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अधिकारों के समाज कल्याण सिद्धान्त एवं आदर्शवादी सिद्धान्त | Social Welfare Theory of Rights and idealistic Theory in Hindi

अधिकारों के समाज कल्याण सिद्धान्त एवं आदर्शवादी सिद्धान्त | Social Welfare Theory of Rights and idealistic Theory in Hindi
अधिकारों के समाज कल्याण सिद्धान्त एवं आदर्शवादी सिद्धान्त | Social Welfare Theory of Rights and idealistic Theory in Hindi

अधिकारों के समाज कल्याण सिद्धान्त एवं आदर्शवादी सिद्धान्त | Social Welfare Theory of Rights and idealistic Theory

(1) अधिकारों का समाज कल्याण का सिद्धान्त ( Social Welfare Theory of the Rights) –

अधिकारों के समाज-क्लायण का सिद्धान्त समाज पर केन्द्रित है अधिकारों के लिए समाज को सर्वोपरि स्थान देता है। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार समाज की देन है। समाज का कल्याण एक ऐसा मापदण्ड है जिसका ध्यान राज्य कानून तथा प्रथा आदि सभी के द्वारा करता है। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को अधिकार इस कारण प्रदान किये जाते हैं, क्योंकि इससे समाज का कल्याण होता है।

अधिकार के समाज कल्याण के सिद्धान्त का समर्थन उपयोगितावादी विचारकों ने किया है। इसमें बेन्थम तथा मिल का नाम प्रमुख है। इन दिनों विचारकों ने उपयोगिता के आधार पर व्यक्ति के अधिकारों का निर्धारण किया है। इनके अनुसार यदि हम अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख की कसौटी मान लें, तो स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति के अधिकार क्या होने चाहिए। लॉस्की ने भी उपयोगिता को अधिकार की कसौटी स्वीकार किया है। लॉस्की के शब्दों में— “हमारे अधिकार समाज में स्वतन्त्र नहीं होते, बल्कि समाज में ही निहित होते हैं।’

लॉस्की के अनुसार, “लोक-कल्याण के विरुद्ध व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं हो सकता।” इसे स्पष्ट करते हुए लॉस्की ने यह उल्लेख किया है कि, मेरे अधिकार लोक-कल्याण के विरुद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा करना, मुझे उस लोक-कल्याण के विरुद्ध अधिकार देना है, जो कि अन्तिम रूप से मुझसे सम्बन्धित हैं।

इस प्रकार उपयोगितावादी लेखकों के अनुसार, लोक कल्याण अधिकार की कसौटी है। व्यक्ति को केवल वे ही अधिकार प्राप्त रहते हैं जो कि कल्याण की वृद्धि करते हैं। सामाजिक हित से पृथक अधिकार का कोई अस्तित्व नहीं है।

आलोचना- अधिकारों के लोक-कल्याण का सिद्धान्त इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह सामाजिक हित दृष्टि से ही यह बताता है कि व्यक्ति को किस प्रकार के अधिकार प्राप्त होने लेकिन इस अच्छाई के बावजूद भी इस सिद्धान्त की आलोचना की गयी है। इसके बारे में निम्न बातें प्रमुख हैं।

(1) लोक कल्याण की अस्पष्टता- इस सिद्धान्त के समर्थक लोक-कल्याण को अधिकार की कसौटी मानते हैं। लेकिन लोक-कल्याण ऐसा विषय है, जिसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती। यदि अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को लोक-कल्याण का आधार माना जाय तो अधिकतम सुख निश्चित करना कठिन होता है। अधिकतम सुख की न तो कसौटी हो सकती है और न सम्पूर्ण समाज की कोई सामूहिक चेतना होती है।

( 2 ) वैयक्तिक अधिकारों का उल्लंघन- यह सिद्धान्त समाज के लोक-कल्याण को महत्व देता है और यह मानता है कि समाज कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण निहित है। यह बात व्यावहारिक रूप में सही नहीं है। कभी-कभी व्यक्ति का कल्याण समाज से अलग हो सकता है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंखन होता है।

( 3 ) समाज की निरंकुशता- यदि सिद्धान्त व्यक्ति के अधिकारों को महत्व न देकर सामाजिक निरंकुशता को प्रोत्साहन देता है। इसमें व्यक्ति समाज की निरंकुशता की इच्छा के विपरीत कोई अपील नहीं कर सकता। वाइल्ड के मतानुसार, “यदि अधिकार समाज की इच्छा से उत्पन्न होते हैं तो व्यक्ति समाज की इच्छा के विपरीत अपील नहीं कर सकता और उसे असहाय होकर समाज की निरंकुश इच्छा पर निर्भर रहना पड़ेगा।”

