अधिगम अथवा सीखने का स्थानान्तरण क्या है ? (What is Transfer of Learning ?)
अधिगम स्थानान्तरण के विषय में शिक्षा शब्दकोश में लिखा है, “प्रत्यक्ष प्रशिक्षण के बिना निश्चित अधिगम में विकास, वृद्धि, संशोधन किसी क्रिया के अभ्यास के द्वारा सम्बन्धित क्रिया में आदान-प्रदान और संशोधन ही अधिगम का रूपान्तरण है।” इसका तात्पर्य यह हुआ कि सीखी गयी क्रिया का अन्य सामान्य परिस्थितियों में उपयोग किया जाना अधिगम का स्थानान्तरण है। अध्यापक छात्र को कक्षा में ज्ञान देता है। ज्ञान देने की क्रिया में उसकी यह भावना अवश्य रहती है कि बालक सीखी गयी क्रिया का उपयोग अन्य परिस्थितियों में करेगा। अतएव एक क्रिया का दूसरी परिस्थिति में उपयोग किया जाना ही अधिगम का स्थानान्तरण है। बालक गणित का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और सांख्यिकी की समस्याओं को हल कर लेता है। यह क्रिया ही अधिगम स्थानान्तरण है।
अधिगम स्थानान्तरण की परिभाषाएँ (Definitions of Transfer of Learning)
अधिगम स्थानान्तरण की विभिन्न परिभाषाएँ दी जाती हैं । यहाँ कुछ परिभाषाएँ दी जा रही हैं-
1. शिक्षा विश्वकोश – “जब कोई व्यक्ति किसी उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया करता है, अधिगम प्रारम्भ हो जाता है। जब अधिगम के विशेष अनुभव व्यक्ति की योग्यता को प्रभावित करते हैं और उनके रूप भिन्न होते हैं तो यह क्रिया अधिगम स्थानान्तरण के रूप में स्वीकार की जाती है।”
2. क्रो एवं क्रो- “जब अधिगम के क्षेत्र में प्राप्त विचार, अनुभव अथवा कार्य की आदत, ज्ञान एवं निपुणता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है तो वह अधिगम का स्थानान्तरण कहलाता है।”
3. काल्सनिक- “अधिगम स्थानान्तरण पहली परिस्थिति से प्राप्त ज्ञान, निपुणता, आदत, अभियोग्यता का दूसरी परिस्थिति में प्रयोग करना है।”
4. एम० एल० विग्गी- “जब किसी व्यक्ति का अधिगम दूसरी परिस्थिति को प्रभावित करता है तो यह अधिगम का स्थानान्तरण कहलाता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि अधिगम के स्थानान्तरण की धारणा का आधार प्राप्त ज्ञान और कौशल का नवीन परिस्थितियों में प्रयोग करना है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि इसे नवीन परिस्थितियों में कार्यरत करना है।
अधिगम स्थानान्तरण के प्रकार (Types of Transfer of Learning)
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के स्थानान्तरण के अनेक प्रकार बताये हैं। यहाँ कुछ प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया जा रहा है-
(1) धनात्मक स्थानान्तरण (Positive Transfer) – धनात्मक स्थानान्तरण से तात्पर्य है पूर्व प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभव नवीन समस्याओं को हल करने में सहायक होता है। उदाहरण के लिए विद्यालय में सिखाये गये गणित का उपयोग बाजार में सामान खरीदते समय करते हैं। धनात्मक स्थानान्तरण का उदाहरण यह हो सकता है कि एक व्यक्ति जो हवाई जहाज चलाना जानता है वह इसी प्रकार के दूसरे हवाई जहाज को बिना अतिरिक्त प्रयास के चला सकता है।
(2) ॠणात्मक स्थानान्तरण (Negative Transfer) – इस तरह के स्थानान्तरण में पूर्व प्राप्त अनुभव भविष्य की समस्या के समाधान में बाधा उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति टाइपराइटर के एक की-बोर्ड (Key board) पर टाइप करना सीखता है तो उसे दूसरे टाइपराइटर के दूसरे की-बोर्ड पर टाइप करने में अतिरिक्त परिश्रम करना होगा। बोरिंग और उसके साथियों का विचार है कि जब अधिगम किया गया कार्य दूसरे कार्य को सीखने में कठिनाई उत्पन्न करता है तो वह ऋणात्मक स्थानान्तरण कहलाता है।
