राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में प्रत्यक्षवाद की अवधारणा की विवेचना कीजिए।

राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में प्रत्यक्षवाद की अवधारणा
राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में प्रत्यक्षवाद की अवधारणा

राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में प्रत्यक्षवाद की अवधारणा

राजनीति-सिद्धांत का सरोकार राजनीति विज्ञान और राजनीति-दर्शनों दोनों से है। इसमें कुल मिलाकर तीन तरह के कथन की ज़रूरत होती है:

(1) अनुभवमूलक कथन : जैसे कि हम क्या देखते, सुनते या अनुभव करते हैं? हम अपनी ज्ञानेंद्रियों से जो भी निरीक्षण करते हैं, वह सब अनुभवमूलक कथन के रूप में व्यक्त किया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि सब मनुष्यों में निरीक्षण की एक जैसी क्षमता पाई जाती है, अतः हम अपने अनुभव को दूसरों के अनुभव से मिलाकर उसकी पुष्टि और सत्यापन कर सकते

(2) तार्किक कथन: जैसे कि ‘दो और दो मिलाकर चार होते हैं।’ हम अपनी तर्कबुद्धि से जिन बातों पर पूरा विश्वास कर सकते हैं, वह सब तार्किक कथन के रूप में व्यक्ति किया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि सब मनुष्यों में एक जैसी तर्कबुद्धि पाई जाती है, अतः हम अपने कथन को तर्क की कसौटी पर कसकर उसकी पुष्टि और सत्यापन कर सकते हैं, और

(3) मूल्यपरक कथन: जैसे कि ‘शुभ और अशुभ’ ‘उचित और अनुचित’, ‘सुंदर और कुरूप क्या हैं, हमें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए, मानव-जीवन और संपूर्ण सृष्टि का प्रयोजन क्या है; इत्यादि। ये व्यक्तिगत या सामूहिक निर्णय के विषय हैं, और इनकी जांच करने की कोई विश्वसनीय विधि या अंतिम कसौटी नहीं है। अतः ऐसे कथन पर मतभेद पैदा होना स्वाभाविक है।

वैज्ञानिक पद्धति के अंतर्गत प्रत्यक्षवाद पर बल दिया जाता है जिसमें केवल ‘अनुभवमूलक’ और ‘तार्किक’ कथन को मान्यता दी जाती है, क्योंकि उसकी पुष्टि और सत्यापन में कोई बाधा। नहीं आती। प्रत्यक्षवाद के समर्थक यह तर्क देते हैं कि मूल्यपरक कथन केवल भावात्मक अधिमान्यता का विषय है जिसका चरित्र आत्मपरक है, वस्तुपरक नहीं। अनुभवमूलक और तार्किक स्तर पर इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में, जो बात एक व्यक्ति को उत्तम या सुंदर प्रतीत हो, यह जरूरी नहीं कि वह दूसरों को भी वैसी ही प्रतीत हो, यह जरूरी नहीं कि वह दूसरों को भी वैसी ही प्रतीत हो वैज्ञानिक पद्धति के समर्थक ऐसे किसी कथन को मान्यता नहीं देते जिसकी वैज्ञानिक स्तर पर पुष्टि नहीं की जा सकती । अतः वे मूल्य-निरपेक्ष उपागम का समर्थन करते हैं।

प्रत्यक्षवाद की अवधारणा

प्रत्यक्षवाद वह सिद्धांत है जो केवल वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त ज्ञान को उपयुक्त, विश्वस्त और प्रमाणिक मानता है। प्रत्यक्षवाद के समर्थक यह मांग करते हैं कि सामाजिक विज्ञानों की सामग्री का प्रामाणिक रूप देने के लिए उसे प्राकृतिक विज्ञानों के पद्धतिविज्ञान के अनुरूप ढालना जरूरी है । इस दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्ट कॉम्टे (1798-1857) को प्रत्यक्षवाद का मुख्य प्रवर्त्तक माना जाता है। कॉम्टे की प्रसिद्ध कृति ‘द पॉज़िटिव फिलॉसफी’ (प्रत्यक्षवादी दर्शन) (1830-42) के अनुसार, मानवीय ज्ञान की प्रत्येक शाखा को अपनी प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने से पहले ती सैद्धांतिक या पद्धतिवैज्ञानिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है । ये अवस्थाएं हैं:

(1) धर्ममीमांसीय अवस्था : इसमें सब घटनाओं की व्याख्या अलौकिक या आध्यात्मिक शक्तियों के संदर्भ में दी जाती है; यह ज्ञान की आरंभिक अवस्था है;

(2) तत्त्वमीमांसीय अवस्था : इसमें सब घटनाओं की व्याख्या अमूर्त तत्त्वों और अनुमान के आधार पर दी जाती है। यह ज्ञान की मध्यवर्ती अवस्था है। यह नकरात्मक अवस्था है। जिसका अपना ऐतहासिक महत्त्व है। इसमें संसार तथा सामाजिक जीवन के बारे में पुरानी संकल्पनाओं की आलोचना करके उन्हें ध्वस्त किया जाता है। यह अवस्था प्रत्यक्षवादी दर्शन या प्रत्यक्षवाद की स्थापना के लिए आवश्यक भूमिका तैयार करती है क्योंकि नई अवस्था स्थाति करने के लिए पुरानी अवस्था के अवशेषों को मिटाना ज़रूरी होता है; और

