थार्नडाइक का अधिगम/सीखने के नियम – Laws of Learning
किसी भी नये तथ्य को सीखने के लिए कुछ नियमों की सहायता लेनी पड़ती है। व्यक्ति दैनिक जीवन में भी कुछ नियमों के अनुसार कार्य करता है। इसी प्रकार सीखने के कुछ नियम प्रतिपादित किये गये हैं। सीखने की प्रक्रिया इन्हीं नियमों के अनुसार चलती है। बालक जब भी सीखता है तो उसे किसी-न-किसी नियम की सहायता अवश्य लेनी पड़ती है।
सीखना कोई सरल कार्य नहीं है। यह विषम प्रक्रिया है। मनोवैज्ञानिक थार्नडाइक ने कुछ नियमों को खोज की है। इन नियमों को सभी मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार लिया है। इसी कारण सीखने के नियमों को थार्नडाइक के नियमों के नाम से भी जाना जाता है। थार्नडाइक के सीखने के नियम इस प्रकार हैं-
( 1 ) तत्परता का नियम-तत्परता से हमारा आशय यह है कि अनुबन्ध के क्रियान्वित, होने से सन्तोष मिलता है। यदि अनुबन्ध क्रियान्वित नहीं हो पाता तो असन्तोष मिलता है। इस प्रकार इस नियम का आशय यह है कि बालक जिन कार्यों को सीखने के लिए या करने के लिए तत्पर है तो वह उन कार्यों को सीख लेता है। व्यक्ति को उसी कार्य को करने में आनन्द आता है जिसे करने की उसकी इच्छा होती है। इसके विपरीत यदि बालक को सीखने की इच्छा ही नहीं है और उसे सीखने के लिए विवश किया जाता है तो वह उसे सीख भी नहीं पाता। यदि बालक खेलने के लिए जाना चाहता है और उसे रोका जाता है तो उसे अप्रसन्नता होती है। परन्तु यदि उसे खेलने की अनुमति दे दी जाती है तो फिर वह प्रसन्न होता है। ऐसी दशा में वह किसी कार्य को आसानी से सीख जाता है। उसे कार्य करने में प्रसन्नता भी होती है।
इस प्रकार यह आवश्यक नहीं है कि बालक प्रत्येक शैक्षिक परिस्थिति से लाभ उठाये। बालक में जब तक स्वयं सीखने की आकांक्षा या लगन नहीं होगी, तब तक वह कुछ भी न सीख सकेगा। इसी आधार पर एक शिक्षक को पाठ पढ़ाने से बालकों को पढ़ने के लिए तैयार कर लेना चाहिए। शिक्षा एक क्रियाशील प्रक्रिया है। इसमें बालक का सहयोग आवश्यक है। यदि अध्यापक अपने कार्य में निपुण है तो वह आसानी से अपने छात्रों का सहयोग प्राप्त कर लेता है। हम दैनिक जीवन में भी ऐसा ही देखते हैं। जब बालकों को कक्षा में पढ़ाया जाता है तो पढ़ाने से पूर्ण उनको पढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। इस प्रकार पाठ सुगमता से पढ़ाया जाता है और बालक को पाठ याद भी हो जाता है। सीखने के अतिरिक्त व्यक्ति अन्य कार्य भी, जिसे उसको करने की उसकी इच्छा होती है, सरलता से कर लेता है। तात्परता के अभाव में ‘अभ्यास’ या ‘प्रभाव’ का कोई महत्व नहीं है।
( 2 ) अभ्यास का निमय- इसे ‘उपयोग’ या ‘अनुप्रयोग’ का नियम भी कहते हैं। ‘उपयोग’ या ‘अनुपयोग’ के नियम की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है।
(i) उपयोग का नियम- थार्नडाइक ने उपयोग के नियम का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- “जब किसी स्थिति या प्रतिक्रिया में परिवर्तन लाये जाने वाले सम्बन्ध बना दिये जायें और यदि अन्य वस्तुओं को उसी प्रकार रखा जाय तो उसमें सम्बन्ध की शक्ति बढ़ जाती है।
(ii) अनुपयोग का नियम-थार्नडाइक ने अनुपयोग के नियम का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- “जब स्थिति और प्रतिक्रिया में लम्बी अवधि तक कोई परिवर्तन लाने वाला सम्बन्ध नहीं बनाया जाता है तो इस सम्बन्ध की शक्ति क्षीण हो जाती है।”