(3) एकपक्षीय स्थानान्तरण (Unilateral Transfer)- जब शरीर के किसी एक अंग को दिया गया प्रशिक्षण भविष्य में उपयोगी सिद्ध होता है तो वह एकपक्षीय स्थानान्तरण कहलाता है। उदाहरण हेतु बाँये हाथ से लिखने का अभ्यास दाहिने हाथ में चोट लग जाने पर काम आ सकता है।
(4) द्वि-पक्षीय स्थानान्तरण (Bilateral Transfer ) – जब शरीर एक पक्ष के अंग को दिया गया प्रशिक्षण दूसरी ओर के अंगों में चला जाता है तो उसे द्विपक्षीय स्थानान्तरण कहा जाता है। बच्चों को दाँये हाथ से लिखना और काम करना सिखाया जाता है। यदि यह प्रशिक्षण बाँये हाथ में बिना किसी अभ्यास के परिवर्तित हो जाय तो उसे द्वि-पक्षीय स्थानान्तरण कहा जायेगा।
(5) लम्बात्मक स्थानान्तरण (Vertical Transfer)- लम्बात्मक स्थानान्तरण धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही प्रकार का होता है। बालकों द्वारा एक कक्षा में जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसका उपयोग वे अगली कक्षा में करते हैं। बचपन में सीखी गयी क्रियाओं का उपयोग बच्चे बड़े होने पर भी करते हैं।
(6) क्षैतिज स्थानान्तरण (Horizontal Transfer)- जब एक विषय में दिया गया ज्ञान दूसरे विषय को समझने में उपयोगी और सहायक होता है तो उसे क्षैतिज स्थानान्तरण कहा जाता है। उदाहरण के लिए अकबर के कार्य का इतिहास उस समय के साहित्य और संस्कृति को समझने में सहायक सिद्ध होता है।
वास्तव में धनात्मक स्थानान्तरण सामान्य है। ऋणात्मक स्थानान्तरण भी उपस्थित होता. है। यह किस प्रकार पता चले कि धनात्मक अथवा ऋणात्मक स्थानान्तरण हो रहा है, इसका साधारण सिद्धान्त यह है कि “प्रत्येक उद्दीपन अनुक्रिया का प्रसार करता है जो भूतकाल की सामान्य उद्दीपन अवस्थाओं से सम्बन्धित हो जाता है। यह परिस्थिति बाधाओं पर विजय प्राप्त करते ही सुधर जाती है।”
अधिगम-स्थानान्तरण के सिद्धान्त (Theories of Transfer of Learning)
अधिगम स्थानान्तरण के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) मानसिक शक्ति का सिद्धान्त और औपचारिक अनुशासन की धारणा- यह सिद्धान्त शक्ति मनोविज्ञान पर आधारित है जिसके अनुसार व्यक्ति का मत विभिन्न शक्तियों, जैसे निरीक्षण, स्मृति, तर्क, कल्पना, निर्णय आदि से मिलकर बना है और ये शक्तियाँ एक । दूसरे से भिन्न अथवा स्वतन्त्र हैं। अभ्यास द्वारा इन्हें प्रशिक्षित करके तीव्र बनाया जा सकता है और इनका उपयोग कुशलतापूर्वक किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि स्मरण शक्ति को प्रशिक्षित करना है तो उन शब्दों को भी याद कर लेना आवश्यक माना जाता है जिनकी उस समय व्यक्ति हेतु उपयोगिता नहीं है। इस प्रकार, इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि तर्क द्वारा गणित शक्ति को प्रशिक्षित किया जा सकता है और तत्पश्चात् इससे उन विषयों को सीखने में सहायता प्राप्त होती है जिनमें तर्क करने की आवश्यकता होती है। इस सिद्धांत के अनुसार पाठ्य विषयों का चुनाव इस तरह किया जाना चाहिए जिससे मानसिक शक्तियाँ पुष्ट हो सकें। आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानसिक शक्तियों के विभाजन को स्वीकार नहीं करते अतएव इस सिद्धान्त को मान्यता नहीं मिलती।
(2) समान तत्त्व अथवा समरूप तत्त्व सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का आधार यह है कि एक विषय को स्मरण करने के बाद उसी प्रकार के दूसरे विषय का स्मरण करने से शिक्षण का बहुत बड़ी मात्रा में स्थानान्तरण होता है। दैनिक जीवन में हम यह अनुभव करते हैं कि एक ज्ञान समान गुणों के कारण ही समान विशेषताओं वाली परिस्थितियों में स्थानान्तरित होता है अर्थात् जब दो क्रियाओं अथवा विषयों में समानता होती है तभी दूसरी समान परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान सहायक होता है। थार्नडाइक ने विभिन्न प्रयोगों के आधार पर इस बात