अधिकारों के प्राकृतिक एवं कानूनी सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त (Theory of Natural Rights )
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार प्राकृतिक है और प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्राप्त है। मनुष्य जिस प्रकार अपने शरीर को प्रकृति से प्राप्त करता है उसी प्रकार अधिकारों को भी। अतः प्राकृतिक अधिकारों को मनुष्य से पृथक नहीं किया जा सकता, ये अधिकार जन्मसिद्ध होते हैं।
प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का आरम्भ यूनानी दार्शनिकों के समय से होता रहा है। हॉब्स, लॉक, मिल्टन, वाल्टेयर, टामस्पेन और प्लैकस्टोर आदि लेखकों ने इस सिद्धान्त का विशेष रूप से समर्थन किया है। सामाजिक संविदा सिद्धान्त ने हॉब्स तथा लॉक समाज व्यवस्था की स्थापना से प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करता था। इस प्राकर लॉक के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अधिकारों के अस्तित्व को मानता है। हॉब्स के अनुसार, मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में जन्म से ही स्वतन्त्र तथा विवेकी पैदा होते हैं और समाज में आने से पूर्व ही उन्हें प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। व्यक्तिवादी विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने भी प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन किया है। स्पेन्सर के अनुसार — “प्रत्येक मनुष्य तब तक सब कुछ करने के लिए स्वतन्त्र रहता है, जब तक कि उसके कार्य अन्य व्यक्तियों को इसी प्रकार की स्वतन्त्रता के लिए बाधक न हो।”
फ्रांस की क्रान्ति में भी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों को मान्यता प्रदान की गयी। क्रान्ति जिन अधिकार की प्राप्ति हेतु हुई थी, उनमें स्वाधीनता, समानता, सुरक्षा तथा सम्पत्ति के अधिकारों को मुख्य माना गया है। अमेरिकी स्वतन्त्रता के घोषणा पत्र में प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से समान माना गया है। इस घोषणा-पत्र के अनुसार जीवन स्वाधीनता तथा सुख की खोज या प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार है।
आलोचना– प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्त ने राजाओं की निरंकुशता के ऊपर नियन्त्रण लगाया, लेकिन इसके बावजूद भी इस सिद्धान्त की अनेक दृष्टिकोण से आलोचना की गयी है। इस सिद्धान्त के विपक्ष में निम्नलिकित तथ्य मुख्य है-
( 1 ) अस्पष्टता – यह सिद्धान्त अधिकारों को दर्शाने के लिए प्राकृतिक शब्द का प्रयोग करता है। यह शब्द अस्पष्ट है और इसे अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए प्रो. दिची के अनुसार, “प्रकृति” शब्द को निम्नलिखित अर्थों में प्रस्तुत किया जा सकता है-
- (क) प्रकृति सम्पूर्ण विश्व
- (ख) प्रकृति – गैर मानव संसार
- (ग) प्रकृति – आदर्श या पूर्ण उद्देश्य
- (घ) प्रकृति – सामान्य या औसत
- (ङ) प्रकृति अर्थात् समस्त संसार
- (च) प्रकृति अर्थात् सृष्टि का वह भाग जहाँ मनुष्य निवास नहीं करता
- (छ) प्रकृति अर्थात् आदर्श
- (ज) प्रकृति अर्थात् मौलिक
- (झ) प्रकृति अर्थात् सामान्य ।
प्रकृति शब्द के अनेक अर्थ होते हैं तो यह निश्चय भी कठिन हो जाता है कि प्राकृतिक अधिकार का क्या अभिप्राय है।
(2) राज्य की कृत्रिमता– उपर्युक्त कठिनाई के अतिरिक्त यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम मानता है। राज्य के कारण मनुष्य अपने प्राकृतिक अधिकारों के उपयोग से वंचित हो गया है। परन्तु वास्तविकता यह है कि राज्य के अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने अधिकार का उपयोग नहीं कर सकता। राज्य के अभाव में अधिकार शक्ति का प्रतीक बन जाता है। शक्तिशाली इच्छा ही उसके लिए अधिकार का सृजन करती है।
(3) अधिकारों का अन्तर्विरोध- इस सिद्धान्त के अनुसार, अनेक अधिकार जिन्हें कि हम प्राकृतिक अधिकार कहते हैं, वे परस्पर अन्तर्विरोधी हैं। उदाहरण के लिए इस सिद्धान्त के समर्थक स्वतन्त्रता या समानता को प्राकृतिक अधिकार मानते हैं। लेकिन न पूर्ण समानता सम्भव है और समाज में यदि व्यक्ति के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता हो जाय, तो समानता के स्थान पर पूर्ण असमानता हो जायेगी।
(4) समाज के अभाव में अधिकार की धारणा- प्राकृतिक अधिकार का सिद्धान्त प्राकृतिक अधिकारों को समाज से भी अधिक प्राचीन मानता है इसके अनुसार जब समाज व्यवस्था कायम नहीं हुई थी, तब भी मनुष्य अपने प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करता था। यह धारणा व्यावहारिक दृष्टि से सही नहीं है। समाज के अभाव में किसी प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती।
(5) सामाजिक मान्यता – उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त अधिकारों के लिए सामाजिक मान्यता को आवश्यक नहीं मानता लेकिन किसी अधिकार के पीछे जब तक समाज तथा कानून की मान्यता नहीं है, तब तक उस अधिकार को सामाजिक मान्यता तभी मिलती है जब कि वह समाज की दृष्टि से उचित हो और सामाजिक हित एवं प्रगति के पक्ष में हो।
