प्लेटो लॉज : उप आदर्श राज्य
प्लेटो लॉज : उप आदर्श राज्य
(The Laws: Sub-Ideal State)
प्लेटो की तीनों रचनाओं में लॉज अन्तिम कृति है जिसका प्रकाशन 347 ई. पू. में हुआ। प्लेटो का वृद्धावस्था मे लिखित ग्रन्थ जिसमें गम्भीरता व परिपक्वता का गुण ‘रिपब्लिक’ की तुलना में अधिक है। लाज में प्लेटो ने आदर्श एवं व्यावहारिकता का सुन्दर समन्वय करके उफआदर्श राज्य की रूपरेखा तैयार करने का प्रयास किया है। उसने राज्य में व्यावहारिकता का गुण पैदा करने के लिए आदर्श राज्य में पर्याप्त संशोधन किए हैं। प्लेटो ने लॉज के दार्शनिक शासक के स्थान पर कानून को प्रतिष्ठित करके न्याय के स्थान पर आत्मसंयम के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। लॉज में दार्शनिक शासक पर विधि की सीमाएँ हैं। लाज प्लेटो के सम्पूर्ण राजनीतिक अनुभवों का निचोड़ है। इसमें प्लेटो ने बताया है कि शासक विधि के स्वामी नहीं सेवक और दास हैं। लॉज में प्लेटो का दृष्टिकोण यथार्थवादी है। लॉज प्लेटो की उत्तरकालीन कृति होने के कारण विचारों की प्रौढ़ता का सागर है जो अमूल्य रत्न प्रदान करती है।
इस पुस्तक में प्लेटो ने नगर राज्यों की समस्याओं पर अन्तिम परिणाम प्रस्तुत किए हैं। सेवाइन ने कहा है कि लॉज प्लेटो के सम्पूर्ण लेखों में सबसे अधिक सुन्दर है। यह पुस्तक 12 भागों में विभाजित है। प्रथम दो भागों में संगीत व नत्य शिक्षा, तीसरे में राज्य के ऐतिहासिक विकास, चौथे में राजनीतिक विकास, पाँच से आठ तक राज्य के कानूनों, शासन विधान, पदाधिकारियों, राज्य की जनसंख्या, शिक्षा पद्धति आदि का वर्णन, नौवें से ग्यारहवें तक फौजदारी और दीवानी नियम संहिताओं का वर्णन, बारहवें भाग में कर्त्तव्यविमुख होने वाले सरकारी अधिकारियों के लिए दण्ड-व्यवस्था का वर्णन किया गया है। यह पुस्तक भी संवाद शैली में लिखी गई है। इसमें वर्णित राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं:-
1. आत्मसंयम (Self Control) :
‘रिपब्लिक में आदर्श राज्य में न्याय ही प्लेटो के सिद्धान्त का मौलिक गुण है, लेकिन लॉज के आत्मसंयम का गुण ही मौलिक गुण है। आत्मसंयम का अभिपाय यह है कि नागरिक कानून का पालन करें, राज्य की संस्थाओं के प्रति उनके मन में सम्मान हो और वे कानून की सर्वोच्चता को स्वीकार करने के लिए सदा तैयार रहें। लाज में न्याय आत्मसंयम के अधीन है। बार्कर का कहना है- “कोई भी सद्गुण तब तक सद्गुण नहीं होता जब तक कि आत्मसंयम का सद्गुण पूर्ण रूप में उससे प्रथम स्थान प्राप्त नहीं करे; बुद्धि, साहस तथा न्याय सभी के सद्गुण होने के लिए, समान रूप से, यह एक पूर्व शर्त है अथवा इनकी पूर्णता के लिए अनिवार्य है।” आत्मसंयम का सद्गुण राज्य की आधारशिला है। आत्मसंयम पर आधारित न होने वाला राज्य अपूर्ण एवं दोषपूर्ण है। प्लेटो का मानना है कि राज्य में एकता, स्वतन्त्रता, सहमति की स्थापना इस सद्गुण के द्वारा ही हो सकती है। आत्म-संयम का सद्गुण राज्य में विवेक तथा बासना के तत्वों में समन्वय स्थापित करके राज्य में शान्ति-व्यवस्था कायम करता है।
2. कानून की सर्वोच्चता (Supremacy of Law) :
