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स्वतन्त्रता एवं समानता में सम्बन्ध | Relationship between Liberty and Equality in Hindi

स्वतन्त्रता एवं समानता में सम्बन्ध  | Relationship between Liberty and Equality in Hindi
स्वतन्त्रता एवं समानता में सम्बन्ध | Relationship between Liberty and Equality in Hindi

स्वतन्त्रता एवं समानता में सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये।

स्वतन्त्रता एवं समानता में सम्बन्ध | Relationship between Liberty and Equality

स्वतन्त्रता और समानता के सम्बन्ध को लेकर दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं। पहली विचारधारा यह मानती हैं कि स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी है। दूसरी विचारधारा यह मानती है कि स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे से इतने घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित है कि एक बिना दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

(1) स्वतन्त्रता तथा समानता परस्पर विरोधी है- डी. टाकविले और लार्ड ऐक्टन आदि विद्वानों का मत है कि स्वतन्त्रता एवं समानता में परस्पर विरोध है। ये विद्वान स्वतन्त्रता के पोषक है, परन्तु समानता के नहीं। ऐक्टन के अनुसार, “समानता के आवेश ने स्वतन्त्रता की आवश्यकता को व्यर्थ कर दिया है।” इन लेखकों ने स्वतन्त्रता का अर्थ मनमाने ढंग से लिया है।

वे अनियन्त्रित स्वाधीनता (Unrestrained Liberty) को वास्तविक स्वाधीनता मानते हैं और कहते हैं कि जहाँ स्वतन्त्रता होती है वहाँ समानता का होना स्वभाविक है। इन विद्वानों का यह कथन है कि जब व्यक्ति को इस बात की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी कि वह जितना चाहे धन एकत्रित करे और इस स्थिति में यदि समानता की माँग की जाय तो वह स्वतन्त्रता के विरुद्ध होगी।

स्वतन्त्रता और समानता को एक-दूसरे का विरोधी मानना भूल है। उसमें विरोध तभी उत्पन्न होता है जब स्वतन्त्रता के गलत अर्थ लगाते हैं। स्वतन्त्रता का अर्थ अनियन्त्रित स्वाधीनता नहीं है। यदि स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण न होगा तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। असीमित स्वच्छन्दता कभी भी स्वतन्त्रता नहीं हो सकती। सामाजिक हितों को दृष्टि में रखकर यह आवस्यक हो जाता है कि मानव की स्वाधीनता पर अंकुश रखा जाय। जब हम स्वतन्त्रता को ठीक अर्थ में ग्रहण करते हैं तब वह समानता की विरोधी न रहकर उससे घनिष्ठ रूप में सम्बद्ध हो जाता है। इस प्रकार समानता का भी गलत अर्थ लगाने से वह स्वतन्त्रता की विरोधी प्रतीत होती है। समानता का अर्थ यह नहीं है कि सभी आर्थिक दृष्टि से एक से सम्बन्धित हो बल्कि समानता का अर्थ यह है कि सभी के हितों को समान दृष्टि से देखा जाय। डॉ. आशीर्वादम ने लिखा है— “समानता का आशय व्यवहार, पारिश्रमिक एवं कार्यों की समानता नहीं है। इसका आशय निष्पक्षता से है।” इस प्रकार पारिश्रमिक की समानता वास्तविक समानता नहीं है बल्कि योग्यता के अनुरूप अवसर की प्राप्ति ही समानता है। यदि समानता का अर्थ केवल पारिश्रमिक समानता से ग्रहण किया जायेगा तो वह अवश्य ही स्वतन्त्रता की विरोधी होगी। परन्तु यदि समानता का अर्थ योग्यता के अनुरूप अवसर की प्राप्ति के रूप में लिया जायेगा तो में समानता और स्वतन्त्रता एक-दूसरे की सहायक सिद्ध होगी।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यह धारणा की स्वतन्त्रता और समानता विरोधी है, इसलिए कुछ विद्वानों ने स्वतन्त्रता और समानता के गलत अर्थ लगाये हैं। यदि स्वतन्त्रता और समानता दोनों को ठीक अर्थों में ग्रहण किया जाय तो एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित सिद्ध होगी। स्वतन्त्रता के बिना समानता एकरूप हो जाती है और समानता के बिना स्वतन्त्रता व्यर्थ हो जाती है। प्रो. पोलार्ड ने तो यहाँ तक लिखा है कि, “स्वतन्त्रता की समस्या का एक ही समाधान है- समानता।” इस प्रकार स्वतन्त्रता की समस्या का होना आवश्यक है और समानता के द्वारा ही स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखा जा सकता है।

