिक शिक्षा के व्यवसायीकरण की बात कही गई है, कहीं विशिष्टीकरण की बात उच्चतर माध्यमिक स्तर पर की गई है, कहीं माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र अपनाने की बात कही गई है, तो कहीं इस स्तर पर अंग्रेजी, रूसी व फ्रेंच भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की बात कही गई है, जिसके कारण इनके सुझावों में पंचमेल खिचड़ी की भावना निहित / प्रतीत होती है।

(iv) आयोग द्वारा प्रस्तावित, शिक्षकों के वेतनमान और कार्य एवं सेवा दशाओं की संस्तुतियाँ शिक्षकों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुईं।

(v) आयोग ने सामान्य शिक्षा व उच्चशिक्षा में एक ओर तो राष्ट्रीय नामांकन नीति निर्धारित की । वहीं दूसरी ओर चयनात्मक प्रवेश प्रणाली की सिफारिश करके सभी छात्रों हेतु उच्च शिक्षा के दरवाजे बंद करने का भी प्रावधान कर दिया।

(vi) आयोग की अधिकांश सिफारिशें आदर्शवादी व अव्यावहारिक होने के कारण भी इनका क्रियान्वयन संभव न हो सका। उदाहरणार्थ आयोग द्वारा देश में वरिष्ठ विश्वविद्यालय की स्थापना एवं विश्वविद्यालय शिक्ष के उन्नयन सम्बन्धी प्रदत्त सुझाव धन के अभाव में कियान्वित न हो सके। इसी प्रकार स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित सुझाव भी स्त्री शिक्षा का विशेष विकास नहीं कर सके।

(vii) आयोग ने भाषा समस्या के समाधान हेतु, जो त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया उससे भी भाषा समस्या का सर्वमान्य हल नहीं निकल सका। इसके साथ ही संस्कृत भाषा की उपेक्षा भी हुई।

(viii) आयोग द्वारा निर्धारित शैक्षिक लक्ष्य एकतरफा प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनके द्वारा प्रयोगवादी उत्पादन प्रधानता पर तो ध्यान दिया गया, परंतु शिक्षा के शाश्वत् मानवीय उद्देश्यों की अनदेखी कर दी, जिससे व्यक्ति केवल धन कमाने के उद्देश्य से शिक्षा प्राप्ति की ओर प्रेरित होता दिखता है।

(ix) आयोग द्वारा विज्ञान व प्रौद्योगिकी शिक्षा पर विशेष बल दिये जाने से बालकों का नैतिक व आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध सा हो गया था।

अतः कोठारी आयोग की सिफारिशों का सामान्य अवलोकन करने पर मिश्रित प्रभाव सामने आता है। इसके कुछ सुझाव तो बहुत उपयोगी व श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं, तो कुछ में गंभीर दोष दिखते हैं। इन गुणों व दोषों की उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि आयोग द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रौढ़ शिक्षा, शिक्षक शिक्षा, शिक्षकों के वेतनमान तथा शिक्षा की उत्पादनोन्मुखता की प्रशंसा की जा सकती है, परंतु इसकी भाषा नीति, वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना तथा अस्पष्ट धारणायें आदि भारत की शिक्षा अपेक्षित गुणवत्ता प्रदान करती नहीं प्रतीत होती। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि इसने भारतीय शिक्षा प्रणाली को विशेष प्रभावित नहीं किया।

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) के सुझावों का शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया और उसे 24 जुलाई, 1968 को घोषित कर दिया गया, जिससे इन सिफारिशों पर अमल किया जाने लगा। पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू करने के प्रयत्न शुरू हो गए और एन.सी.ई.आर.टी. (N.C.E.R.T.) ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार की जिसमें त्रिभाषासूत्र के आधार पर तीन भाषाओं का अध्ययन, देश के आधुनिकीकरण हेतु विज्ञान व गणित का अध्ययन और माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की शुरूआत करने के लिए कार्यानुभव को अनिवार्य किया गया और कुछ प्रान्तों में इस आधार पर प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण कर उसे चालू किया गया। कुछ प्रान्तों में + 2 पर अनेक प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरू किए गए, परंतु उनमें सफलता न मिल सकी। उच्च शिक्षा में भी डिग्री कोर्स त्रिवर्षीय कर दिया गया। उच्च शिक्षा और व्यावसायिक, तकनीकी एवं प्रबंध शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उसके उन्नयन हेतु ठोस कदम उठाये गये। साथ ही शिक्षक शिक्षा में सुधार होने शुरू हुए और प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम को व्यापक बनाया गया। इस आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता हेतु, जो सुझाव दिये उनका अनुपालन भी शुरू हुआ और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का निर्माण भी इसी आधार पर हुआ। अतः आयोग के कुछ सुझाव व सदस्य साधुवाद के अधिकारी हैं।

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