प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘लॉज’ में कानून के शासन को अच्छा माना है। इसमें शासक व शासित दोनों ही कानून के अधीन रहते हैं। प्लेटो ने अपने कटु अनुभव के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि राज्य में दार्शनिकों का शासन न हो तो कानून का शासन अवश्य होना चाहिए। उसका मानना है कि एक प्रज्ञावान शासक को तो कानून की आवश्यकता नहीं होती लेकिन ऐसा सद्गुणी शासक मिलना कठिन होता है, इसलिए कानून की आवश्यकता पड़ती है। प्लेटो ने कहा है कि “कानूनों के बिना व्यक्ति की स्थिति बर्वर पशुओं की तरह हो जाती है।” अपने व्यावहारिक कटु अनुभव के बाद प्लेटो ने कानून की सर्वोच्चता को प्रतिपादित किया और कहा कि यदि प्रज्ञावान उपलब्ध न हो, तो कानून के शासन को ही स्वीकार करना चाहिए। प्लेटो ने कानून को मानव-आत्मा का अंग तथा आत्मसंयम व विवेक का मूर्त रूप माना है। प्लेटो के अनुसार प्राचीन समाजों में विभिन्न परिवारों एवं कुलों में विभिन्न परम्पराएँ व प्रथाएँ होती हैं, जिनमें परस्पर विरोध होता रहता है। इससे सार्वजनिक हित का मार्ग अवरुद्ध होता है।
इसलिए सार्वजनिक हित की पुष्टि से इन परम्पराओं और प्रथाओं में उचित समन्वय एवं तालमेल पैदा करने के लिए कानून का जन्म होता है। इसके अलावा कानून का निर्माण प्राकृतिक प्रकोपों, युद्धों अथवा आर्थिक परिस्थितियों से उत्पन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी किया जाता है। प्लेटो का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति में सार्वजनिक हित को समझने की योग्यता नहीं होती। वह अपने स्वार्थ के कारण सार्वजनिक हित के रास्ते में बाधा उत्पन्न करता है। इसे दूर करने के लिए कानून का बहुत महत्व है। कानून का शासन ही सर्वोच्च होता है। इसलिए शासकों को कानून का ही अनुकरण करना चाहिए, अन्यथा सार्वजनिक हित की हानि होगी ओर राज्य का पतन हो जाएगा। प्लेटो के अनुसार कानून सार्वभौतिक होता है, इसलिए इसका कठोर व संहिताकरण होना जरूरी है। कानून का शासन ही दार्शनिक शासक के अभाव में शासक व जनता का मार्गदर्शक बनकर उन्हें सद्मार्ग पर चलाता है। कानून निर्माण समाज सुधार के लिए ही होता है, इसलिए उसे ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए।
प्लेटो का कहना है कि- “राज्य को कानून के अनुसार होना चाहिए, कानून को राज्य के अनुसार नहीं। सरकार को भी कानून के शासन का संचालन करना चाहिए। सरकार कानून की दास व सेविका होती है, स्वामी नहीं। सरकार कानून में परिवर्तन नहीं कर सकती। इसे तो जनता एवं देववाणियों द्वारा स्वीकृत होने पर ही बदला जा सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि प्लेटो ने लॉज में कानून को सर्वोच्च मानकर कानून के शासन का ही समर्थन किया है।
3. इतिहास का महत्व (Importance of History) :
प्लेटो ने लॉज में ऐतिहासिक अनुभवों से लाभ प्राप्त करने के लिए ऐतिहासिक विधि का सहारा लिया है। वह हमें अनुभवों पर आधारित शिक्षा देता है। प्लेटो ने लाज में इतिहास के आधार पर एक निश्चित शासन प्रणाली का समर्थन किया है जिसमें राज्य की सत्ता और जनता की सहमति को स्वीकार किया जाता है। प्लेटो ने इतिहास के उदाहरणों के आधार पर कानून के नियम और मिश्रित संविधान की व्यवस्था का समर्थन किया है। प्लेटो ने बताया है कि राज्यों के आत्मसंयम रहने और सत्ता के एक ही व्यक्ति के हाथ में आ जाने पर ही आरगोस (Argos) एवं मैसिना (Messina) जैसे राज्यों का उसी तरह पतन हो गया जिस तरह अधिक पालों वाले जहाज तथा अधिक माँस वाला शरीर नष्ट हो जाता है। एथेन्स के लोकतन्त्र का पतन भी आत्म-संयम के अभाव के कारण ही हुआ था। इस प्रकार अनेक ऐतिहासिक दृष्टातों के आधार पर प्लेटो ने अपने राजनीतिक विचारों को ‘लॉज’ में पुष्ट किया है।
4. शान्ति एवं युद्ध (Peace and War) :
