मलयज का जीवन परिचय, रचनाएँ, साहित्यिक परिचय, तथा भाषा-शैली malyaj ka jeevan parichay in hindi
मलयज का जीवन परिचय
साहित्यिक परिचय
मलयज आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। जिन्होंने अपने साहित्य के द्वारा मध्यवर्गीय परिवारों में रहने वाले लोगों की मानसिकता को बड़ी सहजता से वाणी प्रदान की थी। इनका जन्म 15 अगस्त, 1935 ई. में महुई नामक गांव में हुआ था । इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इलाहाबाद में प्राप्त की थी। इनका जीवन आर्थिक अभावों से घिरा हुआ था। इन्होंने सन् 1963 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की थी। जीवनयापन के लिए इन्होंने अनेक प्रकार के कार्य किए थे। इन्होंने केन्द्रीय कृषि और सिंचाई मंत्रालय के विस्तार निदेशालय में छपने वाली अंग्रेजी पत्रिकाओं के सहसम्पादक के रूप में कार्य किया। कुछ समय के लिए इन्होंने स्वतंत्र रूप से विद्यार्थियों को पढ़ाने का कार्य भी किया। पत्र-पत्रिकाओं के स्तम्भ-लेखक के रूप में कार्य करने के साथ-साथ ये अनुवाद कार्य भी किया करते थे। ये आकाशवाणी केन्द्रों के लिए बालोपयोगी नाटकों को रचने में सहायता करते रहे। इन्होंने ‘पूर्वग्रह’ नामक पत्रिका के सम्पादन कार्य में भी कुछ समय के लिए सहयोग दिया। नई कविता के प्रति इनके मन में विशेष आकर्षण था। कुछ समय तक इन्होंने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘परिमल’ के लिए भी कार्य किया। इन्होंने पोलिश भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था। चित्रकला और फोटोग्राफी में इन्होंने शोकिया सिद्धहस्तता प्राप्त की थी। मलयज का तपेदिक से देहावसान 26 अप्रैल, 1982 को हो गया था।
रचनाएँ:
(क) काव्य-संग्रह जख्म के फूल, अपने होने को प्रकाशित करता हुआ।
(ख) आलोचनात्मक-कविता से साक्षात्कार, संवाद और एकालाप
(ग) सम्पादित – शमशेर (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ)
(घ) डायरी-डॉ. नामवर सिंह द्वारा तीन खण्डों में सम्पादित
(ड) सृजनात्मक गद्य – हंसते हुए मेरा अकेलापन
साहित्यिक विशेषताएँ :
1. वैयक्तिकता – मलयज का साहित्य वैयक्तिक भावना से भरा पड़ा है। प्रायः हर व्यक्ति में वैयक्तिकता विद्यमान होती है। पर मलयज में इसकी प्रतिशत मात्रा कुछ अधिक है । वह स्वयं को कमज़ोर अनुभव करता है । अपने आप को असहाय मानने के कारण वह दूसरों को सहारे के रूप में प्राप्त करना चाहता है पर सदा कर न पाने के कारण भीतर ही भीतर टूटता है और व हीन भावना से भरता चलता गया । वह स्पष्ट रूप से इसे स्वीकार करता है, “जलने की धू-धू आवाज़ आ रही है। मेरे अस्तित्व से जैसे कुछ छिटक कर खुरच कर गिर पड़ा है और यथार्थ का एक नया खौफनाक चेहरा मेरे सामने उभर आया है । जो जल रहा है वह भीतर । बाहर से मकान पर वही मुर्दगी और समय की ऊब लिपटी पड़ी है। भीतर की सब चीजें चटख-चटख टूट रही हैं।”
2.संवेदनशीलता – मलयज अति संवेदनशील हैं। वह अन्तर्मुखी है। यही उनके साहित्य में प्रकट हुआ है। इसे वह अपनी नियति मानता है जिसे बदलने की क्षमता उसमें नहीं है। लेखक स्वयं मानता है है कि संवेदनशीलता एक Tragic Flaw है पर फिर भी वह इससे छूट नहीं पाता- ‘मेरे साथ बहुत बुनियादी रूप से–अस्तित्व के गहनतम धरातल पर-कुछ ग़लत घटित हो गया है और मैं उस गलत का सही नहीं बना सकता, न उसे दरगुजर कर सकता हूँ, हाँ गाहे-व –गाहे अपनी आंखों में धूल ज़रूर झोंक सकता हूँ । इस क्षण के गुजर जाने के बाद आने वाला कल-कई कलों का कल-मुझ से इस क्षमा का ‘तथ्य’ मांगेगा, तथ्य के ब्योरे की डिटेल मांगेगा, इस क्षण का दृश्य पर.. पर मैं उस ‘तथ्य’ को अंकित करने की स्फूर्ति नहीं महसूस करता । वह चाकू जैसा तेज़ है और उस पर खून के निशान हैं।”
3. मध्यवर्गीय परिवारों के प्रति संवेदना – लेखक स्वयं मध्यवर्गीय था इसलिए इस वर्ग के सुख-दुःखों से भली-भांति परिचित था। उसके साहित्य में मध्यवर्ग के लोगों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का सटीक चित्रण किया गया है। पैसे का अभाव रिश्ते-नातों को निगल जाता है, प्यार का भाव मिट जाता है-“कल उसने दस बरसों के सब सम्बन्ध नंगे कर डाले । एक पतली झिल्ली जो मढ़ी हुई थी इन संबंधों के ऊपर उसे उतार कर फेंक दिया।
मकान, गहने, बैंक बैलेंस… ..सुरक्षा।
