संरचनावाद अर्थ और परिभाषा
संरचनावादी सिद्धान्त का उद्गम जा-पाल सार्त्र के अस्तित्ववादी के विरोधस्वरूप देखा जाता है। वास्तव में सार्त्र का अस्तित्ववादी सिद्धान्त फ्रांस में प्रचलित था। यह सिद्धान्त सम्पूर्ण यूरोप में एक लोकप्रिय सिद्धान्त समझा जाता था। इसका विरोध संरचनावादी सिद्धान्त ने किया । सार्त्र का अस्तित्ववादी सिद्धान्त व्यक्ति पर केन्द्रित था । सार्त्र सब कुछ थे— एक बहुआयामी व्यक्तित्व। वे ख्याति के नाटककार, उपन्यास लेखक, सामाजिक आलोचक ओर इस सबसे ऊपर एक अस्तित्ववादी दार्शनिक थे। वे मानव की स्वतंत्रता के घोर समर्थक थे। मनुष्य की स्वतंत्रता को वे संसार के लिए सबसे बड़ा मुद्दा समझते थे। अपने अकादमिक जीवन में उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता पर सबसे अधिक जोर दिया। उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा कि आदमी जो कुछ करता है, उसका निर्णय वह स्वयं करता है। समाज और सामाजिक संरचना का इसमें कोई हाथ नहीं होता। अपने बाद के जीवन में सार्त्र पर मार्क्स का प्रभाव पड़ा। अब उन्होंने यह प्रबन्ध रखा कि यद्यपि मनुष्य अपने आप में स्वतंत्र है फिर भी उस पर दमनकारी संरचना का बहुत बड़ा दबाव पड़ता है। यह दमन उसका अलगाव कर देता है और उसकी गतिविधियाँ बंधी हुई और सीमित हो जाती है। सार्व ने कहा कि प्रत्येक शोषणकारी व्यवस्था की तरह में ऐसे मानवीय कार्यकलाप निहित होते हैं जो शोषण के उद्देश्य से प्रेरित होते हैं, अतः उनका नैतिक दायित्व निर्दिष्ट किया जा सकता है। अपने प्रसिद्ध कृति बिईंग एण्ड नर्सिंगनेस में सार्त्र ने व्यक्ति की स्वतंत्रता का अच्छा दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
गिला हैईम ने सार्त्र की पुस्तक का एक विशद् विश्लेषण रखा है। वे कहती हैं कि सार्त्र के दर्शन का बहुत बड़ा सिद्धान्त यह है कि डटकर संरचनावाद का विरोध करते हैं। सार्त्र का अस्तित्ववाद यह मानकर चलता है कि व्यक्ति में सब कुछ करने की क्षमता है, वह वर्तमान से आगे भविष्य की ओर जा सकता है। अपनी आलोचना में गिला हैईम कहती हैं कि सार्त्र का आदमी स्वयं अपने भविष्य का निर्माता है। जो कुछ आदमी को दिया गया है, उससे आगे वह बढ़ सकता है। यद्यपि सार्त्र मार्क्स से प्रभावित थे। फिर भी वे रूढ़िवादी मार्क्सवादियों की आलोचना करते हैं और आग्रहपूर्वक कहते हैं कि संरचना या समाज की भूमिका को अतिरंजित रूप में नहीं रखना चाहिए। सार्त्र जहाँ अस्तित्ववादी थे, वहीं वे मानववादी भी थे। वे मार्क्स की तरह आदमी की मुक्ति के हिमायती थे।
संरचनावाद का सार्त्र के अस्तित्ववाद और मानववाद के विरोध में आया। संरचनावादियों ने अपने प्रबन्ध में कहा कि व्यक्ति कुछ नहीं है। उसे कोई स्वतंत्रता नहीं है। वह तो केवल संरचना की कठपुतली मात्र है। अतः जहाँ सार्त्र का अस्तित्ववाद व्यक्ति पर अपने आपको केन्द्रित करता है, वहाँ संरचनावाद का मुख्य केन्द्र संरचना या समाज है। यह संरचना ही है जो व्यक्ति के क्रियाकलापों का निर्धारण करती है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति बनाम संरचना की बहस में संरचनावादी समाज की निर्णायक शक्ति पर जोर देते हैं।