प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘लाज’ में युद्ध की निन्दा व शान्ति का समर्थन किया है। प्लेटो ने ‘लॉज’ की प्रारम्भिक पुस्तकों में सैनिकवाद की कटु आलोचना करते हुए, स्पार्टा के पतन का कारण वहाँ के सैनिक संगठन को माना है। उसकी मान्यता है कि ‘साहस’ युग पर आधारित राज्य विकृत होकर युद्ध-प्रेमी हो जाता है। युद्ध निरर्थक होता है। इससे शान्ति का पतन होता है और समाज में अशान्ति व अराजकता का सूत्रपात होता है। युद्ध से साहस विकसित होता है और अनुशासन की भावना बढ़ती है, परन्तु यह साहस अविवेक पर आधारित होने के कारण जनकल्याणकारी नहीं होता। प्लेटो कहता है कि वास्तविक साहस तभी सम्भव है, जब वह विवेक द्वारा अनुशासित होकर जन-कल्याण के लिए कार्य करे। प्लेटो युद्ध को एक व्याधि मानता है। उसका कहना है कि रोगग्रस्त, रुग्ण और अपूर्ण राज्य ही युद्ध का सहारा लेता है। आंतरिक शान्ति व लोककल्याण के लिए युद्ध की अपेक्षा शान्ति अधिक जरूरी होती है। इस प्रकार प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में वर्णित सैनिकवाद की लॉज में कटु आलोचना करके शान्ति को ही अधिक महत्त्व दिया है।
5. प्रशासनिक व्यवस्था (Administrative System) :
‘रिपब्लिक’ की तरह प्लेटो ने लॉज में सरकार की सर्वोच्चता को महत्त्व न देकर कानून के शासन को महत्व दिया है। कानून के शासन के पालन के लिए एक सुदढ़ प्रशासनिक व्यवस्था का ढाँचा भी लॉज में पेश किया गया है। प्लेटो ने उपादर्श राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था की रूपरेखा निम्न प्रकार से प्रस्तुत की है:-
(क) जन-समा (Popular Assembly) : यह राज्य की नगर सभा है। इसमें नगर-राज्य के सभी 5040 सदस्य शामिल होते हैं और यह राज्य उच्य संस्थाओं और पदाधिकारियों का चयन करती है। यह कानूनों में परिवर्तन और न्याय भी करती है। इसकी बैठक वर्ष में एक बार जरूरी होती है।
(ख) विधि-संरक्षक अव्यवा परामर्शदाता बोर्ड (Guardians at Law or Advisory board) : इस संस्था के सदस्य केवल 50 वर्ष से अधिक आयु के नागरिक ही बन सकते हैं। उनका कार्यकाल 20 वर्ष होता है। उनकी कुल संख्या 37 होती है। उनका चुनाव तिहरी चुनाव प्रणाली द्वारा साधारण सभा के 5040 सदस्यों में से किया जाता है। ये कानून के संरक्षक होते हैं। राज्य के प्रशासन में शिक्षामन्त्री का विशेष स्थान होता है।
(ग) प्रशासनिक परिषद् (Administrative Council) : प्रशासनिक परिषद् में 360 सदस्य होते हैं। इनका चुनाव एक वर्ष के लिए किया जाता है। नागरिकों के चारों वर्गों में से 90-90 सदस्य निर्वाचित किए जाते हैं। प्रशासनिक परिषद् के 360 सदस्यों को 12 भागों में बाँटा जाता है। विधि संरक्षों के परामर्श अनुसार प्रशासनिक परिषद् शासन करती है।
(घ) न्याय-व्यवस्था (Administration of Justice) : प्लेटो ने ‘लाज’ में सभी विवादों को व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक दो भागों में नॉटकर उनके समाधान हेतु तीन न्यायालयों की स्थापना की गई है – ( पंचायती न्यायालय (ii) क्षेत्रीय न्यायालय (iii) विशेष चुने हुए न्यायाधीशों का न्यायालय। इस सम्पूर्ण न्याय विभाग का संरक्षक शिक्षा मन्त्री होता है।
