जटिल समाज के सामाजिक आर्थिक निर्धारण
जटिल (आधुनिक) समाजों की अर्थव्यवस्था में हमें निम्नांकित आर्थिक संस्थाएं देखने को मिलती हैं-
1. सम्पत्ति (Property ) – सम्पत्ति प्राचीन एवं आधुनिक सभी युगों में एक प्रमुख आर्थिक संस्था रही है। सामन्तवादी व्यवस्था में भूमि सम्पत्ति का प्रमुख स्वरूप थी। रोम में सम्पत्ति एक वैध संस्था थी। सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में भी सभी समाजों में प्रथाएं एवं कानून पाए जाते हैं। सम्पत्ति वैयक्तिक एवं अवैयक्तिक, भौतिक तथा अभौतिक चल तथा अचल हो सकती है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सम्पत्ति के व्यक्तिगत अधिकारों पर तो समाजवादी व्यवस्था में सम्पत्ति के सामूहिक स्वामित्व के अधिकारों पर जोर दिया जाता है। हम सम्पत्ति पर आगे विस्तार से विचार करेंगे ।
2. द्रव्य एवं साख (Money and Credit ) — द्रव्य और साख का प्रचलन रोमन काल से ही रहा है। मध्य युग के अन्त तक मुद्रा का प्रचलन बड़ा सीमित था और ब्याज लेने की मनाही थी। साख का प्रचलन आधुनिक युग की ही देने है। प्रारम्भ में वस्तु विनिमय ही प्रचलित था, किन्तु आज तो प्रत्येक वस्तु का लेन-देन मुद्रा में होने लगा है। लगभग सभी देशों में धातु एवं कागज की मुद्रा का प्रचलन पाया जाता है। व्यापार का अधिकांश कार्य आज साख के द्वारा किया जाने लगा है। यदि सारा व्यापार धातु की मुद्रा में ही किया जाएं तो एक समस्या पैदा होग जाएगी। साख के कारण ही विशाल एवं विस्तृत मात्रा में विश्व व्यापार सम्भव हुआ है। बैंक द्रव्य एवं साख की व्यवस्था करने वाली प्रमुख संस्था है।
3. फैक्टरी प्रणाली (Factory System ) — औद्योगिक क्रान्ति से पूर्व उत्पादन छोटे पैमाने पर होता था। उद्योगों में जड़ शक्ति (पेट्रोल कोयला, बिजली अणुशक्ति) एवं मशीनों के प्रयोग ने भीमकाय कारखानों को जन्म दिया और उत्पादन विशाल पैमाने पर होने लगा। आज मानव का स्थान मशीन ने ले लिया है और उत्पादन कम समय में अधिक मात्रा में होने लगा है। आज हमारे उद्योग विशाल उत्पादक के रूप में जाने जाते हैं और ये प्रमुख आर्थिक संस्था बन गए हैं।
4. निगम ( Corporation )- बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए अधिक धन चाहिए जिसे एक अकेला व्यक्ति जुटाने में असमर्थ होता है। अतः बड़ी मात्रा में पूंजी एकत्रित करने के लिए विभिन्न प्रकार के निगमों, कम्पनियों एवं संगठनों की स्थापना की जाती है। एक कम्पनी अपने अधीन कई कम्पनियों की देख-रेख एवं नियन्त्रण करती है। वही श्रम की नीति, आय का वितरण, वस्तु की कीमत, आदि तय करती है। अपने अधीन काम करने वाली कम्पनियों के लिए बड़ी कम्पनी इंजीनियर, आदि की व्यवस्था करती है एवं वस्तु के सस्ते उत्पादन में सहयोग देती हैं
5. मजदूरी प्रणाली (Wage System)- औद्योगिक क्रान्ति के बाद मजदूरी प्रणाली एक सुदृढ़ व्यवस्था बन गयी है। इसने मजदूर एवं मालिक के बीच एक खाई भी पैदा कर दी है और श्रम एवं पूंजी में संघर्ष उत्पन्न हो गया है। मजदूरी प्रणाली प्रणाली दो प्रकार की पायी जाती है—(i) जितना काम उतना दाम सिद्धान्त के आधार पर तथा (ii) समय के आधार पर (Time Wages) । प्रत्येक कारखाने में सुविधानुसार इनमें से कोई भी एक प्रणाली अपना ली जाती है। A
6. मजदूर संघ एवं मालिक संघ (Labour Unions and Associations of Employers ) – आधुनिक मजदूरी प्रणाली में मालिक एवं मजदूरों के हित टकराने लगे तो दोनों ने अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बनाए। मजदूर अपने श्रम की अधिकाधिक मजदूरी चाहता है। काम के घण्टे तय करवाने तथा बोनस भत्ता, आवास, नल, बिजली एवं छुट्टियों की सुविधाएं पाने के लिए वे अपने श्रमिक संघों के माध्यम से मालिकों से संघर्ष करते हैं। मालिक कम मजदूरी देकर अधिक लाभ कमाना चाहते हैं, अतः वे भी अपना संगठन बनाते है। इस प्रकार मजदूर संघ एवं मालिक संघ आज की प्रमुख आर्थिक संस्थाएं बन गए हैं।
