जैन साहित्य की विशेषताएँ | जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
जैन साहित्य
आदिकाल की उपलब्ध सामग्री में सबसे अधिक ग्रंथों की संख्या जैन ग्रन्थों की है। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी है। इनका समय छठी शताब्दी माना जाता है। बौद्धों की तरह इन्होंने भी संसार के दुःखों की ओर बहुत ध्यान दिया। सुख-दुख के बन्धनों पर इन्होंने जीत पाई जिससे ये ‘जिन्न’ कहलाये। जिन्न शब्द से ही जैन शब्द की उत्पत्ति हुई है। इन्होंने ३० वर्ष तक अपने उपदेश दिये। महावीर जैन ने अहिंसा पर अधिक बल दिया और देव पूजा का विरोध किया। जैन धर्म के मूल सिद्धान्त चार बातों पर आधारित हैं – अहिंसा, सत्य भाषण , अस्तेय
और अनासक्ति। बाद में ब्रह्माचर्य भी इसमें सामिल कर लिया गया इस धर्म में बहुत से आचार्य और तीर्थकार हुए. जिनकी संख्या 24 मानी जाती है। इन्होंने इस धर्म को फैलाने प्रयास किया। आगे चलकर जैन धर्म दो शाखाओं दिगंबर और श्वेतांबर में बँट गया जैन धर्म की इन दो शाखाओं ने धर्म प्रसार के लिए जो साहित्य लिखा वह जैन साहित्य के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर जैन साधुओं और कगियों का क्षेत्र दक्षिण भारत और मध्य देश रहा है और श्वेताम्बर जैन साधुओं तथा कवियों का क्षेत्र अधिकार राजस्थान और गुजरात रहा है।
इन जैन मुनियों द्वारा अपभ्रंश में लिखित जैन साहित्य धार्मिक दृष्टि से ही नही साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी बड़ा महत्व रखता है। महावीर स्वामी का जैन धर्म हिन्दु धर्म के अधिक समीप है। जैनों के यहाँ भी परमात्मा है परंतु वह सृष्टि का नियामक न होकर चित्त और आनन्द का स्त्रोत है। उसका संसार से कोई सम्बध नहीं। प्रत्येक मनुष्य अपनी साधना और पौरूष से परमात्मा बन सकता है। उसे परमात्मा से मिलने की कोई आवश्यकता नहीं। इन्होंने जीवन के प्रति श्रद्धा जगाई और उसमें आचार की सुदृढ भिति की स्थापना की। अहिंसा, करुणा, दया और त्याग का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान बताया। त्याग इन्द्रियों के अनुशासन में नही कष्ट सहने में है। उन्होंने उपवास तथा व्रतादि कर्म पर आधारित साधना पर अधिक बल दिया और कर्मकाण्ड़ की जटिलता को हटाकर ब्राह्मण तथा शूद्र दोनों को मुक्ति का समान भागी ठहराया। जैन कवियों ने जनसामान्य तक सदाचार के सिद्धान्तो को पहुँचाने के लिए चरित काव्य, कथात्मक काव्य, रास, ग्रन्थ, उपदेश प्रधान आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना की। कथाओं के माध्यम से शलाका पुरूषों के आदर्श चरित्र को प्रस्तुत करना, जनसाधारण का धार्मिक एवं चारित्रिक विकास करना, सदाचार, अहिंसा, संयम आदि गुणों की महत्ता बताना और उन्हें जीवन में धारण करने के लिए प्रेरित करना कवियों का मुख्य उद्देश्य था।
जैन कवियों ने आचार, रास, पाश, परित आदि विभिन्न शैलियों में साहित्य लिखा है, लेकिन जैन साहित्य का सबसे अधिक लोकप्निय रूप ‘रास’ ग्रन्थ माने जाते है। यह रास ग्रन्ध वीरगाथा रासो से अलग है। रास एक तरह से गेयरुपक है। जैन मंदिरों में श्रावक लोग रात्री के समय लाल देकर रास का गायन करते थे। इस रास में जैन तीर्थकारों के जीवनचरित, वैष्णव अवतारों की कथाएँ तथा जैन आदशों का प्रतिपादन हुआ करता था। आगे चलकर ‘रास काव्य’ एक ऐसे काव्य रुप के सप में निश्चित हो गया जो गेय हो। हिन्दी में इस परम्परा का प्रवर्तन जैन साधु शालिभद्र सूरि द्वारा लिखित ‘भरतेश्वर बाहुबली रास” से माना जाता है।