(ड) स्थानीय शासन (Local Administration) : प्लेटो ने ‘लॉज’ में स्थानीय शासन की व्यवस्था में नगरों में दो प्रकार के अधिकारी – नगर निरीक्षक एवं बाजार निरीक्षक का उल्लेख किया है। नगर निरीक्षक तीन तथा बाजार निरीक्षक पाँच हैं। नगर निरीक्षक का चुनाव नागरिकों के प्रथम वर्ग से तथा बाजार निरीक्षकों का चुनाव द्वितीय ग त तीय वर्ग के नागरिकों में से किया जाता है। स्थानीय प्रशासन को सुविधापूर्ण ढंग से चलाने के लिए सम्पूर्ण नगर राज्य को 12 भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग में 5 ग्रामीण निरीक्षक नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं।
उपर्युक्त संस्थाओं के अतिरिक्त ‘लाज’ में प्लेटो ने दोष निरीक्षक, परीक्षा मण्डल, रात्रि-परिषद् आदि का भी उल्लेख किया है।
6. सामाजिक और आर्थिक ढांंचा (Social and Economic Structure) :
प्लेटो ने लॉज’ में उप-आदर्श राज्य के सामाजिक संगठन पर विचार करते हुए परिवार एवं विवाह की संस्थाओं पर विचार किया है। वह परिवार को एक नैतिक एवं धार्मिक सत्ता मानता है। वह विवाह को एक धर्म तथा अविवाहित रहने को अधर्म मानता है। उसने विवाह की संस्था पर राय के नियन्त्रण को स्वीकार किया है। उसने विवाह-उत्सवों का समर्थन किया है। वह विपरीत गुण व प्रकृति वाले विवाहों को उत्तम मानता है। विवाह से पूर्व स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र चिकित्सक से अवश्य लेना चाहिए। वह जनसंख्या को स्थिर रखने के लिए सन्तानोत्पत्ति को राज्य द्वारा नियन्त्रित करने का समर्थक है। वह स्त्री-शिक्षा को अनिवार्य मानता है। वह स्त्री को सामाजिक जीवन में भाग लेने के लिए कहता है। वह सह-शिक्षा का विरोध करता है।
‘रिपब्लिक’ के विपरीत लॉज में प्लेटो ने व्यक्तिगत सम्पत्ति रखने की छूट अवश्य दी है, लेकिन उसके प्रयोग और उसकी मात्रा को निश्चित कर दिया है। वह सार्वजनिक हित में सम्पत्ति पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक मानता है। वह लॉज के सम्पत्ति सम्बन्ध ढाँचे पर कहता है कि नागरिकों को भूमि एवं मकान तो निजी रूप में प्राप्त होंगे। उसकी भूमि को उपज का उपभोग सार्वजनिक भोजनालयों में पंचायती ढंग से होगा। नागरिकों में भूमि का वितरण इस प्रकार से होगा कि नागरिकों में आर्थिक असमानता सीमित मात्रा में रहेगी। नागरिक केवल भूमि से उत्पन्न धन ही रखेंगे। उन्हें सोना, चाँदी अथवा विलास की वस्तुएँ रखने का अधिकार नहीं होगा। दास खेती करेंगे और विदेशी व्यापार करेंगे। नगर राज्य में तीन वर्ग – दास, विदेशी व नागरिक होंगे। इस प्रकार प्लेटो ने कुछ विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों को ही नागरिक माना है। इस ग्रन्थ में भी प्लेटो की मौलिक समस्या यह है कि व्यक्ति अपने व्यक्तिगत कायों को करते हुए सामाजिक कार्यों में भाग कैसे ले। इस समस्या का समाधान करने में प्लेटो ‘लॉज में असफल ही रहा।
7. शिक्षा व्यवस्था (Education System) :
प्लेटो ने ‘लॉज’ में भी ‘रिपब्लिक’ की तरह शिक्षा को बहुत महत्त्व दिया है। उसने स्त्री व पुरुषों के लिए समान पाठ्यक्रम स्वीकार किया है लेकिन सह-शिक्षा प्रणाली का विरोध किया है। वह शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को सद्गुणी बनाना बताता है। वह समान शिक्षा प्रणाली अपनाने का सुझाव देता है। उसने शिक्षा को प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा तीन भागों में बाँटकर सब नागरिकों के लिए शिक्षा को अनिवार्य मानता है। वह कला और साहित्य पर कठोर नियन्त्रण की बात करता है। उसने पाठ्यक्रम में संगीत और व्यायाम को पूर्ण महत्त्व दिया है। उसका “लॉज’ में वर्णित शिक्षा-सिद्धान्त वास्तव में शिक्षा-संगठन का सिद्धान्त है।
8. धार्मिक संस्थाएँ (Religious Institutions) :
