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न्याय के कानूनी पक्ष | legal side of justice in Hindi

न्याय के कानूनी पक्ष | legal side of justice in Hindi
न्याय के कानूनी पक्ष | legal side of justice in Hindi

न्याय के कानूनी पक्ष पर संक्षिप्त लेख लिखिये।

न्याय के कानूनी पक्ष | legal side of justice in Hindi

न्याय के कानूनी पक्ष पर निम्न दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता हैं।

(i) न्यायोचित कानून (Just Laws ) –

समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रखने तथा नागरिकों को सच्चरित्र बनाने के लिए प्रत्येक समाज ने फौजदारी और दीवानी कानूनों का एक ढाँचा खड़ा किया है। देश और काल की परिस्थितियों के अनुसार कानूनों के स्वरूप में विभिन्नताएँ होना बहुत स्वाभाविक है किन्तु फिर भी, कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें प्रत्येक समाज ने न्यायसंगत समझा है और जिनके सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के कानून बनाये गये हैं।

सबसे पहले अपराधों (Crimes) को लीजिए। सामाजिक शान्ति का भंग किया जाना, प्रहार (Assault) हत्या (Assassianation), किसी की मानहानि करना (Libel or Slander), किसी को अनुचित रूप से बन्दी बनाकर रखना (False Imprisonment), अपहरण (Abduction) और व्यभिचार (Adultery), ये सभी बातें प्रत्येक समाज में अन्यायपूर्ण मानी जाती हैं।

जहाँ तक दीवानी मामलों (Civil Matters) का प्रश्न है, मालिक और नौकर (Master and Servant), स्वामी और एजेण्ट (Principal and Agent), फर्म और साझीदारी (Firm and Partner) तथा अभिभावक और आश्रित (Guardian and Ward) के पारस्परिक सम्बन्धों की दृष्टि से बहुत-से कानून बनाये गये हैं, ताकि प्रत्येक पक्ष के अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सके। पूँजीवादी देशों में वस्तुओं के ट्रेड मार्क, निजी सम्पत्ति तथा संविदा व करार के सम्बन्ध में विवादों की अधिक गुंजाइश रहती है। इसीलिए साम्यवादी देशों की अपेक्षा इन देशों में दीवानी कानूनों का क्षेत्र अधिक व्यापक है। बहरहाल, देश में न्याय व अन्याय के विषय में जो मान्यताएँ प्रचलित है, उनके आधार पर कानूनों का एक बहुत बड़ा ताना-बाना देखने को मिलता हैं।

इस सम्बन्ध में हम ‘सार्वजनिक’ और ‘निजी’ विधियों (Public and Private Laws) की भी चर्चा कर सकते हैं। निजी विधियों का क्षेत्र निरन्तर संकुचित होता जा रहा है क्योंकि पृथक पृथक सम्प्रदायों के लिए पृथक-पृथक कानून संहिताएँ अधिक अच्छी नहीं मानी जाती। फिर भी ऐसे अनेक विषय हैं, जैसे-विवाह, तलाक, गोद लेने की रीति, उत्तराधिकार और सम्पत्ति का बँटवारा जिनके सम्बन्ध में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी अपनी-अपनी प्रथाओं को ही अधिक न्याययुक्त मानते हैं। इसी कारण सार्वजनिक विधियों के साथ-साथ निजी विधियाँ भी विद्यमान हैं।

(ii) कानून का न्यायोचित ढंग से लागू किया जाना (Just Administration of the Law )-

ऊपर हमने ‘न्यायोचित कानूनों’ का विवेचन किया है किन्तु कानून के उचित होने से ही कार्य नहीं चलता। साथ ही यह भी आवश्यक है कि अधिकारी वर्ग और अदालते निष्पक्षता से उन्हें लागू करें। न्यायिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में कई बातों की विवेचना की जा सकती है। प्रथम, कानून के सम्मुख समानता (Equality before Law) यानी के कानून सबकी समान रूप से रक्षा करें। द्वितीय, न्यायाधीशों की निष्पक्षता (Impartiality of Judges) अर्थात् न्यायाधीश बिना यह देखे कि कोई व्यक्ति धनी है या निर्धन तथा उच्च पद पर आसीन है अथवा नहीं, सभी को निष्पक्षतापूर्वक न्याय प्रदान करें। तृतीय, अकारण मनमाने तरीके से बन्दी न बनाये जाने का अधिकार (Freedom From Arbitrary Arrest) । चतुर्थ, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता (Independence of Judiciary) यानी आदालतें मुकदमों का निर्णय स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकें। उन्हें कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रखा जाये। पंचम, कोई व्यक्ति तब तक दण्डित न किया जाये जब तक कि न्यायालय द्वारा दोषी करार नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त, नागरिकों के ऊपर खुली अदालत में मुकदमा चलाया जाये तथा जमानत के रूप में किसी से भी बहुत भारी रकम न माँगी जाये।