इनमें से कुछ भी मुहैया न कर सका उसके लिए। सब संबंध इस कसौटी पर आकर झूठे नकली सिद्ध हो गए।”
4. निराशा और वेदना की महत्ता – लेखक की स्थितियों ने उसे घोर निराशा और वेदना प्रदान कर दी है। जिस कारण वह शब्दों में भी डरा-डरा सा दिखाई देता है । इस स्थिति ने उसे पलायनवादी बना दिया है। उसे सदा यही लगता रहता है कि शेष कुछ नहीं बचा, बाकी कुछ नहीं रहेगा–“मन तमाम प्रकार की अप्रिय कल्पनाएं करने लगता है। फिर अनायास ही प्रार्थनाएं, समय बीतते जाने का अहसास नसों में घड़धड़ की आवाज़ की तरह गूंजने लगता है।प्रतीक्षा का डर। फिर जब लगता है कि प्रतीक्षा की कड़ी बीत गई, समय गुजर गया, तब बाहर वाला आदमी लौट आता है, सही-सलामत और नसों का तनाव दिल की कई धड़कनों के साथ छूट जाता है।”
5. जीवन के विघटित मूल्यों का चित्रण – जीवन-मूल्य बड़ी तेजी से बदल रहे हैं | मानव-मानव दूर हट रहा है, रिश्ते बिखर रहे हैं । भौतिकतावाद का बोलबाला विघटन और दूरियों का मूल कारण बन गया है। पति-पत्नी का प्रेम आर्थिक धागों में पिरोया जाने लगा है। इन्सान अपने सुखों को महत्वपूर्ण मानने लगा है। लेखक की मां तिल-तिल कर मर रही थी, पर उसके पिता उसी के कमरे को ड्राईग रूप में बदलने और उसे अपने ढंग से सजाने-संवारने की तैयारी कर रहे थे। उन्हें एक नई आजादी अनुभव हो रही थी, वे स्वयं को तनाव मुक्त महसूस कर रहे थे माँ की बीमारी की वजह से वे स्वयं को बंधा-बंधा सा महसूस करने लगे थे। लेखक की पत्नी बदलते जीवन-मूल्यों के कारण ही उसे त्याग गई थी-“इस संबंध में मैंने एक तेज़ाबी तल्खी पाई, विश्लेषण का चाकू, फुलावट नहीं जिसमें मैं अपने अच्छे-बुरे रंग घोल दूं । इस संबंध में रहते हुए मैंने अपने को घटाया है, अपने में जोड़ा नहीं, मैं छोटा बना हूँ, बड़ा नहीं।”
मलयज की भाषा-शैली
मलयज की भाषा-शैली अत्यन्त सरल, सरस और भावपूर्ण है। अपनी विशिष्टता के कारण हिन्दी-साहित्य में इसे विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है। इसकी भाषा-शैली से सम्बन्धित प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है–
1.सहज भाषा– कलयज की भाषा पूर्ण रूपब से आडम्बर विहीन है। उसमें खड़ी बोली का प्रयोग है लेकिन किसी विशेष प्रकार के शब्द प्रयोग के प्रति कहीं भी आग्रह नहीं है। तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों का सही और भावानुकूल प्रयोग किया गया है। उसकी भाषा में कहीं भी अलंकरण और सजावट के प्रति मोह नहीं है।
2.मुहावरों का प्रयोग– मलयज ने डायरी लिखते समय मुहावरे-लोकोक्तियों का प्रयोग नहीं किया जिस कारण वह लाक्षणिकता के बोझ से बच गये हैं। डायरी से स्पष्ट बयानी महत्त्वपूर्ण होती है, हर भाव को ज्यों का त्यों प्रकट करना जरूरी होता है और लेखक ने ऐसा ही किया है। उसने भावों को मुहावरों के बोझ से भारी नहीं होने दिया। अंग्रेज़ी की लाक्षाणिकता कहीं-कहीं अवश्य दिखाई देती हैं– I have sinned More by act of omission than by act of commission.
3. भावात्मक शैली–मलयज की डायरी में सर्वत्र भावात्मकता विद्यमान है। लेखक ने अपने डायरी में सगे-सम्बन्धियों और मित्रों का ही वर्णन किया है। वह कहीं भी भावों के सागर से बाहर नहीं निकला। उसका भाव भरा हृदय सदा उसे कोमलता और मार्मिकता की तरफ खींचता रहा–‘लगता है मां को एक और दौरा पड़ा है। इस बार दाएं अंग पर अरार हुआ है। इसी रो मुख भी विकृत है। बाएं हाथ-पैर की हरकत ही बंद हो गई है। मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकलती । केवल आखें अधखुली और कमी–कमी पूरी खुल जाती है। उनमें कोई दृष्टि नहीं, कोई पहचान नहीं। बुलाने पर आंखों की पलकें थोड़ा कंपकंपाती हैं, बस आवाज़ कोई नहीं। कल बाबूजी ने कहा हमें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए।”
संरचनात्मक रूप –-लेखक ने प्रवाहमयी वाक्य संरचना की है। इससे उसके भावों को सर्वत्र सहजता से प्रकट होने में छूट मिली है। वाक्य सरल भी है और जटिल भी। कहीं-कहीं उनमें नाटकीयता की सृष्टि करने की भी चेष्टा की गई है पर यह चेष्टा प्रयत्न पूर्वक नहीं है बल्कि सहज रूप में अपने आप ही हो गई है। वास्तव में मलयज की डायरी भाषा और शिल्प की दृष्टि से पूर्ण रूप से सफल है।
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