राजनीतिक सिद्धान्त के पतन
विद्वानों का कहना है कि पिछले 150 वर्षों में राजनीतिक सिद्धान्त का पतन हुआ है। यह बहस सन् 1950 और सन् 1960 के दशकों में शुरू हुई। इन लोगों का कहना था कि द्वितीय विश्व युद्ध तक राजनीतिक सिद्धान्त का पतन, ह्रास यहाँ तक कि मृत्यु के कगार पर पहुँच चुका था।
राजनीतिक सिद्धान्त के पतन के बारे में जो विस्तृत चर्चा चली उसका लक्ष्य ‘राजनीतिक दर्शन’ था। राजनीतिक दर्शन को लक्ष्य करके जो राजनीतिक सिद्धान्त के पतन की बात कर रहे थे वही लोग राजनीति विज्ञान को लक्ष्य करके राजनीतिक सिद्धान्त के पुनरुद्धार की कोशिश कर रहे थे। राजनीतिक दर्शन को मानने वालों का सरोकार आदर्श, मानकों एवं मूल्यों से है। इसका विरोध करने वालों का तर्क था कि राजनीति विज्ञान का सरोकार यथार्थ एवं तथ्यों से है। इस समय राजनीतिक सिद्धान्त के लिए नयी रीतियाँ एवं नये तर्क दिये जा रहे थे जिससे कि यह शक्ति विहीन हो गयी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय यह एक निष्क्रीय दर्शक की तरह मानव विनाश को देखता रह गया। द्वितीय विश्व युद्ध का भयंकर विनाश एवं रक्तपात भी इन सिद्धान्तकारों को यथार्थ पर चलने को मजबूर न कर सका और ये लोग आदर्शों एवं मूल्यों में उलझे रहे और उसी दशा में चिन्तन करते रहे। जिससे बाद के विचारकों ने इनकी आलोचना की क्योंकि यथार्थ से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था।
डेविड ईस्टन ने उन कारकों का विश्लेषण किया कि उसने राजनीतिक सिद्धान्त के पतन में योगदान दिया। उनका कहना है कि इतिहासवादी अवधारणा ने पंतन के पीछे मुख्य भूमिका निभाई। जिसमें माना जाता है कि विचार एवं मूल्य स्व उत्पादित होते हैं। विचारक अपने विचार को इतिहास पर आधारित करते हैं। इन दार्शनिकों के पास तथ्यों के निरीक्षण के उपयुक्त उपकरण नहीं थे और वे आधुनिक सांख्यिकीय तरीकों से भी परिचित नहीं थे। उनकी कृतियों में तथ्यों के निरूपण के साथ-साथ अनेक काल्पनिक बातें आ गयी थीं। राजनीतिक दर्शन जिन स्थितियों की व्याख्या करता है वे मानवीय जीवन की आवश्यकताओं, इच्छाओं और उद्देश्यों से सम्बन्ध रखती हैं। वैज्ञानिक पद्धति से न इसका पता लगा सकते हैं और न इसकी जाँच कर सकते हैं। विविडली का कहना है। कि ऐतिहासिक विचारक स्थितियों को समझकर एक विशेष विचार को जन्म देते हैं। एक इतिहासवादी विचारक अपने समय की परेशनी को हल करने और नये मूल्यों को बताने में कम रुचि रखता है। जैसा कि ईस्टन बताता है कि समकालीन विचारक एक जोंक की तरह सदियों पुराने विचारों पर निर्भर रहते हैं एवं नये राजनीतिक विचारों एवं मूल्यों को विकसित करने में असफल रहते हैं। यह लोक कल्पना पर अधिक निर्भर रहते हैं।
ईस्टन इन सभी को चार समूहों में रखता है-
(1) संस्थावाद
(2) अंतःक्रियावाद
(3) भौतिकवाद या पदार्थवादी
(4) मूल्य-लेखक
संस्थावादी (जैसे मैकियावली) एक विशेष राजनीतिक हित एवं संस्था के युक्तिपूर्वक व्याख्या के लिए इतिहास के गर्त में जते हैं। अतः क्रियावादी (जैसे एलन एवं कार्यालय) संस्था एवं विचारों का अन्तः क्रिया का विश्लेषण करते हैं और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पर उसके प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। भौतिकवादी जैसे ईस्टन, सेबाइन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों के सन्दर्भ में अपने राजनीतिक विचार दिए। मूल्य-लेखकों का प्रतिनिधित्व लिंडसे करता हैं। लिंडसे किसी निश्चित मूल्य जैसे लोकतन्त्र और उसको जन्म देने वाले कारकों का विश्लेषण करते हैं।