थार्नडाइक का उपरोक्त नियमों से आशय यह है कि दोहराना, तथा अभ्यास सीखने में सहायक होते हैं। इसका अभाव ही विस्मृति उत्पन्न करता है अभ्यास करते-करते मनुष्य पूर्ण हो जाता है। कहावत भी है-
“करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान।”
रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।।
अभ्यास के द्वारा सीखने की शक्ति बढ़ाई जा सकती है। परन्तु यदि अभ्यास का अभाव है तो इस शक्ति में कमी आ जाती है। इस नियम के अनुसार ही शिक्षक पाठ को पढ़ाने के पश्चात दोहराता है। अभ्यास के अनुबन्ध दृढ़ होता है। अभ्यास के अभाव में अनुबन्ध कमजोर हो जाता है। इस नियम का सार यह है कि यदि कोई कार्य बार-बार दोहराया जाता है तो ज्ञान पक्का हो जाता है। अभ्यास से ही प्रतिक्रिया आदत में बदल जाती है। यदि कोई कविता याद ही जाय और दोहराई न जाय तो उसे हम भूल जाते हैं। टाइप करना, हारमोनियम बजाना और तबला बजाना आदि का ज्ञान अभ्यास के अभाव में क्षीण पड़ जाता है।
उपयोग और अनुपयोग अभ्यास के सिद्धान्त के दो रूप हैं। सीखना, तथा भूलना समानान्तर चलता है। अभ्यास से किसी बात को सीखा जाता है और धरणा किया जाता है। अनुपयोग द्वारा व्यक्ति भूल जाता है। जब रुचि के साथ अभ्यास किया जाता है तो वह अधिक प्रभावशाली हो जाता है।
( 3 ) प्रभाव का नियम- थार्नडाइक सीखने में प्रभाव को सबसे अधिक महत्व देता है। व्यक्ति को जिस कार्य को करने से सबसे अधिक सन्तोष मिलता है, वही कार्य वह बार-बार करता है। इसके विपरीत जिस कार्य को करने से उसे दुःख या पीड़ा पहुँचती है, उसे वह नहीं करना चाहता है। असन्तोष से व्यक्ति की काम करने की इच्छा शिथिल हो जाती है। सन्तोषप्रद परिणामों से उत्तेजना और प्रतिक्रिया का अनुबन्ध दृढ़ होता है। थार्नडाइक प्रभाव के नियम को प्रशिक्षण और सीखने की क्रियाओं का मूल आधार मानता है। मैक्डूगल ने प्रभाव के नियम से सम्बन्धित अनेक प्रयोग चूहों पर किये
सन् 1992 में थार्नडाइक ने अपने प्रभाव के नियम में कुछ संशोधन किया है। उसने बताया कि असन्तोष से सीखने के सम्बन्ध कमजोर नहीं होते। उसने बताया कि प्रभाव के नियम में बारम्बारता तथा नवीनता का भी विशेष महत्त्व है। व्यक्ति के जीवन में प्रथम अनुभव का मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव पड़ता है। थार्नडाइक के अनुसार प्रभाव का नियम सीखने और शिक्षण का आधारभूत निमय है। इस निमय को पुरस्कार तथा दण्ड का नियम अथवा सुख और दुःख का निमय भी कहते हैं।
जीवन में छात्र अनेक बातें इस नियम के अनुसार सीखते हैं। प्रायः बालक उन कार्यों को नहीं करते जिनमें उनको दण्ड या अपमान का भय होता है। जिन कार्यों में उनको प्रशंसा मिलने की सम्भावना रहती है, उनको वे अवश्य करते हैं। विद्यालय में जब कोई बालक किसी प्रश्न को हल कर लेता है अथवा किसी दिये हुए कार्य को पूरा कर लेता है तो उसका उत्साह बढ़ जाता है। वह और अधिक प्रश्नों को हल करने के लिए तैयार हो जाता है। यदि कोई बालक निरन्तर असफल होता है तो उसमें निराशा की भावना आ जाती है। वह और अधिक कार्य नहीं कर सकता। जो बालक परीक्षा में निरन्तर असफल होता रहता है, वह परीक्षा में बैंठने का इरादा ही छोड़ देता है।
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