जैन कवियों ने रामायण और महाभारत के कथानकों और कथानायकों को अपने विश्वास और मान्यताओं के साँचे में हालकर प्रस्तुत किया है। इन्होंने पौराणिक पुरुषों के अतिरिक्त अपने सम्प्रदाय के महापुरुषों के जीवन को भी काव्यबद्ध किया। इसके साथ-साथ प्रचलित लोकतथाओं को मी काव्यात्मक प्रश्रय दिया। मुनि रामसिंह (पाहुड दोहा) और योगिन्दु (परमात्मा प्रकाश) आदि कवियों ने रहस्यात्मक काव्यों की भी रचना की। जैन अपभ्रंश साहित्य की रचना करनेवाले तीन प्रसिद्ध कवि है – स्वयंभू पुष्पदन्त और धनपाल। इन्होंने उत्कृष्ट काव्यों की रचना की। इनके अतिरिक्त देवसेन, जिनदत्त सुरि, हेमचन्द्र, हरिभद्र सूरि, सोमप्रभू सूरि, असरा कपि, जिन धर्म सूरि, विपनचन्द्र सूरि आदि इस सम्प्रदाय के प्रख्याति रचनाकार माने जाते है।
महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि है। इनका समय आठवीं शती माना जाता है। इनके द्वारा रचित चार कृतियाँ मानी जाती है। पदमचरित्र (पद्मचरित) या रामचरित), रिट्णेमिचरित (अरिष्टनेमिचरित अथवा हरिवंशपुराण), पंचमोचरित (नागकुमार चरित) और स्वयंभू छन्दा इनकी कीर्ति का अधारस्तंम पदनचरित’ है। इसमें राम कथा है। इस ग्रन्थ के कारण स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकी कहा जाता है। स्वयंभू ने अपनी रामकथा को पाँच खण्डो में रखा है जो वाल्मीकि रामायण के काण्डों से मिलता है। इन्होंने बालकाण्ड का नाम विद्याधर काण्ड रखा है और अरण्य तथा किष्किन्धा काण्ड को एकदम हटा दिया है। जैन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने राम-कथा में यत्र-तत्र परिवर्तन कर दिए है तथा कुछ नए प्रसंग में जोड दिए है। स्वयंभू के रान वाल्मीकि के राम की तरह अपनी सम्पूर्ण मानवीय दुर्बलताओं और मानवीय शक्ति के प्रतिनिधि बनकर आते है। नारी के प्रति पुरुष मात्र का दृष्टिकोण क्या था, यह सीता के ‘अग्नीपरीक्षा’ वाले प्रसंग में राम और सीता के कथनों से प्रकट होता है। सीता के प्रति को उदारता दिखाने में कवि ने कमाल कर दिया है कवि ने रामकथा का अंत शांत रस से किया है तथा राम सीता जनक आदि सभी पात्रों को जैन धर्म में दीक्षा लेते हुए दिखाया है। ‘अरिष्टनेमिचरित’ (हरिवंशपुराण) में जैन परम्परा के बाईसवें तीर्थकार अरिष्टनेमि तथा कृष्ण और कौरव पाण्डवों का वध वर्णित है। इसमें कवि ने द्रौपदी के चरित्र को एकदम निखार दिया है नारी चरित्रों के प्रति कवि की अत्यधिक सहानुभूति स्पष्ट सामने आती है।
जैन साहित्य की विशेषताएँ | जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
जैन साहित्य की विशेषताएँ | जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ – अपभ्रंश साहित्य को जैन साहित्य कहा जाता है, क्योंकि अपभ्रंश साहित्य के रचयिता जैन आचार्य थे। जैन कवियों की रचनाओं में धर्म और साहित्य का मणिकांचन योग दिखाई देता है। जैन कवि जब साहित्य निर्माण में जुट जाता है तो उस समय उसकी रचना सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब वह धर्मोपदेश की ओर झुक जाता है तो वह पद्य बौद्ध धर्म उपदेशात्मक रचना बन जाती है। इस उपदेश प्रधान साहित्य में भी भारतीय जनजीवन के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष के दर्शन होते है। जैन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है-
(1) उपदेश मूलकता :-
उपदेशात्मकता जैन साहित्य की मुख्य प्रवृत्ति है, जिसके मूल में जैन धर्म के प्रति दृढ आस्था और उसका प्रचार है। इसके लिए जैन कवियों ने दैनिक जीवन की प्रभावोत्पादक घटनाएँ, आध्यात्म के पोषक तत्व, चरित नायकों, शलाका पुरूषों, आदर्श श्रावकों, तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन का वर्णन किया है। इसीलिए इस साहित्य में उपदेशात्मकता का स्वर मुख्य बन गया है।
(2) विषय की विविधता :-
जैन साहित्य धार्मिक साहित्य होने के बावजूद सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक विषयों के साथ ही लोक-आख्यान की कई कथाओं को अपनाता है। रामायण, महाभारत सम्बन्धी कथाओं को भी जैन कवियों ने अत्याधिक दक्षता के साथ अपनाया है। जहाँ तक सामाजिक विषयों का सम्बन्ध है, जैन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार के विषयों का समावेश हो गया है।