वास्तव में ईस्टन एक ऐसे सिद्धान्त के निर्माण का पक्षपाती है जिसमें मूल्यों का पुनः निर्माण हुआ हो जो मौजूदा परिस्थिति के अनुकूल हो । इतिहासवादियों के अतिरिक्त नैतिक ज्ञानवादी (मारेल रेलेटिविटिज्म) तथ्यों पर विचारक भी निराशा उत्पन्न करते हैं। मारेल रिलेटिविटिज्म नैतिकता के वैश्विक सिद्धान्त में विश्वास न रखकर समकालीन परिस्थितियों में विश्वास रखते हैं। ह्यरुम, मैक्स वेबर, काम्ट एवं मार्क्स इसके अधिवक्ता थे। यह लोग तथ्यों में से मूल्यों को निकालकर व्यक्ति विशेष की इच्छा के अधीन रखते हैं। यह इच्छा आध्यात्मिक न होकर व्यक्ति के जीवन के अनुभवों पर आधारित है।
यूरोप में सामान्य मूल्यों जैसे पूँजीवाद राष्ट्रवाद, और लोकतन्त्र का विकास बहुत समय पूर्व हुआ। रूस में इसका विकास नई विचारधारा के रूप में विकसित हुआ। इसके अतिरिक्त इटली में फासीवाद, जर्मनी में नाजीवाद का उदय हुआ। समाजशास्त्रीय ज्ञान की अवधारणा इस विचार की समर्थक है कि मनुष्य में विचार उसके सामाजिक स्थिति के द्वारा उत्पन्न होते हैं और उसी के समय से सम्बन्धित होते हैं। इस तरह ज्ञान का फिर कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। ज्ञान किसलिए? यह प्रश्न उठाया गया परन्तु यह मौजूदा मूल्य मुक्त राजनीति विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अर्थहीन साबित हुआ। सिर्फ कुछ ही लोगों को समाज की चिन्ताहुई। अतः एक अच्छे सिद्धान्त इतिहासवाद एवं प्रयोग सिद्धान्त के अभाव में राजनीतिक सिद्धान्त का पतन हुआ। मूल्य
अल्फ्रेड कोब्बन ने समकालीन परिस्थिति को रोमन कालीन साम्राज्य की तरह पाया। उन्होंने राज्य की शक्तियों में वृद्धि, नौकरशाही एवं सैनिक जमाव को राजनीतिक सिद्धान्त के विकास के लिए घातक बताया ।
कोब्बन के अनुसार राजनीतिक विचार एवं दिशाविहीन एवं उद्देश्यविहीन हो चुका है। भूतकाल में सभी महान् विचारक समाज के भविष्य को लेकर चिन्तित थे, और अपने नये विचारों द्वारा समाज का पुनर्निर्माण करना चाहते थे। उनके कहने एवं लिखने में पूरी निष्ठा थी। कोब्बन के अनुसार अब वह उत्तेजना समाप्त हो चुकी हैं क्योंकि उसका स्थान ऐतिहासिक उपागम एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने ले लिया। ऐतिहासिक उपागम कुछ हद तक सफल रहा लेकिन वैज्ञानिक पद्धति को अंधा होकर अपनाने से उत्तेजनात्मक विचारों का जन्म हुआ।
दांते गेरिमीनो ने आइडियोलॉजिकल रिडक्शनलिज्म को राजनीतिक सिद्धान्त के पतन का कारण बताया है। उनका कहना है कि राजनीतिक सिद्धान्त एक विचारधारा बनकर रह गयी है जैसा कि मार्क्सवाद। पिछले 150 वर्षों में हुए बौद्धिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों के कारण राजनीतिक सिद्धान्त अन्धकार के गर्त में गिरा है। वैज्ञानिक विधि एवं राजनीतिक आन्दोलन जैसे लोकतन्त्र, राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद ने राजनीतिक सिद्धान्त के लिए जरूरी वातावरण को नष्ट कर दिया है। ऑगस्ट काम्टे ने जिस समाजशास्त्र, सामाजिक विज्ञान को जन्म दिया वह प्राकृतिक विज्ञानों पर आधारित था, ये इसके द्वारा उन्होंने मानव व्यवहार के नियम निर्धारित किया। मार्क्स ने कॉम्टे से आगे बढ़ते हुए मानव समाज के सिद्धान्त का निर्माण किया। उसके अनुसार यह श्रमिक वर्ग के हाथों के एक महत्त्वपूर्ण हथियार हैं। इसके द्वारा राज्य विहीन एवं वर्ग विहीन सिद्धान्त का निर्माण किया जा सकता है।