(3) वैज्ञानिक प्रत्यक्षवादी अवस्था : इसमें यह मानते हैं कि सारी घटनाएं निर्विकार प्राकृतिक नियमों से क्रिया बँधी हैं, निरीक्षण और प्रयोग-क्रिया की सहायता से इन नियमों का पता लगा सकते हैं। इस पद्धति के अंतर्गत यथार्थ कार्य-कारण संबंधों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

कॉम्टे के अनुसार विज्ञान और दर्शन एक ही श्रेणी का ज्ञान है जिसे धर्ममीमांसा और तत्त्वमीमांसा से पृथक करके पहचान सकते हैं। फिर, धर्ममीमांसा और विज्ञान एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि इनके बीच की दूरी को तय करने के लिए तत्त्वमीमांसा के पुल को पा करना ज़रूरी है। इसके अलावा, विज्ञान का सरोकार केवल तथ्यों के ज्ञान से नहीं है; वह मूल्यों का ज्ञान भी प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, ‘सत्य का ज्ञान होने पर ‘कर्तव्य’ का ज्ञान अपने-आप प्रकट होता है । इस दृष्टि से कॉम्टे का विचार सुकरात की परंपर को आगे बढ़ाता है।

विज्ञानों का श्रेणीतंत्र

कॉम्टे के अनुसार, भिन्न-भिन्न विज्ञान—चाहे वे प्राकृतिक विज्ञान हों या सामाजिक विज्ञान हों – एक ही ढंग से विकासित होते हैं। परंतु सब विज्ञानों की विषय-वस्तु एक जितनी जटिल नहीं होती, अतः भिन्न-भिन्न विज्ञान भिन्न-भिन्न समय पर अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँचते हैं। इस तरह भिन्न-भिन्न विज्ञान एक प्राकृतिक और तर्कसंगत क्रम से विकसित होते हैं। सबसे पहले वह विज्ञान विकसित होता है (क) जो सबसे कम जटिल हो या जिसका सरोकार सबसे सामान्य घटनाओं से हो, और (ख) जो मानव-जीवन के विश्लेषण से अत्यंत दूर हो। सबसे अंत में वह विज्ञान विकासित होता है (क) जो सबसे अधिक जटिल हो, और (ख) जो मानव जीवन के साथ निकट से जुड़ा हो। इस आधार पर कॉम्टे ने समस्त विज्ञानों को एक विकास क्रम के अनुसार व्यवस्थित किया है जिसे ‘विज्ञानों का श्रेणीतंत्र’ कहा जाता है।

‘विज्ञानों के श्रेणीतंत्र’ की बुनियाद गणित है। गणित अन्य विज्ञानों से भिन्न है क्योंकि (क) इसका सरोकार अत्यंत सामान्य और अमूर्त विषयों से है, (ख) यह सब विज्ञनों से महत्त्वपूर्ण है। और विज्ञान एवं दर्शन का आधार प्रस्तुत करता है; और (ग) इसमें शुरू से ही वैज्ञानिक प्रत्यक्षवादी पद्धति अपनाई जाती है, अतः इसे अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँचने के लिए ज्ञान के विकास की तीन अवस्थओं से नहीं गुज़रना पड़ता, जैसा कि अन्य सब विज्ञानों को गुज़रना पड़ता है। इसके बाद जैसे-जैसे इस श्रेणीतंत्र में आगे बढ़ते हैं, (क) प्रत्येक विज्ञान की विषय-वस्तु अधिक जटिल होती जाती है; (ख) उसमें वैज्ञानिक पद्धति का निर्वाह कठिन से कठिनतर हो जाता है; और (ग) मानवता से उसका सरोकार बढ़ता जाता है। इस दृष्टि से कॉम्टे ने विज्ञानों के श्रेणीतंत्र का यह रूप निर्धारित किया है :

1. गाणित

2. ज्योतिविज्ञान

3. भौतिक विज्ञान

4. रसायन विज्ञान

5. शरीर क्रिया विज्ञान

6. समाजविज्ञान

कॉम्टे का विश्वास है कि इस क्रम में बढ़ती हुई कठिनता के बावजूद प्रत्येक विज्ञान को वैज्ञानिक प्रत्यक्षवादी स्तर पर लाया जा सकता है । इस दृष्टि से प्रत्येक परवर्ती विज्ञान को अपने पूववर्ती विज्ञान के स्तर पर लाने का प्रयत्न करना चाहिए, और यह प्रयत्न तब तक जारी रखना चाहिए जब तक समाजविज्ञान भी गणित जितनी यथातथ्यता के स्तर पर न आ जाए।

यह बात महत्वपूर्ण है कि जहां कॉम्टे ने सामाजिक विज्ञान में प्राकृतिक विज्ञानां की पद्धति अपनाने का इतना प्रबल समर्थन किया, वहां उसने तथ्यों और मूल्यों के विचारक्षेत्रों के बीच कोई दीवार खड़ी नहीं की। उसने प्रगति के सिद्धांत में आस्था व्यक्त करते हुए यह विश्वास प्रकट किया कि प्रत्यक्षवाद पर आधारित समाजविज्ञान हमें सामाजिक संगठन के लिए उपयुक्त मूल्यों की सूझबूझ प्रदान करेगा, और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए मागदर्शन भी देगा।

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