(3) तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण :-
जैन कवि राजानित नहीं थे, अत: राजाश्रय का दवाव और दरबारी अतिरंजना से इनकी रचनाएँ मुक्त है। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ अंकन हुआ है। आदिकालीन आचार-विचार, समाज, धर्म, राजनीति आदि की सही स्थितियों को जानने के लिए यह रचनाएँ पर्याप्त रूप में सहायक सिद्ध होती है।
(4) कर्मकाण्ड़ रूढ़ियों तथा परम्पराओं का विरोध :-
जैन अपभ्रंश कवियों ने बाहा उपासना, पूजा-पाठ, शास्त्रीय ज्ञान, रूढ़ियों और परम्पराओं का घोर विरोध किया है, किन्तु इनके स्वर में कटुता या परखड़ता नहीं मिलती। मंदिर, तीर्थ शास्त्रीय ज्ञान, मूर्ति, वेष, जाति, वर्ण, मंत्र, तंत्र, योग आदि किसी भी संस्था को यह नहीं मानते। चारित्रिक अथवा मन की शुद्धता को ये हर व्यक्ति के लिए एक आवश्यक वस्तु मानते है। धन-सम्पत्ति की क्षणिकता, विषयों की निन्दा, मानव देह की नश्वरता, संसार के सम्बन्धों का मिथ्यापन आदि का वर्णन करते हुए इन कवियों ने शुद्ध आत्मा पर बल दिया है।
(5) आत्मानुभूति पर विश्वास :-
आत्मानुभव को जैन कवियों ने चरम प्राप्तव्य कहा है और यह शरीर में रहता है। आत्मा को जानने के लिए शुभाशुभ कर्मों का क्षय करना आवश्यक है। आत्मा परमात्मा एक ही है। आत्मा को जान लेने के पश्चात् कुछ जानने के लिए नहीं रहता| आत्मानन्द ही सरसीभाव या सहजानन्द है। अपने साधन-पथ की व्याख्या करने के लिए इन्होंने जहाँ-तहाँ प्रेम-भावना के द्योतक प्रिय-प्रियतम की कल्पना का आश्रय लिया है। इसप्रकार इन जैन कवियों ने भोग से त्याग की, शास्त्रज्ञान से आत्मज्ञान की और कर्मकाण्ड से आत्मानुभूति की श्रेष्ठता सिद्ध की है।
(6) रहस्यवादी विचारधारा का समावेश :-
जैन कवियों की कुछ रचनाएँ रहस्यवादी विचार भावना से ओत प्रोत है। योगिन्द्र मुनि रामसिंह, सुत्रभाचार्य, महानन्दि महचय आदि इस कोटि के कवि है। इनको रहस्यवादी रचनाओं में बाह्य आचार, कर्मकाण्ड, तीर्थव्रत, मूर्ति का बहिष्कार, देहरूपी देवालय में ही ईश्वर की स्थिति बताना, तथा अपने शरीर में स्थित परमात्मा की अनुभूति पाकर परम समाधि रुपी आनन्द प्राप्त करना आदि इनकी साधना का मुख्य स्वर है। यह आनन्द शरीर में स्थित परमात्मा गुरू (जिन गुरू) की कृपा से प्राप्त होता है, यह इनकी धारणा है।
(7) काव्य रूपों में विविधता :-
काव्य रूपों के क्षेत्र में जैन साहित्य विविध रूपों से सम्पन्न है। इसमें रास, फागु, छप्पय, चतुष्पदिका, प्रबन्ध, गाथा, जम्नरी, गुर्वावली, गीत, स्तुति, माहात्म्य, उत्साह आदि प्रकार पाये जाते है। अपभ्रंश के कई काव्य-रूपों का प्रयोग जैन कवियों ने किया है लेकिन अधिकांश काव्य रुप ऐसे भी है, जिनके निर्माण का श्रेय जैन साहित्य को जाता है।
(8) शांत या निर्वेद रस का प्राधान्य :-
जैन साहित्य में करुण, वीर, श्रृंगार, शान्त आदि सभी रसों का सफल निर्वाह हुआ है। ‘नेमिचन्द चउपई’ में करुण, ‘मरतेश्वर बाहुबली रास’ में वीर तथा ‘श्रीस्थूलिभद्र फागु में श्रृन्गार इस की सफल निष्पत्ति पायी जाती है, किन्तु इन सभी कृतियों के अन्त में शान्त या निर्वेद सभी रसों पर हावी हो जाता है। इसीलिए यह कहना असंगत नहीं होगा कि जैन साहित्य में रसराज शान्त या निर्वेद है।
(9) प्रेम के विविध रूपों का चित्रण :-