की पुष्टि की है कि जब दो अनुभवों की सामग्री में अथवा क्रिया में समानता होती है तो स्थानान्तरण की सम्भावना होती है, जैसे कार चलाने वाला व्यक्ति ट्रैक्टर आसानी से चला सकता है। थार्नडाइक ने दो स्थितियों में स्थानान्तरण का कारण एक तन्त्रिका-बन्ध को बताया है। उसका कहना है कि प्रत्येक कार्य में अनेक छोटे-छोटे भाग होते हैं। इन छोटे-छोटे भागों में जितनी समानता होती है, उतना ही अधिक स्थानान्तरण होगा। इसकी व्याख्या करते हुए थार्नडाइक ने लैटिन और अंग्रेजी की समानता के आधार पर दोनों का स्थानान्तरण सम्भव बतलाया है। उसने स्थानान्तरण को मनोवैज्ञानिक कारण बताते हुए यह कहा है कि जब हम कोई कार्य करते हैं तो मस्तिष्क में अनेक स्नायु संयोग (Neural Bonds) निर्मित होते हैं। भविष्य में उसी तरह के कार्यों की आवश्यकता होने पर वे स्नायु संयोग जागृत हो जाते हैं और हमारे पूर्व अनुभव अन्य समस्या को हल करने में सहायक सिद्ध होते हैं।
(3) सामान्यीकरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार जिस सीमा तक कोई व्यक्ति अपने अनुभवों के माध्यम से कोई सामान्य सिद्धान्त निकाल लेता है उसी सीमा तक संस्कारों का स्थानान्तरण होता है। यह सिद्धान्त सामान्यीकरण पर बल देता है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जुड ने किया था। उसने कहा है कि जब तक किसी क्रिया अथवा विषय के सामान्य सिद्धान्तों का अवबोध नहीं होता उस समय तक स्थानान्तरण सम्भव नहीं होता। अपने मत की पुष्टि हेतु उसने एक प्रयोग किया। बच्चों की दो टोलियों में से एक टोली को एक फुट गहरे पानी में रखी वस्तु पर निशाना लगाने का प्रशिक्षण प्रदान किया। उसने यह पाया कि जिस टोली को निशाना लगाने का अभ्यास कराया गया था वह अपने उद्देश्य में सफल रही, परन्तु जिस टोली को निशाना लगाने का अभ्यास नहीं कराया गया था वह घबरा गयी। इससे जुड ने यह निष्कर्ष निकाला कि स्थानान्तरण किसी कार्य के आधारभूत सिद्धान्तों को समझने और उनका सामान्यीकरण करने से होता है। उसने अपने मत को और अधिक स्पष्टता प्रदान करते हुए कहा- “एक अध्यापक, जिसका दृष्टिकोण ज्ञान के किसी एक क्षेत्र में उदार है। वह एक सूचना के माध्यम से केवल एक सत्य का उद्घाटन नहीं करता बल्कि वह उन सभी शक्तियों का तानाबाना तैयार रहता है जो शेष संसार का केन्द्रीभूत सत्य है।”
क्रो एवं क्रो ने लिखा है- “विशिष्ट निपुणता का विकास विशेष तथ्यों पर पूर्णतः एक स्थिति में विशेष आदत अथवा मनोवृत्ति का प्रायः दूसरी स्थिति में स्थानान्तरण से बहुत थोड़ा महत्त्व रखता है। यह सिद्धान्त उस समय तक चलता है जब तक निपुणता, तथ्य स्वभाव सम्बद्ध नहीं हो जाते। “
(4) सामान्य एवं विशिष्ट अंश का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का प्रतिपादक मनोवैज्ञानिक स्पियरमैन है। उसका विचार है कि प्रत्येक विषय को सीखने हेतु बालक को सामान्य और विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता होती है। सामान्य योग्यता अथवा बुद्धि का प्रयोग सामान्यतः जीवन के प्रत्येक कार्य में होता है परन्तु विशिष्ट बुद्धि का प्रयोग विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जाता है। सामान्य योग्यता व्यक्ति की प्रत्येक परिस्थिति में सहायक होती है। अतएव सामान्य योग्यता अथवा तत्त्व का ही स्थानान्तरण होता है, विशेष का नहीं। इतिहास, भूगोल, साहित्य आदि विषयों का सम्बन्ध सामान्य योग्यता से होता है परन्तु चित्रकला, संगीत आदि विषयों का सम्बन्ध विशिष्ट स्थितियों से होता है।
