पंचायती व्यवस्था पर आधारित बलवन्तराय मेहता समिति
पंचायती व्यवस्था पर आधारित बलवन्तराय मेहता समिति- भारत में ग्राम पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीनकाल में आपसी झगड़ों क फैसला पंचायतें ही करती थीं, परन्तु अंग्रेजी राज के जमाने में पंचायतें धीरे-धीरे समाप्त हो गयी और सब काम प्रान्तीय सरकारें करने लगीं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद राज्यों की सरकारें पंचायतों की स्थापना की ओर विशेष ध्यान दिया है। इसकी शुरुआत का श्रेय पं० जवाहरलाल नेहरू को है। पं० नेहरू का कहना था कि ‘गांवों के लोगों को अधिकार सौंपना चाहिए। उनको काम करने दो चाहे वे हजारों गलतियां करें। इससे घबराने की जरूरत नहीं। पंचायतों को अधिकार दो।”
नेहरू को लोकतान्त्रिक तरीकों में अटूट विश्वास था। सन् 1952 में उन्हीं की पहल पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। यह समझा गया कि इस कार्यक्रम में जनता की ओर से सक्रिय रूप से भाग लिया जाएगा, किन्तु यह कार्यक्रम सरकारी तन्त्र और ग्रामीण जनता के बीच की दूरी कम करने के उद्देश्य में विफल रहा। परिणाम यह हुआ कि गांवों के उत्थान के लिए खुद प्रयत्न करने के बजाय ग्रामीण जनता सरकार का मुंह ताकने लगी।
बलवन्त राय मेहता समिति प्रतिवेदन
सामुदायिक विकास कार्यक्रम पर काफी खर्च हो चुकने और इसकी सफलता के लम्बे चौड़े दावों के बाद इसकी जांच के लिए एक अध्ययन दल 1957 में नियुक्त किया गया। इस अध्ययन दल के अध्यक्ष श्री बलवन्त राय मेहता थे। इस दल ने सरकार को बतलाया कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम की बुनियादी त्रुटि यह है कि जनता का इसमें सहयोग नहीं मिला। अद्ययन दल की रिपोर्ट में यह कहा गया कि जब तक स्थानीय नेताओं को जिम्मेदारी और अधिकार नहीं सौंपे जाते संविधान के निदेशक सिद्धान्तों का राजनीति और विकास सम्बन्धी लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। मेहता अध्ययन दल ने 1957 के अन्त में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की कि लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु पंचायत राज संस्थाओं की तुरन्त शुरुआत की जानी चाहिए। अध्ययन दल ने इसे ‘लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण का नाम दिया।’
इस प्रकार लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण और विकास कार्यक्रमों में जनता का सहयोग लेने के उद्देश्य से ‘पंचायत राज की शुरुआत की गई। पंचायत राज व्यवस्था की तीन सीढ़ियां रही है ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत खण्ड स्तर पर पंचायत समिति या जनपद पंचायत और जिला स्तर पर जिला परिषद या जिला पंचायत ।
पंचायत राज पर अमल और कठिनाइयां एवं समस्याएं
पंचायत राज की उक्त योजना का उदघाटन सबसे पहले 2 अक्टूबर, 1959 को प्रधानमन्त्री नेहरू द्वारा राजस्थान राज्य के नागौर जिले में किया गया। इसके तुरन्त बाद इसे आन्ध्र प्रदेश में तथा क्रमशः अन्य राज्यों में अपनाया गया। 1963 तक भारतीय संघ के सभी राज्यों में ‘पंचायत राज’ की स्थापना हो गई। लगभग एक दशक तक पंचायत राज की यह व्यवस्था उचित रूप में चली, लेकिन इसके बाद स्थिति सन्तोषजनक नहीं रही।
जनता की भागीदारी पंचायत राज की समस्त व्यवस्था का मूल तत्व है और पंचायत राज को लोकतन्त्र का मूल आधार तभी कहा जा सकता है, जबकि इन गठन एवं समस्त कार्य संचालन लोकतन्त्रीय आधार पर हो । भारतीय संघ के अधिकांश राज्यों, विशेषतया उत्तर भारत के राज्यों में, इस व्यवस्था में अनेक समस्याओं ने घर कर लिया। कुछ राज्यों में तो व्यवहार में एक दशक से भी अधिक समय तक, पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव ही नहीं हुए।
ऐसी स्थिति में केन्द्रीय सरकार के स्तर पर यह सोचा गया कि पंचायत राज की व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि पंचायत राज की व्यवस्था उचित रूप में कार्य कर सके और राज्य सरकारें इन संस्थाओं के चुनाव नियमित रूप से करवाने के लिए बाध्य हो जाएं। इस प्रसंग में प्रथम प्रयत्न 1989 ई० में किया गया, लेकिन तत्सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा में आवश्यक बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। दसवीं लोकसभा चुनाव बाद स्थापित केन्द्रीय सरकार द्वारा पुनः इस दिशा में प्रयत्न किए गए तथा 1993 ई० में के पंचायत राज या ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन के सम्बन्ध में 73 वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया।