(4) सिद्धान्त का महत्व- अधिकारों के सम्बन्ध में जितने भी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है उनमें आधुनिक युग में समाज कल्याण के सिद्धान्त को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। इस सिद्धान्त की यह मान्यता पूरी तरह से स्वीकार्य है कि अधिकार का अस्तित्व समाज के हित के और उसका उपयोग समाज के हित में ही किया जाना चाहिए। आधुनिक युग में लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जो मान्यता प्राप्त हुई है, वह इसी सिद्धान्त पर आधारित है।

(2) अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ( Idealistic Theory of the Rights ) –

अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे बाह्य परिस्थितियाँ हैं, जो व्यक्ति के आन्तरिक विकास के लिये अनिवार्य हैं। परिस्थितियाँ व्यक्ति के नैतिक विकास से सम्बन्ध रखती हैं अतः इन परिस्थितियों को प्राप्त करना ही व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य है। अतः इस व्यक्तित्व को प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सभी व्यक्ति के अधिकार हैं। उदाहरण के लिए। व्यक्तित्व का विकास करना, व्यक्ति का उद्देश्य है। इसके लिए व्यक्ति का जीवित रहना तथा शिक्षा प्राप्त करना आदि आवश्यक है। अतः ये सभी व्यक्ति के अधिकार हैं।

व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकार आवश्यक है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपने व्यक्तित्व का विकास करे। हमारे अन्य अधिकार जैसे, स्वतन्त्रता का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, आदि इसी अधिकार के कारण उत्पन्न होते हैं। क्योंकि ये अधिकार व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं। व्यक्तित्व का विकास करना हमारा अधिकार है। इस कारण किसी भी व्यक्ति को आत्महत्या का अधिकार नहीं है। अतः अधिकार मनुष्य के लिए एक नैतिक प्राणी के रूप में कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक है। इस सिद्धान्त के समर्थक अधिकार को नैतिक दृष्टिकोण से देखते हैं। अधिकार व्यक्ति की नैतिकता से सम्बन्धित है। अतः नैतिक स्तर पर व्यक्ति अपने अधिकार की माँग कर सकता है। अधिकार में विवेकशीलता का समावेश होता है। अतः विवेकरहित अधिकार को अधिकार नहीं माना जा सकता।

आलोचना– यह सिद्धान्त व्यक्तित्व तथा नैतिकता को सबसे अधिक महत्व देता है। इसका कारण यह है कि यह अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा अधिक तर्कसंगत है और अधिकारों के मनमाने प्रयोग को मान्यता नहीं देता है। यह सिद्धान्त न राज्य की निरंकुशता को प्रोत्साहन देता है और न समाज की निरंकुशता को। इसी सिद्धान्त के बारे में अनेक लेखकों ने निम्नलिखित आपत्तियाँ की हैं-

(1) आत्मगत विचार- इस सिद्धान्त के समर्थक व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकार को आवश्यक मानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का पृथक व्यक्तित्व है। प्रत्येक के व्यक्तित्व के लिए अलग-अलग परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। इस प्रकार यह सिद्धान्त आत्मगत विचार पर आधारित है।

(2) व्यक्ति की महत्ता – आदर्शवादी सिद्धान्त व्यक्ति के हित को समाज के हित से अधिक महत्व देता है। यह सिद्धान्त मानता है कि किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

( 3 ) अव्यावहारिक- यह सिद्धान्त नैतिक मान्यताओं पर आधारित है। अतः कुछ लेखकों न इस सिद्धान्त को अत्यधिक अव्यावहारिक माना है। यह व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व देता है और समाज को कोई महत्व नहीं देता। यह एकपक्षीय विचार है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से व्यक्ति तथा समाज के हितों में समन्वय होना चाहिए।

(4) सिद्धान्त का महत्व- इस सिद्धान्त का महत्व इस बात में निहित है कि समाज में नैतिकता का सदैव अस्तित्व रहा है और नैतिक स्तर पर व्यक्ति अपने अधिकारों की माँग कर सकता है। अधिकार में विवेकशीलता का भी होना आवश्यक है।

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