(5) गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों का सिद्धान्त- गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों में प्रमुख रूप से कोहलर आदि का नाम आता है। कोहलर आदि परिस्थितियों का पूर्णाकार रूप में प्रत्यक्षीकरण करने और सूझ-बूझ (Insight) का उपयोग करने पर बल देते हैं। ये मनोवैज्ञानिक अधिगम में सूझ-बूझा को विशेष महत्त्व देते हैं। सूझ-बूझ का विकास ही अधिगम है जो एक परिस्थिति में प्रयुक्त होता है। इन मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि एक परिस्थिति में प्रयुक्त अथवा विकसित सूझ-बूझ का दूसरी परिस्थितियों में प्रयोग में लाना ही अधिगम स्थानान्तरण है।
उपर्युक्त सिद्धान्तों से स्पष्ट है कि सीखने का स्थानान्तरण होता है। इनमें से किसी एक सिद्धान्त को प्रधानता देना उचित नहीं है। इन सिद्धान्तों को समन्वयात्मक दृष्टिकोण से देखना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
अधिगम स्थानान्तरण का शिक्षा में महत्त्व (Importance of Transfer of Learning in Education)
सीखने के स्थानान्तरण का शिक्षा में निम्नलिखित दृष्टिकोणों से महत्त्व है-
1. पाठ्यक्रम के निर्माण में शारीरिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य, व्यावहारिक रुचि तथा नागरिकता और अन्य विभिन्न प्रकार की सामाजिक प्रक्रियाओं का अत्यधिक ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से शिक्षण का स्थानान्तरण अधिक मात्रा में होता है।
2. अध्यापकों को जो भी विषय बालकों को पढ़ाना हो उनमें अन्तर्निहित सिद्धान्तों तथा तथ्यों को बालकों के सम्मुख स्पष्ट कर देना चाहिए जिससे बालक उन सिद्धान्तों तथा तथ्यों को अपने जीवन के अनेक पक्षों में प्रयोग कर सकें।
3. अध्यापकों को पाठ्यक्रम में निश्चित विषयों में स्थानान्तरित होने वाले तथ्य, जो विभिन्न विषयों में समान रूप से पाये जाते हैं, बालकों को बता देना चाहिए इससे उसको पढ़ने में सुविधा होती है। उदाहरण के लिए यदि हिन्दी पढ़ाते समय उसकी व्याकरण की विशिष्टताओं है को स्पष्ट करते जायें तो संस्कृत का अध्ययन करने में सुविधा होती है।
4. अध्यापकों को जहाँ तक हो सके नकारात्मक शिक्षण के स्थानान्तरण का अवसर नहीं देना चाहिए।
5. अध्यापकों को विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्रदान करने के लिए साहचर्य के नियमों को ध्यान में रखना चाहिए ।
6. अध्यापकों को बालकों का शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक स्वास्थ्य अच्छा बनाना चाहिए क्योंकि जब उनका स्वास्थ्य अच्छा होगा तभी वे किसी विषय के ज्ञान को दूसरे विषयों अथवा परिस्थितियों में स्थानान्तरित कर सकते हैं।
7. अध्यापकों को बालकों को किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहिए प्रत्युत उन्हें कार्य तथा अनुभव करते हुए सीखने का अवसर देना चाहिए जिससे बालक इन अधिगम किये गये विचारों को नागरिक जीवन व्यतीत करते हुए समाज के हित के लिए प्रयोग कर सकें।
8. अध्यापकों को योग्यता के अनुसार शिक्षा पद्धति का प्रयोग करना चाहिए बल्कि उन्हें स्वयं ही सामान्यीकरण का अवसर प्रदान करना चाहिए ।
9. अध्यापकों को बालकों के कार्यों में पुनः पुनः हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें स्वयं ही सामान्यीकरण का अवसर प्रदान करना चाहिए ।
10. अध्यापकों को बालक को भावी जीवन में जो कुछ बनना है, उसी अनुरूप शिक्षा देनी चाहिए। यदि कोई विद्यार्थी भावी जीवन में व्यापारी बनना चाहता है तो अर्थशास्त्र तथा कॉमर्स की, यदि नेता बनना चाहता है तो राजनीतिशास्त्र की एवं आचारशास्त्र की शिक्षा देनी चाहिए।
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- गैने के सीखने के सिद्धान्त
- थार्नडाइक का प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त
- अधिगम का गेस्टाल्ट सिद्धान्त
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- सीखने की प्रक्रिया
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