परम्परावादी दृष्टिकोण एवं व्यवहारवादी दृष्टिकोण में अन्तर
मानव जीवन और राजनीति- यह एक मान्यता है कि राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत सम्पूर्ण मानव जवीन का अध्ययन नहीं किया जाता, वरन् राज्य नामक संस्था के सन्दर्भ में ही मानव का अध्ययन किया जाता है। व्यक्ति राज्य की भी एक इकाई है तथा समाज को भी, लेकिन वह समाज और राज्य के साथ अपने अस्तित्व को दो भिन्न व्यक्तियों से सम्बन्धित करने की चेष्टा करता है, अतः उसका अध्ययन भी इसी प्रकार करने की चेष्टा की जाती है । परन्तु स्थूल रूप से ही ऐसा दिखाई देता है, अपने सूक्ष्म स्वभाव में मनुष्य स्वयं को केवल सामाजिक रंगमंच का अभिनेता होना ही प्रमाणित करता है। उसे से प्राप्त होने वाली सुविधाएँ तथा असुविधाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। वह केवल असुविधाओं से स्वयं को रक्षित करने के लिए राज्य का मुखापेक्षी होता है। राज्य के साथ उसके सम्बन्ध केवल कानूनी होते हैं, जबकि समाज के साथ उसके सम्बन्ध परम्पराओं के बन्धन से बँधे होते हैं। इसी कारण राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों की समीक्षा चिरकाल से चलती रही है जो समाज को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। व्यक्ति प्रायः अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीन रहता है, तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक। इसी कारण और समस्याएँ पैदा होती हैं। व्यक्ति का व्यक्तित्व सामान्य हितों के प्रति सचेत रहने पर इसीकारण और समस्याएँ पैदा होती हैं। व्यक्ति का व्यक्तित्व सामान्य हितों के प्रति सचेत रहने पर सामूहिक व्यक्तित्व धारण कर लेता हैं। राज्य को सदैव उसमें इस व्यक्तित्व की समीक्षा करते रहना पड़ता है। यह समीक्षा ही व्यक्तियों और राज्य के मध्य का राजनीति विज्ञान है। अतः राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के अधिकार, राज्य के प्रति उसके कर्त्तव्य और व्यक्ति एवं राज्य पारस्परिक सम्बन्धों का संचालन करने वाले आधारभूत सिद्धान्तों और तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। कैटलिन के शब्दों में, “राजनीति विज्ञान नियन्त्रित के व्यापक सम्बन्धों का अध्ययन है।”
राज्य का अध्ययन– व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वोत्तम विकास और समाज के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु राज्य सर्वोच्च इकाई है। अरस्तू ने राज्य के सम्बन्ध में ठीक ही कहा है कि, “राज्य की उत्पत्ति जीवन के लिए हुई और सद्जीवन के लिए उसका अस्तित्व बना हुआ है।” मानव जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप ही भिन्न-भिन्न समयों पर राज्य के भिन्न-भिन्न रूप रहे हैं। और राजनीतिक विज्ञान के अन्तर्गत राज्य के इन सभी रूपों का अध्ययन किया जाता है। गैटल के शब्दों में कहा जा सकता है-
“राजनीति विज्ञान, ‘राज्य कैसा रहा है’ की एतिहासिक खोज, ‘राज्य कैसा है’ का विश्लेषणात्मक अध्ययन और ‘राज्य कैसा होना चाहिए’ की राजनीतिक व नैतिक परिकल्पना है।”
राज्य के अतीत का अध्ययन- राज्य के वर्तमान स्वरूप का ज्ञान उसके ‘भूतकाल के अध्ययन के आधार पर ही किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत हम राज्य की उत्पत्ति का अध्ययन करते हैं और यह देखते हैं कि राज्य का विकास कैसे हुआ तथा राजनीतिक संस्थाओं और विचारधाराओं ने क्या-क्या स्वरूप धारण किये। राज्य को अपना वर्तमान रूप प्राप्त करने में सदियाँ लगी हैं। प्रारम्भ में राज्य परिवारों का समूह मात्र था, जो आगे चलकर कुलों और जनपदों में विकसित हुए। यूनानी इतिहास में इन्हीं को नगर राज्य कहा गया है। धीरे-धीरे ये नगर राज्य परस्पर मिलकर संघों में संगठित होने लगे। यूनान के ‘एथिनियन लीग’ और ‘एकियन लीग’ इस प्रकार के संघ राज्यों के ही उदाहरण हैं। प्राचीन भारत में इसी प्रकार के नगर राज्यों ने परस्पर संगठित होकर ‘वज्जि संघ’ और ‘अन्धकवृष्णि संघ’ का गठन किया। इसके पश्चात् विजय और पराजय के चक्र में हमें वर्तमान राष्ट्रीय राज्यों के युग में लाकर खड़ा कर दिया और वर्तमान में हम “विश्व संघ’ की कल्पना करने लगे हैं।
