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न्याय की अवधारणा के विकास | development of justice concept in Hindi

न्याय की अवधारणा के विकास | development of justice concept in Hindi
न्याय की अवधारणा के विकास | development of justice concept in Hindi

न्याय की अवधारणा के विकास का वर्णन कीजिये।

न्याय की अवधारणा के विकास | development of justice concept in Hindi

न्याय की अवधारणा के विकास को निम्न आधारों पर समझा जा सकता है—

1. न्याय के सम्बन्ध में यूनानी विचारकों की धारणा (Greek Notion of Justice ) –

प्लेटो की कृति ‘रिपब्लिक’ के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन यूनान के सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएँ प्रचलित थीं। कुछ लोगों के अनुसार, “सत्य बोलना तथा ऋण की अदायगी ही न्याय था” कुछ लोग यह मानते थे कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित अधिकार दिया जाये तथा कुछ ऐसे भी विचारक थे जिनके मतानुसार ‘न्याय’ और ‘शक्ति’ एक ही वस्तु के नाम है। दूसरे शब्दों में, “शक्ति ही उचित सत् है।” (Might is right) प्लेटो ने इन सभी धारणाओं का खण्डन किया है। उसका मत है कि राज्य व्यक्ति का ही वृहत् रूप है (State is an indivudual writ large)। जिस प्रकार मानव जीवन के तीन पहलू हैं—बुद्धि, बल तथा क्षुधा ( Reason, Spirit and Appetite), उसी प्रकार राज्य में भी तीन वर्ग होते हैं— शासक वर्ग, सैनिक वर्ग तथा उत्पादक वर्ग (Rulers, Soldiers and the Producing Classes ) । इन तीनों वर्गों के अपने पृथक-पृथक कर्त्तव्य हैं। उनका पालन करना ही न्याय है। एक न्यायपूर्ण समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्य का पालन करता है, वह दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता। गीता में जिसे ‘स्वधर्म का पालन’ कहा गया है, कुछ-कुछ वैसी ही बात प्लेटो ने भी कही है।

प्लेटो का सिद्धान्त वैसे तो बहुत रोचक प्रतीत होता है किन्तु उस पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह ‘लोकतन्त्र’ का नहीं बल्कि कुलीनतन्त्र का समर्थक था। उसके मतानुसार कृषक, मजदूर, व्यवसायी, दास इत्यादि, जो उत्पादक वर्ग के अन्तर्गत आते हैं, राजनीतिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। उनका कार्य तो केवल हल जोतना, धनोत्पादन करना तथा बिना किसी आपत्ति के शासकों की आज्ञा का पालन करना है। प्रो. सूद के शब्दों में, “इसका तो स्पष्ट तथा संक्षेप में अर्थ यह है कि वही राज्य न्यायपूर्ण है। जिसमें कि ‘शासक’ शासन करता है, ‘श्रमिक’ श्रम करता है तथा ‘दास’ ही बना रहता है।”

2. मध्ययुगीन धर्माधिकारियों का मत (Notion of the Medieveal Church)

छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक का काल मध्य युग के अन्तर्गत आता है। इस समय तक सम्पूर्ण यूरोप रोमन कैथोलिक चर्च का प्रभाव क्षेत्र बन चुका था। ईसाई धर्म के अधिकारियों का कहना था कि परमात्मा की वाणी ही न्याय है। यह वाणी चर्च या पोप द्वारा प्रकट होती है। राज्य या सरकार के केवल उन्हीं कार्यों व कानूनों को न्यायसंगत माना जा सकता है जो धर्म ग्रन्थों के अनुकूल हों। इसका आशय यह है कि ‘चर्च’ राज्य से श्रेष्ठतर है।