एक विधि के रूप में संरचनावाद
विधि से हमारा यहाँ तात्पर्य यह है कि इसके माध्यम से शब्दों के अर्थ का विश्लेषण किया जा सकता है। संरचनावाद हमें इसका संकेत है कि किस बात की खोज करना है और यह खोज कैसे होगी। इसके लिए हम यहाँ भाषाविज्ञान के एक मॉडेल का उल्लेख करेंगे। यह मॉडले संरचनात्मक विधि का महत्त्वपूर्ण आधार है।
आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक के रूप में फर्डिनेंड सोसेर का नाम महत्त्वपूर्ण है । सोसोरे से पहले भाषाविज्ञान पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया था। अधिक से अधिक हम भाषा के काल खण्ड में विकास की चर्चा करते थे। सोसोरे ने दरखाईम को अपना मार्गदर्शक माना और कहा कि जिस प्रकार समाज के विभिन्न भागों के सम्बन्धों का अध्ययन कर के हम सम्पूर्ण समाज को समझ सकते हैं, ठीक वैसे ही भाषा के विभिन्न भागों के सम्बन्धों को समझकर हम सम्पूर्ण भाषा को समझ सकते हैं। अब ये भाग कौन से हैं और इनके सम्बन्ध कैसे हैं?
वाणी और भाषा
भाषा का, चाहे कोई भी हो, बहुत बड़ा उद्देश्य अपनी बात को दूसरे तक पहुँचाना है। भाषा के तत्व एक दूसरे से जुड़े होते हैं और इनके द्वारा दूसरों के साथ संचार किया जाता है। कोई एक शब्द पूरी बात को नहीं कह पाता। हमें सम्पूर्ण भाषा को समझना पड़ता है। इसी से हमें वाणी और भाषा का अन्तर करना चाहिए। जब हम अपने मुँह में कुछ बोलते हैं तो यह हमारी वाणी है। दूसरी ओर भाषां उन सबके पास होती है, जो इसे बोलते हैं। भाषा तो एक तरह का कच्चा माल है। इसे हम वाक्यों का स्वरूप देते हैं। रोटी, दाल, पानी आदि किसी भाषा के शब्द हैं। इन्हें यानी भाषा को प्रयोग में लाकर हम कहते हैं हमें, रोटी, दाल और पानी चाहिए। ये भाषा के भाग हैं और इन्हें हम वाणी द्वारा व्यक्ति करते हैं। शब्दों में ध्वनि होती है। प्रत्येक भाषा की एक व्याकरण होती है इसमें नियम होते हैं, ध्वनि होती है। इसे हम खेल के दृष्टांत द्वारा अधिक सरलता से समझ सकते। हैं, क्रिकेट का खेल लीजिए। इसमें बल्ला होता है, हाथ-पाँव में बाँधने के पैड होते हैं, गेंद होती हैं, स्टाम्स होते हैं और इन सबके ऊपर क्रिकेट खेलने के कुछ नियम होते हैं। वाणी व्यक्ति की अपनी पहचान है जैसे, प्रत्येक खेल की अपनी निजी पहिचान होती है।
भाषा, इस भाँति, वाणी में निहित एक नई तर्क या संरचना है संकेत