राज्य के इन बदलते हुए रूपों के साथ ही साथ मनुष्य के राज्य विषयक विचारों में भी परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल में राज्य और उसकी आज्ञाओं को दैवी समझा जाता था, लेकिन वर्तमान राजनीतिक विचारों के अनुसार राज्य की प्रभुत्व शक्ति किसी एक व्यक्ति या किसी एक श्रेणी में निहित न होकर सर्वसाधारण जनता में निहित होती है। राजनीति विज्ञान इस बात की भी विवेचना करता है कि राजनीतिक विचारों का विकास कैसे हुआ और इस बात ने राज्य के स्वरूप को किस प्रकार प्रभावित किया।
राज्य के वर्तमान का अध्ययन – एतिहासिक विकास के परिणामस्वरूप वर्तमान समय में राज्य एक विशेष स्वरूप को प्राप्त कर चुका है जिसे ‘राष्ट्रीय राज्य’ कहा जाता है। आज की स्थिति में यह राष्ट्रीय राज्य मनुष्यों का सर्वोपति व सर्वोत्कृष्ट समुदाय है और अन्य कोई भी समुदाय राज्य से प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकता। राजनीति विज्ञान वर्तमान समय में राज्य के स्वरूप, प्रयोजन, उद्देश्य और कार्यक्षेत्र पर विचार करता है। राज्य के कार्यक्षेत्र के दो रूप हैं- आन्तरिक और बाह्य । समाज में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना, देशवासियों की चतुर्मुख उन्नति, राष्ट्रीय और स्थानीय स्वशासन का कार्य संचालन, राज्य के आन्तरिक कार्यक्षेत्र में आते हैं और राज्य के बाह्य कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत राष्ट्रीय सम्बन्ध, कूटनीति, सन्धि विग्रह तथा विश्व शान्ति से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।
राज्य के भविष्य का अध्ययन- राज्य का अस्तित्व मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए है और क्योंकि मानव जीवन की श्रेष्ठता की कोई सीमा नहीं है, इसलिए राज्य के वर्तमान स्वरूप को अन्तिम नहीं कहा जा सकता। वर्तमान समय में अनेक विचारधाराओं द्वारा राज्य के स्वरूप, उद्देश्य और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में नवीन विचारों का प्रतिपादन किया जा रहा है। उदाहरणार्थ, समाजवादी विचारधारा के अनुसार राज्य द्वारा आर्थिक जीवन को भी नियन्त्रित किया जाना चाहिए तो दूसरी ओर अराजकतावादी विचारधारा के अनुसार राज्यहीन समाज की स्थापना की जानी चाहिए। व्यक्तिवादी, राज्य के कार्यों की सीमित करने के पक्ष में हैं तो बहुलवादी राज्य को मानव-निर्मित अन्य समुदायों के समान ही समझते हैं। इन सबसे अलग अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रतिपादक युद्धों के मूल कारण इन राष्ट्रीय राज्यों का अन्त कर एक विश्व संघ की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हैं। सामान्य धारणा यही है कि भविष्य में राज्य का रूप लोकतन्त्रात्मक, लोककल्याणकारी और विश्व बन्धुत्व की धारणा पर आधारित होना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि राजनीति विज्ञान में हम राज्य का सर्वकालीन अध्ययन करते हैं।
सरकार का अध्ययन – राज्य अपनी सम्प्रभु शक्ति का प्रयोग सरकार के माध्यम से ही करता है और इसलिए सरकार के बिना राज्य के किसी अध्ययन को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। एक समय था जबकि सरकार ही राज्य होता था और लुई चौदहवें जैसे शासक “मैं ही राज्य हूँ” जैसी गर्वपूर्ण बात कहते थे। राजतन्त्रात्मक शासन में राजा के हाथ में ही सरकार नामक शक्ति निहित होती थी। इसलिए राजा में निरंकुश सरकार के तत्वों का समावेश हो जाना सदा संभावित होता है, अतः समय-समय पर इस शक्ति पर अंकुश लगाने के प्रत्यन सदैव से राजनीति विज्ञान करता रहा। है। इसी क्रम में कुछ समय बाद राजतन्त्रात्मक शासन के स्थान पर कुलीनतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था स्थापित हुई और वर्तमान समय में इसके स्थान पर जनता के प्रतिनिधि शासन की स्थापना हो गयी है। इन परिवर्तनों के साथ ही साथ सरकार के व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीन स्पष्ट अंग हो गए हैं और वह इन अलग-अलग अंगों के माध्यम से शासन व्यवस्था का कार्य करती है। वर्तमान समय में इस बात पर विचार किया जा रहा है कि शासन को जनता के प्रति और अधिक उत्तरदायी कैसे बनाया जा सकता है। अतः राजनीति विज्ञान में हम सरकार के अंग, उसके प्रकार, उसके संगठन आदि का भी अध्ययन करते हैं।