तेरहवीं सदी के महानतम विचारक सेंट टॉमस एक्वीनास (St. Thomas Aquinas) के अनुसार इस सृष्टि का सृजन परमात्मा ने किया है। परमात्मा न्यायकारी है अर्थात् उसके सभी कार्य न्यायसंगत होते हैं। इसीलिए कानून, न्याय, संविधान और सरकार, इन सभी का परिचालन ईसाई धर्म के शास्त्रों के अनुसार होना चाहिए। इस युग में चारित्रिक विशुद्धता (Chastiy), इन्द्रिय-संयम (Temperance), मदिरा निषेध (Prohibition), दान-पुण्य ( Charity), संविधान के अनुसार शासन (Constitutionalism) तथा राजा के विधिसम्मत कार्यों (Lawful Monarchy) को न्यायसंगत माना जाता था।

3. पुनर्जागरण से लेकर फ्रेंच राज्यक्रान्ति तक का काल (Period between the Age of Enlightenment and the French Revolution ) –

मध्य काल के अन्तिम वर्षों में यूरोप में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो रहे थे जिनमें पुनर्जागरण और धर्म- -सुधार आन्दोलन का अधिक महत्व है। पुनर्जागरण ने रूढ़ियों पर प्रहार किया और लोगों को मानसिक दासता से मुक्त किया। इस युग के साहित्यकारों ने केवल परमात्मा, धर्म और मृत्यु के बाद की बातों का उल्लेख करना ही पर्याप्त नहीं समझा। उनका उद्देश्य मनुष्य, मानवता और इस जगत की समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना था। शेक्सपीयर ने तो अपनी कृति ‘हैमलेट’ में यहाँ तक लिख डाला है कि “मनुष्य देवताओं के समान है।” धर्म-सुधार आन्दोलन ने तो पोप व चर्च की सत्ता पर बहुत कड़ा प्रहार किया है। फलस्वरूप, मानववाद (Humanism) का प्रसार हुआ। अब न्याय के सम्बन्ध में यह विचारधारा पुष्ट होने लगी है कि मनुष्य के कुछ प्राकृतिक अधिकार है जिन्हें कोई मानवी शक्ति मनुष्य से नहीं छीन सकती। जीवन और स्वतन्त्रता की सुरक्षा तथा सम्पत्ति के अधिकार को मनुष्य का न्यायमुक्त अधिकार माना गया है।

किन्तु इसी युग में राष्ट्र राज्यों का भी उदय हो गया था। इंग्लैण्ड, फ्रांस और स्पेन में राजाओं की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी थी। इसलिए शासकों की निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष करना भी न्यायसंगत समझा गया। सन् 1649 में इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स प्रथम को फाँसी की सजा दी गयी। सन् 1776 में अमेरिका ने अपनी स्वन्त्रता की घोषणा कर दी। अमेरिकी क्रान्तिकारियों को लॉक, हैरिगटन व टॉमस पेन (Thomas Pain) के विचारों से बहुत प्रेरणा प्राप्त हुई। इसके बाद फ्रांस में क्रान्ति हुई जिसका जयघोष था- स्वतन्त्रता, समानता व बन्धुता।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक यह धारणा पुष्ट हो गयी थी कि न्याय का सम्बन्ध स्वतन्त्रता, समानता व बन्धुता के सिद्धान्तों से है। फिर भी, यह मानना पड़ेगा कि अभी तक केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता व कानून के सम्मुख समानता ही न्याय के प्रधान अंग समझे जाते थे। आर्थिक विषमताओं को दूर करने पर अभी लोगों का ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाया था।

4. उपयोगितावाद-अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख (Utilitarianism Greatest Happiness of the Greatest Number)-

