स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषा दीजिये तथा उसके प्रकार बताइये ।
स्वतन्त्रता का अर्थ एवं परिभाषा
स्वतन्त्रता का प्रयोग लोग भिन्न-भिन्न अर्थों में करते हैं। स्वतन्त्रता शब्द का जितना अधिक सदुपयोग हुआ है, उतना ही दुरुपयोग भी हुआ है। साधारणतया स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्य अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने से लगाता है तथा वह चाहता है कि उसके इस प्रकार अपनी इच्छा से करने वाले कार्य पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न हो। गम्भीरता पूर्वक विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की स्वतन्त्रता असम्भव है। यदि प्रत्येक व्यक्ति इच्छानुसार कार्य करने लगे तो समाज में शक्तिशाली लोग ही इसका उपयोग कर सकेंगे। निर्धन एवं कमजोर वर्ग उनका दास बन जायेगा। इस प्रकार सम्पूर्ण, स्वतन्त्रता का अर्थ सबल द्वारा निर्बलों का शोषण होगा। स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता है। यह तो उसका भ्रामक अर्थ है। वास्तविक स्वतन्त्रता तो वह है जिससे किसी दूसरे की स्वतन्त्रता को कोई आघात न पहुँचे। इस प्रकार स्वतन्त्रता के दो अर्थ लगाये जाते हैं—प्रथम, स्वतन्त्रता का नकारात्मक अर्थ और दूसरा, स्वतन्त्रता का सकारात्मक अर्थ।
स्वतन्त्रता की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) लॉस्की की परिभाषा – “स्वतन्त्रता का अर्थ उस वातावरण की स्थापना से है जिसमें मनुष्यों को पूर्ण विकास के लिए अवसर प्राप्त होते हैं।”
(2) सीले की परिभाषा– “स्वतन्त्रता अति शासन का विलोम है।”
(3) मेकनी की परिभाषा – स्वतन्त्रता का अर्थ सब प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, वरन् अनुचित के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्याख्या है।
( 4 ) मिल की परिभाषा – मिल ने स्वतन्त्रता की दो परिभाषाएँ दी हैं एक स्थान पर. वह कहता है कि “व्यक्ति के स्वयं प्रभुत्व का अर्थ स्वतन्त्रता है।”
एक अन्य स्थान पर कहता है कि “जो मनुष्य चाहता है उसे करने में स्वतन्त्रता निहित है।”
( 5 ) गेटल की परिभाषा – स्वतन्त्रता उन चीजों के करने की वास्तविक शक्ति है जो की जाने तथा उपभोग करने योग्य है।
स्वतन्त्रता के विभिन्न प्रकार (Kinds of Liberty)
मानव की आवश्यकताओं और क्रिया-कलापों पर ध्यान रखते हुए विद्वानों ने स्वतन्त्रता के अनेक भेद बतलाए है। अध्ययन की सुविधा के लिए स्वतन्त्रता के निम्नलिखित भेद किये जा सकते हैं-
(1) स्वाभाविक स्वतन्त्रता- रूसो के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह स्वतन्त्र होता है परन्तु भूमि पर गिरते ही वह चारों ओर से सामाजिक एवं पारिवारिक बन्धनों से जकड़ जाता है। बाल गंगाधर तिलक का भी कथन है, “स्वतन्त्रता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है।” परन्तु आज के सभ्यता के विकास के युग में स्वाभाविक स्वतन्त्रता केवल उस सीमा तक सीमित है जब तक व्यक्ति संसार में नहीं जन्मता।
(2) वैयक्तिक स्वतंत्रता- कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसकी कार्य प्रणाली में कोई दूसरा व्यक्ति किसी प्रकार का हस्तक्षेप करे। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं हो सकता कि वह दूसरों के स्वतन्त्र अधिकारों को कुचल कर अपने अधिकारों का उपभोग करे। वैवाहिक और पारिवारिक बन्धन इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि मनुष्य स्वेच्छापूर्वक उसी सीमा तक कार्य करे जब तक वह दूसरे के स्वतन्त्र अधिकारों में बाधक न हो।
(3) राजनीतिक स्वतन्त्रता- देश के सभी निवासी यह चाहते हैं कि उनके देश में वही की जनता का शासन हो और उन्हें शासन कार्यों में सहयोग देने का पूर्ण अधिकार हो ।