इस प्रकार हम कहते हैं कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। इसके अन्तर्गत मानव के उन सम्पूर्ण कार्यों का अध्ययन किया जाता है जिनका सम्बन्ध उनके राज्य नामक संगठन के अतीत वर्तमान एवं भविष्य से होता है तथा इसमें सरकार का अध्ययन भी किया जाता है।
स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन- राजनीति विज्ञान स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र की राजनीति और अन्य प्रासंगिक समस्याओं का भी अध्ययन करता है। आज के प्रजातान्त्रिक युग में स्थानीय स्वशासन का विशिष्ट महत्व है। गाँव, नगर और शहर सभी क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं का निराकरण वहाँ के लोगों के सहयोग से ही किया जा सकता है। स्थानीय संस्थाओं की कार्यप्रणाली का अध्ययन और इसमें नागरिकों का सहयोग जैसे विषय राजनीति विज्ञान के महत्वपूर्ण अंग हैं। अतः स्थानीय संस्थाओं की कार्यप्रणाली और स्थानीय समस्याओं का अध्ययन हमारे विषय की प्रमुख विवेच्य वस्तु है ।
आधुनिक राज्य मूलतः राष्ट्रीय इकाई है और स्थानीय स्वशासन की समस्याओं का अध्ययन राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है, अतः राष्ट्रीय समस्याएँ भी हमारे अध्ययन का प्रमुख अंग है। राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य की व्यावहारिक रूप में प्राप्ति वर्तमान समय की एक प्रमुख राष्ट्रीय समस्या है और इस सम्बन्ध में राजनीति विज्ञान का निर्देश है कि स्थानीय दृष्टिकोण की अपेक्षा राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रमुखता दी जानी चाहिए। साम्प्रादायिक विद्वेष, भाषावाद और क्षेत्रीयवाद की समस्याओं का भी राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है।
वैज्ञानिक प्रगति के कारण आज सम्पूर्ण विश्व एक इकाई का रूप लेता दृष्टिगोचर हो रहा है फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों से उत्पन्न समस्याएँ राजनीति विज्ञान को प्रभावित कर रही हैं। राज्यों के बीच प्रत्यक्ष संचार संबंधों ने राज्यों की आन्तरिक समस्याओं में भारी बढ़ोत्तरी कर दी है। अनेक प्रकार से राज्य के हितों की असुरक्षा सामने खड़ी दिखाई देती है। अतः वर्तमान राजनीति विज्ञान शास्त्रियों के लिए यह एक गम्भीर विचार का विषय बना हुआ है।
शासन प्रबन्ध का अध्ययन – राज्य और सरकार राजनीति विज्ञान के प्रमुख अध्ययन विषय हैं और इनके विशेषतया सरकार के सन्दर्भ में लोक प्रशासन निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण तत्व हैं। यद्यपि लोक प्रशासन एक पृथक् विषय है परन्तु लोक प्रशासन से सम्बन्धित मूल बातों का अध्ययन राजनीति का भी अंग है। लोक-सेवकों तथा मन्त्रियों से सम्बन्ध तथा प्रशासन को अधिकाधिक कुशल एवं लोकहितकारी और उत्तरदायी बनाने के उपायों का अध्ययन राजनीति विज्ञान में किया जाता है।
अन्य समाज विज्ञानों का प्रासंगिक अध्ययन- वर्तमान समय में इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है कि मानव के राजनीतिक विचारों को अन्य सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक मनोवैज्ञानिक आदि तत्वों के द्वारा प्रभावित किया जाता है और राजनीति विज्ञान अन्य समाज विज्ञानों से परे हटकर अपनी समस्याओं का अध्ययन नहीं कर सकता है। अतः राजनीति विज्ञान के विभिन्न विद्वानों द्वारा अन्य समाज विज्ञानों के सन्दर्भ में ही राजनीत विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया है। उदाहरणार्थ, कार्ल मार्क्स ने राजनीति विज्ञान के लिए आर्थिक आधार को अपनाया है और मैक्डूगल, ग्राहम वालास आदि ने राजनीतिक संस्थाओं को समझने के लिए मनोविज्ञान की ओर संकेत किया है। अतः हसजार और स्टीवेन्सन के शब्दों में, “राजनीति विज्ञान, जो एक समय अपने अध्ययन के लिए राजकीय तत्वों का ही ध्यान रखता था, आज अपने प्रशासनिक तत्वों के अध्ययन में आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक आधारों की भी विवेचना करता है।”
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