भाषा की इस सरंचना का तर्क के कुछ तत्व होते हैं। ये तत्व संकेत कहलाते हैं। हम अपने दिनप्रतिदिन के जीवन में इन तत्वों को काम में लेते हैं। अपने गले में तुलसी की माला पहिनते हैं। यह बताना है कि हम पुष्टिमार्गी या बल्लभ पंथ के अनुयायी हैं। आकाश में काले बादलों को देखकर, हमें लगता है कि अभी बारिश होने वाली है और चौराहे पर लाल रंग की बत्ती देखकर हमें संकेत मिलता है कि रुक् जाना चाहिए। अमेरिकी दार्शनिक सी. एस. पैरसे कहते हैं संरचनावाद में तीन प्रकार के संकेत काम में लिए जाते हैं। पहले संकेत प्रतिमा संकेत होते हैं। ये संकेत समानता को बताते हैं। हमारे गले की तुलसी की माला वल्लभ सम्प्रदाय की विशिष्टता को बताती है। दूसरे प्रकार के संकेत अभिसूचक कहलाते हैं। इसमें दो या अधिक वस्तुओं में आकस्मिक सम्बन्ध दिखाए जाते हैं। बादल और पानी का संकेत आकस्मिक सम्बन्धों का संकेत हैं। यह सम्बन्ध मनमाने ढंग का सम्बन्ध है। लाल रंग का मतलब रुक जाने से नहीं है। रुकने के लिए काला, पीला, नीला कोई भी संकेत काम में लिए जा सकता है। लेकिन यह कुछ ऐसा हुआ कि सभी लोग लाल रंग के इस अर्थ से सहमत हो गये कि यह रंग खतरे को बताने वाला है। अतः इसे देखने पर रुक जाना चाहिए। मतलब हुआ इस तरह के संकेतों के अर्थ समाज मनमाने ढंग से निश्चित करता है। अब यदि कोई व्यक्ति अपने आप ही तय कर लेता है कि लाल रंग के संकेत का मतलब चौराहे से निकल जाना है और हरे रंग का संकेत रुक जाना है, तो परिणाम अच्छे नहीं। होंगे। और हम समाज के सदस्य नहीं रहेंगे।
कुल मिलाकर भाषा की बुनियादी इकाई संकेत हैं और ये संकेत मनमाने होते हैं। लाल रंग में कोई ऐसे तत्व नहीं हैं जो इसे खतरनाक बनाते हों। जैसे दूसरे रंग हैं, वैसे ही लाल रंग भी। लेकिन मनमाने ढंग से हमने इस रंग को खतरनाक बना दिया। जिसे हम कुत्ता कहते हैं। इसका कोई मतलब काले चार पाँव जानवर के नहीं हैं, जिसे हमने कुत्ता कह दिया, उसे प्रोफेसर भी कह सकते थे। शब्दों के अर्थ मनमाने ढंग से लगाये जाते हैं। ये तो संकेत मात्र हैं। हम कुत्ते को प्रोफेसर नहीं कर सकते क्योंकि कुत्ते का संकेत कुत्ता ही है। संकेत के दो पहलू होते हैं, एक संकेतर और दूसरा संकेतिक संकेत के ये दोनों पहलू किसी भी सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। इन दोनों में गहरा सम्बन्ध होता है। संकेतर एक भौतिक वस्तु है, जैसे ऊपर के दृष्टांत का लाल रंग, कुत्ते के भौंकने की आवाज या सिक्के के एक बाजू पर लिखी इबारत। ये सब भौतिक हैं और हमें कोई न कोई संकेत अवश्य देते हैं। ये अपने मूल के संकेतक हैं यानी संकेत देने वाले। अब जो संकेतीत हैं। यह संकेतीत हैं, वह एक अवधारणा है। संकेतीत का अर्थ समाज निकालता है। जैसे लाल रंग का अर्थ समाज ने खतरे से लगाया, वैसे ही जो कुछ संकेतीत हैं, इसका अर्थ समाज ही लगाता है। अगर संकेतर और संकेतीत को संरचनात्मक ढंग में देखें तो कहेंगे संकेतर का मतलब ध्वनि विंब से है, जबकि संकेतित का मतलब विचारों के किसी विभेदीकृत वस्तु या मानसिक प्रतिनिधित्व से। वस्तुतः किसी भी संकेत का निर्माण संकेतर और संकेतीत से जुड़कर बनता है। इन दोनों के बीच का सम्बन्ध मनमाना होता है। भाषाई स्वरूपों और उनके, प्रकल्पित अर्थों के बीच कोई आवश्यक प्राकृतिक या आन्तरिक सम्बन्ध नहीं होता ।