7. ठेका ( Contract) – आधुनिक युग में कई कार्य जैसे, सड़क निर्माण, पुल निर्माण, भवन निर्माण, आदि ठेके पर होने लगे हैं। ठेके से सम्बन्धित भी कई प्रथाएं एवं कानून बने हुए हैं। कानूनों का उल्लंघन करने पर न्यायालय की शरण ली जा सकती है। ठेके के कार्य के लिए टेण्डर आमन्त्रित किए जाते हैं। व्यापार में अनेक कार्य आज ठेके पर होने लगे हैं।
8. प्रतियोगिता (Competition )- आज के युग में क्रेताओं, विक्रेताओं, निर्माताओं, आदि में प्रतियोगिता पायी जाती है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तो यह एक प्रमुख विशेषता है। समाजवादी व्यवस्था में भी उपयोगिता पायी जाती है, किन्तु पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरह गला काट प्रतियोगिता (Cut throat competition) नहीं। प्रतियोगिता से लाभ एवं हानि दोनों ही है।
9. एकाधिकार (Monopoly )– पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में एकाधिकार भी एक प्रमुख संस्था है। मध्य युग में बड़ी मात्रा में वस्तुएं खरीदने एवं एकत्रित करके रखने पर रोक थी। औद्योगीकरण ने एकाधिकार को विकसित किया है। एकाधिकार में कोई भी व्यक्ति, कम्पनी या समूह किसी भी वस्तु के उत्पादन एवं व्यापार में एकाधिकार स्थापित कर लेता है और वस्तु को मनमाने भाव पर बेचता है। इससे एकाधिकार करने वाले को तो लाभ होता है, किन्तु खरीददार को हानि उठानी पड़ती है। समाजवादी व्यवस्था में व्यक्ति के एकाधिकार को समाप्त कर सरकार का एकाधिकार कायम किया जाता है।
10. सहयोग (Co-operation )- आज के युग में बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिए मालिक एवं मजदूर तथा क्रेता और विक्रेता में सहयोग बहुत आवश्यक है। क्रेता एवं विक्रेता के बीच दलालों को समाप्त करने के लिए सहकारी समितियों की स्थापना की गयी है। अनेक क्षेत्रों में उत्पादन का कार्य सहकारिता के आधार पर किया जाने लगा है। सहकारी समितियां उपभोक्ताओं को उचित दामों पर वस्तुएं उपलब्ध कराती है और लाभ का बंटवारा समान रूप से अंशधारियों (Shareholders) में करती है।
11. विशेषीकरण (Specialization ) – विशेषीकरण आज की अर्थव्यवस्था की प्रमुख संस्था है। तकनीकी उन्नति के साथ-साथ आर्थिक कार्यों में विशेषीकरण बढ़ता गया। विशेषीकरण में एक व्यक्ति किसी एक ही कार्य का विशेषज्ञ होता है। इसमें कार्य तीव्र गति से एवं दक्षतापूर्ण होता है, किन्तु पारस्परिक निर्भरता बढ़ जाती है। आज हमें अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में विशेषीकरण देखने को मिलेगा।
12. श्रम विभाजन ( Division of Labour ) — कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने के लिए कार्य को छोटे-छोटे टुकड़ों में अलग-अलग शइयों एवं व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जिसे श्रम-विभाजन कहते हैं। फैक्टरी प्रणाली में श्रम विभाजन के बिना उत्पादन कार्य सम्भव नहीं है।
13. वितरण प्रणाली (Distribution System ) — उत्पादित वस्तु का वितरण किस प्रकार से हो, इस सम्बन्ध में भी प्रत्येक प्रकार की अर्थव्यवस्था में कुल प्रथाएं एवं नियम पाए जाते हैं। फैक्टरी प्रणाली में एक स्थान पर उत्पादन होता है, अतः उसके उचित वितरण की व्यवस्था अति आवश्यक हो जाती है।.
14. बाजार एवं विनियम ( Market and Exchange ) – बाजार वह स्थान है जहां वस्तुओं का क्रय विक्रय होता है, वस्तुओं के भाव तय होते हैं एवं पैसों का लेन-देन होता है। बाजार स्थायी, सामान्य एवं विशिष्ट तथा छोटे-बड़े अनेक प्रकार के हो सकते हैं। बाजार में वस्तुओं का विनिमय वस्तु के बदले या मुद्रा के बदले हो सकता है, किन्तु वर्तमान समय में वह कार्य साख बैंक एवं मुद्रा के द्वारा किया जाता है।
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