साम्यवाद का अर्थ
साम्यवाद को कई मार्क्सवादी समाजवाद भी कहते हैं। समाजवाद तथा साम्यवाद ये दोनों ही विचारधारा मानव मात्र की समानता विशेषतः आर्थिक समानता के विचार पर आधारित हैं और इसलिए प्रायः कई व्यक्ति इन्हें एक ही समझने की भूल कर लेते हैं। यथार्थ में इनके उद्देश्य, साधन कार्यक्षेत्र तथा पद्धति में बहुत अधिक अन्तर है। स्वयं मार्क्स कहते हैं, ‘समाजवाद साम्यवाद की प्रथम सीढ़ी है। यह उसकी मंजिल के आधे के विभिन्न रूपों में साम्यवाद उसका एक प्रमुख रूप है। यद्यपि साम्यवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स थे, किन्तु विभिन्न देशों में इसके
स्वरूपों में भेद पाया जाता है। रूस में लेनिन स्टालिन एवं खुश्चेब ने तथा चीन में माओत्से तुंग ने अपने-अपने ढंग से साम्यवाद की व्याख्या की। स्थानीय भिन्नता के बावजूद भी कुछ विशेषताएं ऐसी हैं जो सभी साम्यवादी स्वीकार करते हैं, जैसे सभी साम्यवादी सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक समानाता पर बल देते हैं। साम्यवाद समाज की वह व्यवस्था है, जहां पर राज्य और वर्गों की अनुपस्थिति हो तथा उत्पादन के समस्त साधनों पर समाज का नियन्त्रण हो । साम्यवाद को एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था भी कहा जा सकता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम आवश्यकता की वस्तुएं प्राप्त होंगी तथा प्रत्येक व्यक्ति को उसके कार्य और योग्यतानुसार पारिश्रमिक मलेगा। साम्यवादी घोषणा-पत्र’ में कहा गया है, ‘साम्यवाद अपने शाब्दिक अर्थ में क्रान्तिकारी प्रणाली का सिद्धान्त है। वह उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जिनके आधार पर पूँजीवाद को साम्यवाद में बदला जा सकता है।’ इसके दो आवश्यक सिद्धान्त हैं- वर्ग संघर्ष तथा सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रान्ति जिसका अर्थ है हिंसात्मक ढंग से सत्ता प्राप्ति ।
साम्यवाद उत्पादन, वितरण तथा उपभोग इन तीनों से सम्बन्धित साधनों पर समान स्वामित्व की मांग करता है। साम्यवाद चाहता है कि लोग मिल-जुलकर सहकारी ढंग से उत्पादन करें और सामूहिक रूप से ही उसका उपभोग करें। साम्यवाद हिंसात्मक साधनों द्वारा तत्काल पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त कर देना चाहता है। साम्यवाद राज्य को शोषण का एक ऐसा यन्त्र मानता है जिसकी सहायता से पूँजीपति वर्ग मजदूर वर्ग का शोषण करता है। अतः यह राज्य का अन्त कर देने के पक्ष में हैं कि वे मानते हैं कि साम्यवाद की स्थापना होने पर राज्य अपने आप विलुप्त हो जाएगा। साम्यवाद धर्म-विरोधी विचारधारा भी है। यह धर्म को जनता के लिए अफ्रीम मानता है। यह प्रजातन्त्र के भी विरुद्ध है तथा मजदूरवर्ग की तानाशाही का समर्थक है। साम्यवाद यह मानता है कि पूंजीपति व श्रमिकों में युद्ध अवश्यम्भावी है जिसका स्वाभाविक परिणाम साम्यवाद की स्थापना है। साम्यवादी समाज एक पूर्ण स्वतन्त्र समाज होगा तथा उसमें व्यक्ति पर किसी बाहरी बन्धन या नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं होगी। ऐसी स्थिति में शक्ति के प्रतीक राज्य की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी और वह स्वयं ही समाप्त हो जाएगा, किन्तु संक्रान्ति काल में राज्य की आवश्यकता होगी। इस प्रकार साम्यवाद श्रम की अनिवार्यता, उत्पादन के साधनों पर राज्य के स्वामित्व, उन्नति के अवसरों की समानता, व्यक्ति की अपेक्षा राज्य को महत्व एवं नियोजन, आदि पर जोर देता है।
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