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उपयोगितावाद का प्रादुर्भाव हुआ। बैन्थम, जेम्स मिल तथा स्टुअर्ट मिल ने कहा है कि राजनीतिक संस्थाओं, न्यायिक प्रक्रियाओं, अदालतों तथा सामाजिक संस्थाओं का स्वरूप ऐसा हो जिससे अधिकतम लोगों को सुख की अनुभूति हो सके। बैथम ने उस युग की अदालतों और उनकी कार्य प्रणाली की बड़ी आलोचना की है। वह न्यायाधीशों की निरंकुशता पर अंकुश लगाना चाहता था। इसीलिए उसने जूरी के माध्यम से मुकदमों का निर्णय किये जाने की बात कही थी। बैन्थम चाहता था कि दण्ड देने के पीछे यह नीति रहे कि अपराधियों का सुधार हो सके। उसने जेल-सुधारों की योजना भी प्रस्तावित की थी।

उपयोगितावाद के सिद्धान्त वैसे तो बहुत रोचक है किन्तु न्याय की दृष्टि से उनमें अनेक दोष हैं। डी. डी. रफेल कहता है कि “यदि उपयोगितावाद को न्याय का मापदण्ड माना जाये तो एक वृद्ध रिटायर्ड व्यक्ति अथवा अंगहीन भूतपूर्व सैनिक के प्रति समाज का कोई भी दायित्व नहीं रहेगा।” ये व्यक्ति यदि आज समाज के लिए उपयोगी नहीं है तो इसका आशय यह नहीं है कि समाज उनकी उपेक्षा कर दे। न्याय का तकाजा है कि प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ अवश्य पूरी होनी चाहिए।

5. न्याय का मार्क्सवादी सिद्धान्त (Marxian Theory of Justice )-

लास्की (Laski) लिखता है कि “यदि कार्ल मार्क्स के हृदय को टटोला जाये तो पता चलेगा कि वह ‘न्याय की तीव्र उत्कंठा’ (Passion for justice) से प्रेरित था ।” लिण्डसे (Lindsay) ने भी लगभग ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। उसके मतानुसार, “मूलतः कार्ल मार्क्स में न्याय का भावावेग देखने को मिलता है” (His Fundamental Passion is a Passion for Justice) मार्क्स और ऐजिल्स दोनों में अत्याचार और ‘शोषण के’ विरुद्ध गहरा असन्तोष देखने को मिलता है। उनका मत है कि पूँजीवादी व्यवस्था जब तक स्थापित है, तब तक कैसा ‘न्याय’ (Justice) और कैसी ‘समानता’ (Equality) पूँजीवादी संस्थाओं को ध्वस्त करके समाजवाद की स्थापना की जा सकती है। मार्क्स और ऐजिल्स ने आर्थिक समानता (Economic Equality) को सबसे अधिक महत्व दिया है। क्रांति के बाद शुरू-शुरू में लोगों को कार्यानुसार वेतन मिलेगा किन्तु जैसे-जैसे सामाजिक सम्पदा बढ़ती जायेगी, प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार वेतन मिलने लगेगा।

जहाँ तक अपराधियों को दण्ड देने का प्रश्न है, साम्यवादी देशों में इस बात पर विशेष बल दिया जाता है कि नागरिक कड़ाई के साथ कानूनों का पालन करें। राज्य की सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना तथा कारखानों की शांति भंग करना तो बहुत गम्भीर अपराध माना जाता है जिसके लिए कठोर दण्ड दिया जाता है।

6. व्यक्तित्व सिद्धान्त (Personality Theory of Justice)

अन्त में हम लास्की. मैकाइवर तथा बार्कर के इस सिद्धान्त का उल्लेख करना चाहेंगे कि सामाजिक जीवन का लक्ष्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है। बार्कर के शब्दों में, “राज्य का लक्ष्य उन बाह्य परिस्थितियों या अवसरों को जुटाना है जिनके बिना किसी भी नागरिक की क्षमताओं का विकास नहीं हो सकता और इसी लक्ष्य को हम न्याय कहते हैं।” स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता, इन तीनों के संयोग से न्याय की सृष्टि होती है। न्याय उस व्यवस्था का नाम है जो व्यक्ति और व्यक्ति के बीच तथा व्यक्ति और समाज के बीच समन्वय स्थापित करता है।

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