(iii) दण्ड का उद्देश्य (Purpose of Punishment ) –

न्याय व दण्ड, इन दोनों का आपस में गहरा सम्बन्ध है क्योंकि शुरू से ही समाज का यह प्रयास रहा है कि जो लोग कानूनों के विरुद्ध आचरण करें, उन्हें दण्ड दिया जाये। कुछ विचारक अपराध को असामान्य मानसिक स्थिति का परिणाम मानते हैं। उनके मतानुसार अपराध की प्रवृत्ति एक रोग है। इसलिए अपराधी को दण्डित न किया जाये, उसे सुधारने का प्रयास किया जाये। सुधारवादी सिद्धान्त (Reformative Theory) को हम इस सीमा तक तो स्वीकार कर सकते हैं कि अपराधियों को अमानुषिक अथवा अत्यन्त कड़ा दण्ड न दिया जाये किन्तु यह कहना कि अपराधी मानसिक वृष्टि से अस्वस्थ होते हैं, ठीक नहीं है। अधिकांश अपराध उन लोगों द्वारा किये जाते हैं जो औसत व्यक्ति से कहीं अधिक होशियार होते हैं। बहुत-सोच-समझकर अपराध की योजना बनाते हैं। अतः बाल-अपराधियों अथवा पहली बार साधारण सा अपराध करने वालों के सम्बन्ध में तो यह बात उचित दिखाई देती है कि उन्हें मामूली दण्ड देकर छोड़ दिया जाये किन्तु अधिकांश अपराधियों के विषय में इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

ऐसे भी विचारक है जो अपराध को सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जानी चाहिए कि किसी को भी भोजन, कपड़े व आवास का अभाव न रहे। इन विचारकों का सुझाव स्वागत योग्य है किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने अपराधों को समाज के अपराध मानकर यह कहने लगे कि उसे दण्डित न किया जाये। एक-से वातावरण व एक-सी परिस्थितियों में रहने वाले सभी लोग तो अपराधी नहीं होते। इसके अतिरिक्त, अमेरिका आदि उन देशों में जहाँ रहन सहन का स्तर बहुत ऊँचा है, अपराधों की संख्या इतनी अधिक क्यों है? यह ठीक है कि न्यायाधीशों को दण्ड का निर्धारण करते समय अपराधी की परिस्थितियों पर ध्यान देना चाहिए किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि केवल इसी आधार पर दण्ड का निर्धारण किया जाये।

जहाँ तक दण्ड के प्रतिकारी सिद्धान्त (Retributive Theory of Punishment) का प्रश्न है, उसका इन अर्थों में तो कोई मूल्य नहीं है कि लोगों को अपराधी से स्वयं बदला लेने का अधिकार होना चाहिए। हम इस सिद्धान्त को इस रूप में भी स्वीकार नहीं कर सकते कि आँख फोड़ने वाले की खाँखे फोड़ दी जायें किन्तु इस सिद्धान्त को इस रूप में अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि अपराध के स्वरूप और दण्ड की मात्रा में उचित अनुपात स्थापित करने का प्रयास किया जाये। साधारण अपराध के लिए अत्यधिक कठोर दण्ड देना अथवा गम्भीर अपराधों की उपेक्षा करना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता।

कुछ अपराध ऐसे भी होते हैं जिनके सम्बन्ध में दण्ड के निरोधात्मक सिद्धान्त (Deterrent. Theory of Punishment) को ही न्यायसंगत माना जायेगा। इस सिद्धान्त के मानने वालों का कहना है कि इतना कठोर दण्ड दिया जाये कि दण्डित व्यक्ति को देखकर अन्य व्यक्ति उस प्रकार का उपराध करने का साहस न करें। देशद्रोह, आगजनी, डाका व हत्या प्रत्येक देश में बहुत गम्भीर अपराध माने गये हैं जिनके लिए अपराधी को साधारणतया मृत्यु दण्ड दिया जाता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि दण्ड के किसी एक सिद्धान्त को ही न्यायमुक्त नहीं माना जा सकता। दण्ड का उद्देश्य अपराधी को दण्डित करना है किन्तु साथ ही उसे सुधारने का भी प्रयास किया जाता है और अधिकारियों का एक बहुत प्रयत्न यह रहता है कि सामाजिक व्यवस्था को मंग होने से बचाया जाय।

(iv) अधिकार और कर्त्तव्य ( Rights and Duties ) –

न्याय का तकाजा है कि सभी को समान अधिकार उपलब्ध होंगे और उनके कर्तव्य भी एक जैसे होंगे। जन्म, जाति, रंग, भाषा या इसी प्रकार के अन्य किसी आधार पर किसी के भी साथ पक्षपात न किया जाये। स्त्रियों और पुरुषों को न केवल समान अधिकार दिये जायें बल्कि माताओं और उनके नवजात शिशुओं के लिए विशेष सुविधाएं जुटाई जायें।

यह स्पष्ट है कि देश और परिस्थितियों के अनुसार कानूनों, अदालतों व न्यायिक प्रक्रियाओं का स्वरूप बदलता रहता है किन्तु फिर भी, कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं जिन्हें साधारणतया सभी सभ्य राज्यों ने स्वीकार किया है।

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