सिद्धान्त का महत्व — अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त की उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद यह स्वीकार किया जायेगा कि प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का अपना महत्व है। वास्तव में स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व की जो घोषणाएँ हुईं, वे प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त के अनुसार ही हुई है। प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्त को त्याज्य नहीं माना जा सकता। वर्तमान समय में अमेरिका, भारत, रूस आदि के संविधानों में मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था की गयी है, वह अधिकारों की इसी प्राकृतिक धारणा पर आधारित है। हाँ, यह अवश्य है कि इस सिद्धान्त पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सिद्धान्त स्वीकार करने योग्य तभी हो सकता है जब कि हम प्राकृतिक अधिकारों के साथ नैतिक विचारधारा का समावेश करें। इसके महत्व को स्पष्ट करते हुए लार्ड ब्राइस ने लिखा है— “यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि प्राकृतिक अधिकार मानव संस्था द्वारा प्रदत्त दशाएँ हैं जो व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।”
अधिकारों का कानूनी सिद्धान्त ( Legal Theory of Rights )
अधिकारों के कानूनी सिद्धान्त के अनुसार अधिकार राज्य के कानून की देन है। कानून हमें जो प्रदान करता है, वह अधिकार है। कानून में जिस बात की व्यवस्था नहीं की जाती, वह अधिकार नहीं है। अतः अधिकार स्वतः विकसित नहीं होते, कृत्रिम हैं जिनकी उत्पत्ति राज्य के कानून द्वारा होती है। अधिकार का इस प्रकार कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। अधिकार देश के प्रचलित कानून पर आधारित है। अतः कानूनी सिद्दान्त के समर्थक प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा को ठीक नहीं मानते।
कानून द्वारा व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण होता है। अतः कानूनी अधिकारों से पृथक किसी प्रकार के प्राकृतिक अधिकारों का अस्तित्व नहीं हो सकता है। हॉकिन्स ने लिखा है “राज्य के बगैर या विरोध में अधिकार रचना यह कहने के समान है कि व्यक्ति के पास कोई अधिकार नहीं है।”
इस सिद्धान्त के समर्थकों में बेन्थम, ऑस्टिन तथा हालैण्ड का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आधुनिक युग में यह सिद्धान्त सबसे अधिक प्रचलित है।
आलोचना- अधिकारों के कानूनी सिद्धान्त के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा जो आपत्तियाँ की गयी हैं, वे निम्न प्रकार है-
( 1 ) कानून द्वारा अधिकार की उत्पत्ति- इस सिद्धान्त के अनुसार, कानून द्वारा अधिकार की उत्पत्ति होती है। कानून जिसके लिए रोक लगाता है वह अधिकार नहीं है और कानून जिस कार्य के लिए रोक नहीं लगाता वह अधिकार हो सकता है। लेकिन व्यवहार में यह बात सही नहीं है। उदाहरण के लिए यदि कानून द्वारा दूसरों की सम्पत्ति को बलपूर्वक अपहरण को कानूनी घोषित कर दिया जाय तब भी इस कार्य को अधिकार नहीं कहा जा सकता। वास्तविकता यह है कि राज्य व्यक्ति के अधिकारों को उत्पन्न नहीं करता वरन् उन्हें मान्यता प्रदान करता है।
( 2 ) राज्य की निरंकुशता को प्रोत्साहन- यह सिद्धान्त राज्य को अधिकार का स्रोत मानकर, राज्य की निरंकुशता को प्रोत्साहन प्रदान करता है। राज्य को अधिकार का जन्मदाता मानने का अभिप्राय यही है कि निरंकुश शासक की जो इच्छा है वही नागरिकों का अधिकार हो सकता है। शासक जो नहीं चाहता वह किसी प्रकार अधिकार नहीं हो सकता। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह बात ठीक नहीं है। राज्य के कार्यों की अनेक निश्चित सीमायें होती हैं। उदाहरण के लिए नैतिकता, रीति-रिवाज, प्रथायें तथा परम्परायें आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जो कानून को निर्धारित है। लॉस्की, “अधिकारों की प्रतिष्ठा का प्रश्न लिखित कानून के नियमों की अभ्यास और परम्परा पर आधारित है।”
( 3 ) अधिकारों की कानूनी मान्यता- इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति का अधिकार के तभी अधिकार हो सकता है जब कि कानून की स्वीकृति प्राप्त हो। लेकिन अधिकार के लिए केवल कानून की मान्यता ही पर्याप्त नहीं है। उसके पीछे सामाजिक मान्यता होना भी आवश्यक है, किसी अधिकार को कानून तभी मान्यता देता है जब कि उसे समाज भी मान्यता देता हो । समाज की मान्यता के अभाव में अधिकार को कानून की मान्यता नहीं मिलती।
( 4 ) एकपक्षीय विवेचना- यह सिद्धान्त अधिकार का एकपक्षीय विवेचन करता है। सिद्धान्त की मान्यता है कि कानून ही राज्य का एक मात्र निर्धारण है। लेकिन व्यावहारिक रूप में यह बात सही नहीं है। अधिकार केवल कानून के कारण उत्पन्न नहीं होते। इसके पीछे विभिन्न सामाजिक हित और प्रयोजन निहित होते हैं। अतः यह सिद्धान्त एकांगी है। अधिकार के लिए नैतिक, सामाजिक एवं कानूनी तीनों पक्षों का समावेश आवश्यक है।
सिद्धान्त का महत्व — उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त का अपना अलग महत्व है। इस सिद्धान्त की यह मान्यता स्वीकार है कि समाज की ओर से जिन स्वतन्त्रताओं और सुविधाओं को मान्यता प्रदान की गयी है अथवा व्यक्ति के नैतिक विश्वास के लिए जो स्वस्थ अथवा दावे अनिवार्य है वे उस समय तक अधिकार नहीं कहे जा सकते जब तक कि उन्हें राज्य के द्वारा मान्यता प्राप्त न हो।
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