वाक्य- विन्यास और पैराडिम
जब हम कहते है कि संकेत का अर्थ मनमाना होता है, तब यह कहानी अभी अधूरी किसी भी भाषा में संकेत के अर्थ के सहमत होना महत्वपूर्ण नहीं है। वास्तव में संकेत का अर्थ सम्पूर्ण संरचना के संदर्भ में लिया जाता है। ट्रैफिक की लाल बत्ती वस्तुतः एक संरचना है जिसमें हरा रंग भी सम्मिलित है। इसलिए एक भाषायी संकेत का अर्थ अन्य संकेतों के साथ उसका जो सम्बन्ध है, उस पर निर्भर करता है। हम जानते हैं कि ‘तीन’ का अर्थ उसके ‘एक’, ‘दो’ और ‘चार’ के साथ जो सम्बन्ध हैं, उससे निकलता है। अपने आप में ‘तीन’ बेमतलब है जब तक इसे हम अन्य संकेतों के साथ नहीं समझते हैं। हिन्दी के शब्द ‘लगान’ और ‘लगन’ एक ही संकेत के बने हैं लेकिन इनके अर्थ भिन्न इसलिए हैं कि इनकी ध्वनि के सम्बन्ध एक दूसरे के साथ अलग हैं। अल्थ्यूज़र का कहना है कि मार्क्स की कृतियों में अलगाव का जो अर्थ है वह बाद की कृतियों से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए हैं कि बाद में इसका सम्बन्ध कई अन्य अवधारणाओं के साथ है।
सोसोरे ने जो महत्वपूर्ण बात कही है वह यह है कि भाषा के किसी भी शब्द या संकेत का अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि इस शब्द या संकेत का दूसरे शब्दों या संकेतों के साथ क्या सम्बन्ध है। संकेत का सम्बन्ध वस्तु के साथ नहीं होता। यानी शब्द का सम्बन्ध वस्तु के साथ नहीं होना। दूसरे शब्द या संकेत के साथ होना है और इसके अर्थ को दूसरे शब्द या संकेत के साथ जो सम्बन्ध है, उससे निकालते हैं। भाषा का यह विवेचन बताता है कि संरचनावाद भाषा की जो बुनियादी संरचना है, उसके तत्व हैं नियम उपनियम हैं और पारस्परिक सम्बन्ध हैं, उनका पता लगाता है। व्याकरण मनमानी नहीं होती, इसका वाक्य विन्यास व्याकरण द्वारा नियंत्रित होता है। हम यह कभी नहीं कह सकते कि वे जाता है व्याकरण बताती है, इसका नियम है कि वे हैं और बहुवचन हैं इसलिए इसकी क्रिया भी बहुवचन होगी। हम कहेंगे वे जाते हैं। सोसोरे और संरचनावादियों ने भाषा के आधार पर संरचनावाद का एक मॉडेल या पेराडिम बनाया है। इसके मुख्य तत्वं इस प्रकार हैं-
1. भाषा में पूर्वधारणाएँ निहित होती हैं और इसलिए यह उचित लगता है कि हमें वाणी की अपेक्षा भाषा को देखना चाहिए।
2. यह भी नहीं समझना चाहिए कि वाणी का निर्धारण भाषा करती है। हमें वाणी को कभी भी उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। कई अनपढ़ लोग वाणी का ही उपयोग करते हैं जबकि उन्हें भाषा और उसकी व्याकरण नहीं आते।
3. किसी भी शब्द या संकेत का अर्थ अन्य शब्दों या संकेतों के साथ उसका क्या सम्बन्ध है, इस पर निर्भर करता है। शब्द का अर्थ उसका वस्तु के साथ क्या सम्बन्ध है, इस पर कभी निर्भर नहीं होता।
4. अनिवार्य रूप से संरचना भाषा में जो बुनियादी संरचना है, उसकी पड़ताल करती है।
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