प्लेटो ने ‘लॉज’ के दसवें अध्याय में धर्म की विस्तृत व्याख्या की है। उसकी धर्म के प्रति रुचि उसकी वृद्धावस्था के अनुभव की परिचायक है। उसे धर्म का अव्यवस्थित तथा व्यक्तिगत रूप पसन्द नहीं है और वह धार्मिक आडम्बरों का विरोध करता है। वह नास्तिकता को दण्डनीय अपराध मानता है तथा धर्म को राज्य के नियन्त्रण में रखता है। उसका मानना है कि धर्म का रूप राज्य द्वारा निश्चित होना चाहिए। उसके धार्मिक विचारों के कारण उसकी पुस्तक “लॉज’ को धार्मिक उत्पीड़न का प्रतिपादन करने वाला प्रथम ग्रन्थ कहा है।
उपर्युक्त विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘लॉज’ प्लेटो के राजनीतिक चिन्तन और अनुभवों का सारांश है। लॉज के इन अनुभवों पर आधारित सिद्धान्तों ने परवर्ती चिन्तकों को बहुत अधिक प्रभावित किया है और इतिहास में अपनी गहरी व अमिट छाप छोड़कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। ‘लॉज” में प्लेटो ने अपने उपादर्श राज्य में अपने राजनीतिक अनुभवों को प्रतिस्थापित किया है। प्लेटो की विचारधारा का अरस्तू पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा और रोमन कानून को तो ‘लॉज’ की ही सन्तान कहा गया। अतः प्लेटो की पुस्तक “लॉज” प्लेटो के उपादर्श राज्य का व्यावहारिक ढाँचा प्रस्तुत करती है। इससे प्लेटो को यथार्थवादी होने का गौरव प्राप्त हुआ और उसका यह ग्रन्थ एक ऐतिहासिक धरोहर बन गया।
रिपब्लिक व लॉज में अन्तर
(Difference between the Laws and Republic)
‘रिपब्लिक’ में प्लेटो के विचार आदर्शवादी हैं, जबकि ‘लॉज’ में यथार्थवादिता का पुट है। ‘रिपब्लिक’ में सुधारवादी चिन्तक की देन है, जबकि ‘लॉज’ प्लेटो के मन की गम्भीरता एवं ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने दार्शनिक राजा के शासन का समर्थन किया है, जबकि ‘लॉज’ में कानून के शासन की सर्वोच्चता को महत्त्व दिया है। ‘रिपब्लिक’ का आदर्श राज्य काल्पनिक वस्तु है, जबकि ‘लाज’ में वर्णित उपादर्श राज्य इस पथ्वी पर प्राप्त करने योग्य व्यावहारिक राज्य है। ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो सम्पत्ति व परिवार की साम्यवादी व्यवस्था करते हैं, लेकिन ‘लॉज’ में कुछ शर्तों के साथ निजी सम्पत्ति व परिवार का समर्थन करते हैं। ‘रिपब्लिक’ में न्याय ही राज्य का भौतिक गुण है, लेकिन ‘लाज’ में आत्म-नियन्त्रण ही एक आवश्यक मौलिक गुण है। ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने दार्शनिक राजा की निरंकुशता का समर्थन किया है, जबकि ‘लॉज’ में लोकतन्त्र को महत्त्व दिया है।
Important Links
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- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System),
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- प्लेटो: जीवन परिचय | ( History of Plato) in Hindi
- प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव( Influence of Socrates ) in Hindi
- प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi
- प्लेटो (Plato): महत्त्वपूर्ण रचनाएँ तथा अध्ययन शैली और पद्धति in Hindi
- प्लेटो: समकालीन परिस्थितियाँ | (Contemporary Situations) in Hindi
- प्लेटो: आदर्श राज्य की विशेषताएँ (Features of Ideal State) in Hindi
- प्लेटो: न्याय का सिद्धान्त ( Theory of Justice )
- प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi
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