गेरिमिनो ने राजनीतिक सिद्धान्त के पतन के लिए तथ्य एवं मूल्यों का माना है एवं क्या होना चाहिए में अलगाव को माना है। मैक्स वेबर ने प्रयोग सिद्ध ज्ञान एवं न्यायिक मूल्य में अन्तर बताया है। इसी आधार पर उन्होंने मार्क्सवादी विचार को चुनौती दी। हालांकि मार्क्स ने मूल्य को -स्वीकार किया है लेकिन उसे वैज्ञानिक परीक्षण के बाहर रखा है। एक सामाजिक वैज्ञानिक की तरह मैक्स वेबर निष्क्रिय नैतिकता के पक्ष में खड़े रहे जिसके कारण राजनीतिक सिद्धान्त का विकास अवरुद्ध हुआ। इसलिए गेरिमिनो का मानना है कि राजनीतिक सिद्धान्त का उसके पुराने स्वरूप में फिर लाना असम्भव है। गेरिमिनो का मानना है कि ईस्टन, वेबर आदि स्वयं सिद्ध तर्क प्रस्तुत करने वाले प्रत्यक्षवादी हैं जिन्होंने असफल रूप से मूल्यों एवं तथ्यात्मक योगों को जोड़कर राजनीतिक सिद्धान्त बनाना चाहा।
मूल्यों एवं समाज के उद्देश्यों के समन्वय की कमी एवं उन्हें वास्तविक रूप में प्राप्ति करने की इच्छा शक्ति ने किसी नये राजनीतिक सिद्धान्त के विकास को रोक दिया। पैट्रिज का कहना है कि पारम्परिक राजनीतिक सिद्धान्त का अन्त लोकतन्त्र की विजय का परिणाम है। अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस के लोग अपने परिवार एक साथ स्थापित हो जाने के बाद अपने उद्देश्य की पूर्ति में लग जाते हैं जो फिर से एक तकनीकी एवं वैज्ञानिक समस्या हैं।
दूसरे मत के विद्वानों का कहना है कि पारम्परिक राजनीतिक सिद्धान्त का अन्त कभी भी नहीं हुआ और वह परस्पर विकास कर रहा है। प्लेमनाज, वेल्डन एवं कुछ अन्य लोग इसके पतन को भी नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार केवल उसने अपने स्वरूप को बदल लिया है।
काल्पनिक या स्वप्न लोकीय सिद्धान्त भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि इन सबने भूतकाल में विचारों एवं घटनाओं को प्रभावित किया है। पहले राजनीतिक सिद्धान्त धर्म एवं दर्शन में निहित होता था। परन्तु अब वे अपने क्षेत्र खुद बना रहे हैं। गेरिमिनो ने पारम्परिक राजनीतिक सिद्धान्त में. एक आन्दोलन देखा है इनमें माइकेल आकशोट, हन्ना अरेण्ट, वटैंड डी. जुवेनेल, लियो स्ट्रॉस, एरिक वोगलिन इत्यादि शामिल हैं। इसी तरह बर्लिन ने बताया है कि बिना किसी सामान्य दर्शन के किसी भी प्रकार की मानव गतिविधि सम्भव नहीं है। इनका कहना है कि जैसे-जैसे समाज विकास करता है लोगों को नये सिद्धान्तों की जरूरत पड़ती है तांकि वे अपने आप को, संगठित कर सकें एवं अपने कार्यों को सही एवं तार्किक सिद्ध कर सके। यदि उनके पास नये सिद्धान्त नहीं होंगे तो वे उसका आविष्कार करेंगे। मानव हमेशा अपने लिए एक न एक सिद्धान्त खोजता रहेगा। इसके अतिरिक्त पारम्परिक विचारों के लिए प्लेटो एवं अरस्तू ही काफी हैं क्योंकि इनका मानना है कि राजनीतिक सिद्धान्त इनसे परे है ही नहीं।
अभी तक के उपर्युक्त विवेचन में राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ पारम्परिक राजनीतिक सिद्धान्त से है जो उद्देश्य ‘मूल्य’ प्रकृति एवं राजनीतिक समाज के कार्यों एवं उनकी संरचना से सम्बन्धित है। ये सभी विचारक राजनीतिक सिद्धान्त को राजनीतिक दर्शन से जोड़ते हैं। गेरिमिनो के अनुसार राजनीतिक सिद्धान्त मानव के समाज में होने के सही क्रम के सिद्धान्त का गहन एवं कठिन अध्ययन है।
अतः पारस्परिक राजनीतिक सिद्धान्त आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त से अलग है। पारम्परिक राजनीतिक सिद्धान्त मूलतः दर्शन धर्म एवं इतिहास से उत्पन्न होता है और वह मानव जीवन के उद्देश्य पर अधिक ध्यान देता है। इनके सिद्धान्तविद् मूलतः राजनीतिक दार्शनिक होते हैं जो अपना सिद्धान्त समाज को सुधारने के उद्देश्य से लिखते हैं उनकी रुचि यथार्थ राजनीतिक प्रक्रिया एवं घटना में कम होती है। चूंकि उनके सिद्धान्त अध्यात्म एवं कल्पना पर आधारित हैं इसलिए उसे तर्क संगत साबित करना कठिन है। अतः कहा जा सकता है कि पारस्परिक राजनीतिक सिद्धान्त का पतन हुआ है तथा किसी नये सिद्धान्त का निर्माण नहीं हुआ है।
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