जैन अपभ्रंश साहित्य में प्रेम के पाँच रूप मिलते हैं-विवाह के लिए प्रेम, विवाह के बाद प्रेम, असामाजिक प्रेम, रोमाण्टिक प्रेम और विषम प्रेम। प्रथम प्रकार के प्रेम का चित्रण ‘करकंडुचरित’ में हुआ है। दूसरे प्रकार के प्रेम का उदाहरण ‘पउमासिरिचरिउ’ में समुद्र और पद्मश्री के प्रेमपूर्वक विवाह में मिलता है। ‘जहसरचरिउ’ में रानी अमृतमयी का कुबड़े से जो प्रेम था, वह असामाजिक की कोटि में आता है। प्रेम की विषमता का ज्वलन्त उदाहरण ‘पउमचरित’ में रावण का प्रेम है, किंतु रोमाण्टिक प्रेम का ही इस साहित्य में अधिक प्रस्फुटत हुआ है। इसके दो कारण हैं – प्रथम, सामंतवादी इस युग में बहुपत्नी प्रथा थी, दूसरा, धर्म की महिमा बताने के लिए।
(10) गीत तत्व की प्रधानता :-
जैन कवियों की रचनाएँ शैली, स्वरूप और लक्ष्य की दृष्टि से गीत काव्य के अधिक निकट है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि गेयता इस युग की प्रमुख विशेषता थी। जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त छन्दों में लय और गेयता का ध्यान रखा गया है। मंगलाचरण के अतिरिक्त स्तुति और वंदना इस काव्य का आवश्यक अंग है। छन्दों में संगीत का पुट पुष्पदन्त और स्वयंभू ने दिया है। कड़वक के छन्दों की गति क्रमश: संगीत के स्वर और वाद्यों के लय पर ही चलती है।
(11) अलंकार -योजना :-
जैन साहित्य में अर्थालन्कार और शब्दालन्कार दोनों प्रयुक्त हुए है, परंतु प्रमुखता अर्थालन्कारों की ही है। अर्धालन्कारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यक्तिरेक, उल्लेख, अनन्वय, निदर्शना, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, भ्रान्ति, सन्देह आदि का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। अधिकांश जैन कवि उपमान के चुनाव में विशेष परिचय देते है। शब्दालन्कारों में श्लेष, यमक, और अनुप्रास की बहुलता है।
(12) छन्द-विधान :-
जैन काव्य छन्द की दृष्टि से समृद्ध है। स्वयंभू कृत ‘स्वयंभूछन्द’ और हेमचन्द्र विरचित ‘छन्दोऽनुशासन’ ग्रन्थों में पर्याप्त संख्या में छन्दो की विशिष्ट विवेचना की गई है। जैन काव्य में कड़वक, पट्पदी, चतुष्पदी, धत्ता बदतक, अहिल्य, बिलसिनी, स्कन्दक, दुबई, रासा, दोहा, उल्लाला, सोरठा, चउपद्य आदि छन्दो का प्रयोग मिलता है।
(14) लोकभाषा की प्रतिष्ठा :-
जैन साधु ग्राम, नगर-नगर घूमकर धर्म-प्रचार करते थे, इसीलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषा का प्रयोग किया और उसे प्रतिष्ठा प्रदान की।
Important Links
- डॉ. जयभगवान गोयल का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक परिचय, तथा भाषा-शैली
- मलयज का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक परिचय, तथा भाषा-शैली
- रवीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore Biography Jeevan Parichay In Hindi
- केदारनाथ अग्रवाल का -जीवन परिचय
- आदिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ/आदिकाल की विशेषताएं
- राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ
- सूफ़ी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
- संतकाव्य धारा की विशेषताएँ | संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां
- भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ | स्वर्ण युग की विशेषताएँ
- मीराबाई का जीवन परिचय
- सोहनलाल द्विवेदी जी का जीवन परिचय
- हरिवंशराय बच्चन के जीवन परिचय
- महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन परिचय
- जयशंकर प्रसाद का- जीवन परिचय
- मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय, रचनाएँ, तथा भाषा-शैली
- कबीरदास जी का – जीवन-परिचय
- डॉ० धर्मवीर भारती का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक, तथा भाषा-शैली
- महाकवि भूषण जीवन परिचय (Kavi Bhushan)
- काका कालेलकर – Kaka Kalelkar Biography in Hindi
- श्रीराम शर्मा जी का जीवन परिचय, साहित्यिक सेवाएँ, रचनाएँ , तथा भाषा-शैली
- महादेवी वर्मा का – जीवन परिचय
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी – जीवन परिचय