नागरिकों को बड़े-से-बड़े पद प्राप्त करने की चुनाव लड़ने की और मतदान करने की पूर्ण स्वतन्त्रता हो। इस प्रकार की स्वतन्त्रता स्वशासित है। जब तक उस देश की जनता पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं, देश के नागरिक सच्चे और ईमानदार नहीं भाषण और प्रकाशन की सुविधा नागरिकों को नहीं, तब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता सम्भव नहीं हो सकती।
( 4 ) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता – प्राचीन काल में राष्ट्रों का निर्माण जाति, धर्म, भाषा आदि की एकरूपता के आधार पर हुआ था। एक राष्ट्र के नागरिक अपने समान किसी दूसरे को विकसित नहीं समझते थे और यदि उन्हें अनुमान हो जाता था कि दूसरा उनसे अधिक विकसित हो जायगा तो उसे नष्ट करने की चेष्टा करते थे। परन्तु आधुनिक युग में यह संकुचित विचारधारा बदल गई है। प्रत्येक देश के निवासी अपने देश से प्रेम करते हुए संसार को अपना कुटुम्ब समझते हैं। राष्ट्र का विकास और उसे स्वाधीन रखने की क्षमता ही वास्तविक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता है।
(5) वैधानिक स्वतन्त्रता – प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके देश पर उसी पर शासन हो। वह कभी किसी दूसरे व्यक्ति या दूसरे राष्ट्र शासन को सहन नहीं करना चाहता। अतः शासन करने की एवं संविधान निर्माण करने की स्वतन्त्रता का ही दूसरा नाम वैधानिक स्वतन्त्रता है।
( 6 ) आर्थिक स्वतन्त्रता – प्रो. लास्की के अनुसार आर्थिक स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। राज्य का यह कर्त्तव्य होता है कि प्रत्येक नागरिक को इस बात का पूरा विश्वास दिला दे कि उसे उसकी योग्यता के अनुकूल जीविकोपार्जन करने का पूरा अवसर मिलेगा। दूसरे शब्दों में शोषण के विरुद्ध नियन्त्रण श्रमिकों के लिए अनुकूल अवकाश तथा कार्यकाल के घण्टों का विभाजन, बूढ़ों और बीमारों तथा बेकारों को उचित आर्थिक सहायता का प्रबन्ध राज्य और समाज की ओर से होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धनोपार्जन की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
(7) धार्मिक स्वन्त्रता- सभ्यता के आरम्भ में धर्म का विशेष महत्व था। आज भी प्रत्येक नागरिक किसी-न-किसी धर्म का पालन करता है अर्थात् उसकी आराधना का कोई सिद्धान्त अवश्य होता है। राज्य की ओर से यह प्रबन्ध होना चाहिए कि राज्य अथवा समाज द्वारा कोई व्यक्ति दूसरों की पूजा-पाठ के ढंग में हस्तक्षेप न कर सके। राज्य को धर्म विशेष, को मानने के वालों सुविधाएँ नहीं प्रदान करनी चाहिए बल्कि सभी धर्मानुयाइयों के साथ साथ व्यवहार करना चाहिए और सबको अपना धर्म-पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए।
(8) नागरिक या सामाजिक स्वतन्त्रता- समाज का सदस्य होने के फलस्वरूप व्यक्ति जिस स्वतन्त्रता का उपभोग करता है उसे नागरिक या सामाजिक स्वतन्त्रता कहते हैं। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उसे न्यायालय की शरण में जाने और विवेक की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में यह स्मरण रखना चाहिए कि विभिन्न राज्यों में नागरिक या सामाजिक स्वतन्त्रता का स्तर भिन्न है। ब्रिटेन या भारत के नागरिकों को जो स्वतन्त्रताएँ प्राप्त हैं वह कुछ अन्य राज्यों के नागरिकों को प्राप्त नहीं है।
( 9 ) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता – इस प्रकार की स्वतन्त्रता का अर्थ व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार करने की स्वतन्त्रता देना है। प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह अपनी इच्छानुसार जावनयापन करे। वह वस्त्र धारण करने, भोजन करने और व्यक्तित्व के विकास के लिए कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रखता है। प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए परन्तु उसकी यह स्वतन्त्रता अनियन्त्रित नहीं होनी चाहिए। प्रसिद्ध विद्वान मिलने लिखा, “एक व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए बशर्ते कि उसकी स्वतन्त्रता से दूसरों की स्वतन्त्रता को हानि न पहुँचती हो।”
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