अधिकारों के एतिहासिक सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
अधिकारों का एतिहासिक सिद्धान्त (Historical Theory of Rights)
अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों का स्रोत इतिहास है जो अधिकारों की सृष्टि करता है। समाज में वर्षों से जो रीति-रिवाज प्रचलित होते हैं और हम जिन्हें मानने के अभ्यस्थ हो जाते हैं, वे ही बाद में अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। व्यक्ति प्रायः उन्हीं कार्यों को करने के अभ्यस्थ होते है जिन्हें वे समझते हैं कि उन्हें का अधिकार है। उदाहरण के लिए मनुष्य जिन धार्मिक विचारों को मानने का अभ्यस्थ हो जाता है उन्हें बाद में अपना अधिकार मानने लगता है। इसी प्रकार जिस परम्परागत रास्ते से हम चलने के आदी हो जाते हैं उस पर चलना हमारा अधिकार हो जात है। कोई भी व्यक्ति उस परम्परागत रास्ते पर चलने से हमें नहीं रोक सकता। प्रो. रिक्षा के अनुसार, “वे अधिकार होते हैं जिनके लोग अभस्त भी होते हैं, या जिनके बारे में गलत या सही परम्परा होती है कि वे उन्हें कभी प्राप्त थे।”
इस प्रकार अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धान्त के अनुसार अधिकार इतिहास की देन है। समाज की प्रचलित प्रथाओं तथा परम्पराओं से इसका विकास होता है। संक्षेप में हम अधिकारों को समाज की प्रचलित प्रथाओं का निखरा हुआ रूप कह सकते हैं।
आलोचना: यह बात सही है कि अधिकारों के विकास में समाज और प्रथाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन अनेक लेखकों ने इस सिद्धान्त को अधूरा बताया है और निम्नलिखित आधारों पर इसकी आलोचना की है :
( 1 ) रीति-रिवाज अधिकार के स्रोत: इस सिद्धान्त के समर्थक रीति-रिवाजों को अधिकार का एक मात्र स्रोत मानते हैं। प्रो. सुमनर का मत है, “रीति-रिवाज ही अधिकार है।” लेकिन सभी अधिकारों को समाज की प्रचलित प्रथाओं का परिणाम नहीं माना जा सकता। दास प्रथा, हत्या, बाल-विवाह, विधवा-विवाह का निषेध काफी समय तक समाज में प्रथा के रूप में प्रचलित रहे, लेकिन इसके बावजूद भी ये अधिकार का रूप धारण नहीं कर पाये। अतः एकमात्र प्रथाओं को ही अधिकार का स्रोत मानना गलत है।
( 2 ) सुधार के महत्व में कमी : यदि अधिकारों को प्रथाओं पर आधारित मान लिया जाय तो समाज में किसी सुधार की की गुंजाइश नहीं रहती है। समाज की प्रथायें जटिल होती हैं। जिन्हें माप्त करना आवश्यक होता है। प्रथाओ पर नियंत्रण लगाने से अभिप्राय अधिकारों पर नियंत्रण लगाना होगा। इस प्रकार यह सिद्धान्त सुधार कार्यों को प्रोत्साहन नहीं देता।
( 3 ) सामाजिक हित: व्यक्ति के किसी दावे को हम तभी अधिकार कह सकते हैं, जबकि उसमें वैयक्तिक तथा सामाजिक हित निहित हो। अनेक प्रथायें समाज के लिए अहितकर होती हैं, अतः नैतिक दृष्टि से उन्हें अधिकार नहीं माना जा सकता।
(4) एकपक्षीय सिद्धान्त : अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त एकपक्षीय है। यह केवल इतिहास को ही महत्व देता है। अतः एकपक्षीय है जिसे पूर्ण रूप से नहीं माना जा सकता। हॉकिन्स के शब्दों में, “अधिकारों की उत्पत्ति के प्रसंग में इतिहास की उपेक्षा नहीं की जा सकती, परन्तु केवल इतिहास पर ही विश्वास नहीं किया जा सकता है। “
( 5 ) बहुत-सी प्रथायें अब भी प्रचलित हैं, परन्तु वे अधिकार नहीं हैं ऐसी अनेक प्रथायें है जो बहुत समय से चली आ रही हैं परन्तु उन्हें अधिकार के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता। यही नहीं यदि कोई व्यक्ति इन प्रथाओं के पालन को अपना अधिकार समझता है और उनका पालन करता है तो वह कानून की निगाह में दंड का भागी होता है। उदाहरण के एि हरिजनों को मंदिरों में न जाने देना सवर्णों का अधिकार बन गया था, परन्तु यदि आज स्वतंत्र भारत में कोई किसी जाति को मंदिर में न जाने दे तो न्यायालय द्वारा उसे दण्ड दिया जायेगा। यदि परम्परा ही अधिकार का एकमात्र स्रोत होती तो इन बुरी प्रथाओं को अधिकारों के अन्तर्गत रखा जाता।
सिद्धान्त का महत्व : अधिकारों के ऐतिहासिक सिद्धान्त की यद्यपि तीखी आलोचना की गयी है परन्तु यह अवश्य स्वीकार किया जायेगा कि अधिकार इतिहास की देन है। समाज की प्रचलित प्रथाओं और परम्पराओं के अनुसार ही अधिकारों का उदय होता है।
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