73 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1993
इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग, भाग 9 तथा नयी अनुसूची ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई है और पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। इस संवैधानिक संशोधन के आधार पर पंचायत राज के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से निम्न व्यवस्थाएं की गई है।
संरचना- गांव सभा- इस अधिनियम में प्राथमिक स्तर पर गांव सभा की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक गांव के सभी वयस्क नागरिकों से मिलकर बनने वाली सभा को गांव सभा का नाम दिया गया है। इस प्रकार यह ग्रामीण क्षेत्र में स्थानीय स्वशासन की प्रत्यक्ष लोकतन्त्रीय संस्था है। यह गांव सभा गांव के स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगी और ऐसे कार्यों को करेगी, जो राज्य विधानमण्डल विधि बनाकर निश्चित करे।
त्रिस्तरीय ढांचा- इस अधिनियम में गांव सभा के अतिरिक्त त्रिस्तरीय पंचायत राज संस्थाओं की व्यवस्था की गई है। पंचायत राज व्यवस्था के तीन स्तर हैं ग्राम के स्तर पर ग्राम पंचायत विकास खण्ड या मध्यवर्ती स्तर पर खण्ड समिति, क्षेत्र समिति या पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। लेकिन जिन राज्यों या संघीय राज्य क्षेत्रों की जनसंख्या 20 लाख से कम है, उन्हें स्वयं अपने सम्बन्ध में इस बात पर निर्णय लेना होगा कि मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत राज संस्था रखी जाए या नहीं।
चुनाव की विधि- पंचायत स्तर पर सभी ग्राम पंचायतों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होगा और जिला परिषद के स्तर पर अप्रत्यक्ष चुनाव होगा। मध्यवर्ती स्तर की संस्था के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष यह बात सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएंगी।
आरक्षण– ग्राम पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित किए गए हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संस्था जनसंख्या के अनुपात में होगी। महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था पहली बार की गई है और अब ग्राम पंचायतों में कम-से-कम 30 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की जो संख्या होगी उनमें भी 30 प्रतिशत स्थान उन जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और स्त्रियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था ग्राम पंचायतों में अध्यक्ष पद (सरपंच) के लिए भी की गई है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सम्बन्ध में अध्यक्ष पद के लिए उसी अनुपात में स्थान आरक्षित होंगे, जिस अनुपात में उस क्षेत्र में उनकी जनसंख्या है। ग्राम पंचायतों में अध्यक्ष पदों की कुल संख्या के 1/ 3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। प्रत्येक खण्ड में ग्राम पंचायत के अध्यक्ष पद पर महिलाओं के लिए यह आरक्षण ‘चक्रानुक्रम’ (By rotation) से आबंटित किया जाएगा।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए यह आरक्षण उस अवधि तक प्रभावी रहेगा, जिस अवधि तक अनुच्छेद 334 के अधीन उन्हें आरक्षण प्राप्त है। 79वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार वर्तमान समय में यह अवधि 25 जनवरी 2010 ई0 तक है। महिलाओं के लिए आरक्षण की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
राज्य विधानमण्डल को यह अधिकार होगा कि यदि वह उचित समझे तो ग्राम पंचायत में अध्यक्ष पद पर अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सके। अनुसूचित जातियां, जनजातियां या महिलाएं, जिनके लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था की गई है, उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव लड़ने का अधिकार होगा।
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