(2) समानाता के अभाव में स्वतन्त्रता व्यर्थ – रूसों, टॉनीज, लॉस्की, मैकाइवर आदि विद्वानों का मत है कि स्वतन्त्रता के होते हुए समानता व्यर्थ है। कोल लिखता है— “आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक हैं।” टॉनीज का विचार “समानता की प्रचुर मात्रा स्वतन्त्रता की विरोधी है, परन्तु उसके लिए अत्यन्त आवश्यक है।” जिस समाज में भीषण आर्थिक समानता विद्यमान हो उसमें स्वतन्त्रता की कल्पना करना मूर्खता है, क्योंकि निर्धन समाज में स्वतन्त्रता का अर्थ कुछ पैसों के अतिरिक्त कुछ और न होगा। इस • प्रकार समाज में केवल समर्थ व्यक्तियों की ही स्वतन्त्रता रह जाती है और असमर्थ वर्ग उसके हाथ की कठपुतली रह जाते हैं। मैडीसन का भी विचार है कि समानता की अनुपस्थिति में स्वतन्त्रता या मानव इच्छा की अभिव्यक्ति असम्भव है क्योंकि सामाजिक भेदभाव एवं अन्तर की स्थिति में दलित वर्ग को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त नहीं होता और न इस स्थिति में राजनीतिक स्वतन्त्रता के स्थायित्व की सम्भावना ही रह जाती है।

इस प्रकार स्वतन्त्रता हेतु समानता का होना अत्यन्त आवश्यक है। लॉस्की का विचार है- “यदि स्वतन्त्रता से हमारा तात्पर्य मनुष्य की आत्मा के निरन्तर विकास की भावना से है तो वह केवल समान लोगों के समाज में ही सम्भव है। समाज में जहाँ धनी और निर्धन है, शिक्षित और अशिक्षित है और वहाँ पर स्वामी एवं सेवक सदैव पाये जाते हैं।” इस प्रकार लॉस्की यह मानता है कि स्वतन्त्रता के लिए समानता आवश्यक है और समानता के लिए स्वतन्त्रता। समानता का होना स्वतन्त्रता के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा।

( 3 ) स्वतन्त्रता के अभाव में समानता भार हो जाती है- जहाँ समानता के बिना स्वतन्त्रता की कल्पना नहीं की जा सकती वहाँ स्वतन्त्रता के बिना समानता भी व्यर्थ है। मान लीजिए कि समाज के सभी व्यक्ति समान हैं और उसमें बहुत कम आर्थिक वैषम्य है। परन्तु यदि उन्हें अपने कार्यों को करने की स्वतन्त्रता नहीं है तो उनके व्यक्तित्व का विकास रूक जायेगा और उनको वह समानता भी भार लगने लगेगी। यह ठीक है कि असमानता की विद्यमानता स्वतन्त्रता को नष्ट कर देती है परन्तु साथ ही वह भी ठीक है कि स्वतन्त्रता के अभाव में समानता व्यर्थ है। स्वतन्त्रता के बिना समानता असम्भव है। उसी समाज में समानता स्थापित हो सकती है जहाँ लोगों को कार्य करने की स्वतन्त्रता है।

(4) समानता और स्वन्तन्त्रता एक-दूसरे के पूरक है- उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। समानता स्वतन्त्रता की रक्षक है और उसके हेतु आवश्यक । स्वतन्त्रता समानता में बाधक नहीं बल्कि सहायक सिद्ध होता है। स्वतन्त्रता के अधीन ही समानता का महत्व है। यदि किसी राज्य के नागरिक स्वतन्त्र नहीं है तो भले ही उस राज्य में समानता हो, नागरिक कभी भी सुखी नहीं हो सकते। इसी प्रकार यदि किसी राज्य में नागरिकों को पूर्ण स्वतन्त्रता है परन्तु उनमें अधिक असमानता के दर्शन होते हैं तो वहाँ के नागरिक भी सुखी नहीं रह सकते। स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही साध्य है। दोनों ही मानव के सुख और कल्याण के लिए हैं तथा दोनों ही उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। स्वतन्त्रता और समानता के विरोधाभास का अर्थ असीमित स्वाधीनता लगाने से वह समानता का विरोधी हो जाता है। परन्तु स्वतन्त्रता का अर्थ असीमित स्वच्छन्दता नहीं है। यदि स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण न हो और कमजोर व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का अपहरण कर लें तो इस स्थिति में स्वतन्त्रता की धारणा ही समाप्त हो जायेगी। समाज में केवल चन्द व्यक्ति ही स्वतन्त्र रह सकेंगे। इस प्रकार जब हम समानता का अर्थ यह मानते हैं कि सभी के पास बराबर धन हो तो वह समानता न रहकर एकरूपता हो जाती है तथा यह एकरूपता मानव के व्यक्तित्व के विकास और उसकी स्वतन्त्रता दोनों के लिए घातक सिद्ध होती है। एकरूपता के फलस्वरूप मानव की प्रेरणा शक्तिच्युत हो जाती है और वह उन्नति करने का प्रयास ही नहीं करता। इस स्थिति में उसकी स्वतन्त्रता की कल्पना कैसे की जा सकती है।

अतएव हम इस निष्कर्ष पर पहुॅते हैं कि स्वतन्त्रता और समानता दोनों ही आवश्यक है और दोनों को ठीक अर्थों में ग्रहण किया जाना चाहिए। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही मानव के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

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