दलीय व्यवस्था की विशेषताएँ
आज की परिस्थितियों में दलीय व्यवस्था की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख निम्न रूपों में किया जा सकता है-
(1) बहुदलीय व्यवस्था- भारत में ब्रिटेन या अमेरिका की तरह द्विदल पद्धति नहीं, वरन् बहुदलीय पद्धति है। चौदहवीं लोकसभा में 40 से अधिक और राज्यों की विधानसभाओं में कुल मिलाकर 50 से अधिक राजनीतिक दल है। इनमें से कुछ को छोड़कर अन्य के पास कोई नीति-अथवा कार्यक्रम नहीं है। कुल राजनीतिक दलों का संगठन और स्वरूप केवल कहने के लिए है और इनका प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित है। भारत की बहुदलीय व्यवस्था में लगभग सदैव ही किसी एक राजनीतिक दल को प्रधानता की स्थिति प्राप्त रहीं है, लेकिन आज स्थिति यह है कि किसी एक राजनीतिक दल या दलीय गठबन्धन को प्रधानता की स्थिति प्राप्त नहीं है। लोकसभा में प्राप्त स्थानों की दृष्टि से कांग्रेस सबसे बड़ा दल लेकिन यह दल भी प्रधानता की स्थिति से बहुत दूर है।
बहुदलीय व्यवस्था का वर्तमान में जो रूप है, उसके कारण लोकसभा चुनाव ‘खण्डित जनादेश’ (Fractured Mandate) ही प्राप्त हो जाता हैं ‘खण्डित जनादेश’ का आशय है, लोकसभा में किसी एक राजनीकि दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो। ऐसी स्थिति में एकदलीय सरकार का नहीं, वरन् मिली-जुली सरकार का ही गठन हो पाता है।
(2) राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन और दलीय व्यवस्था में अस्थायित्व – भारतीय राजनीति में न केवल अनेक दल है, वरन् इन राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन और अस्थायित्व की स्थिति भी बनी हुई हैं। सर्वप्रमुख राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 1969 ई. में विभाजन हुआ और इस विभाजन से जन्म लेने वाल राजनीतिक दल सत्ता कांग्रेस का 1978 में 1978 के विभाजन से जिस ‘कांग्रेस (आई)’ का जन्म हुआ था, उसका विभाजन 1995 तथा 1999 ई. में हुआ। 1977 में सत्तारूढ़ जनता पार्टी कालान्तर में चार भागों में विभक्त हो गई। ‘विभाजन और विलय’ की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1988 में जनता दल की स्थापना हुई और कुछ समय के लिए इस दल ने एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप प्राप्त कर लिया, लेकिन नबम्बर ’90 में जनता दल में विभाजन की स्थिति बनी तथा इसके बाद से जनता दल में बिखराव और विभाजन की प्रक्रिया निरन्तर जारी है। न केवल तथाकथित राष्ट्रीय दल वरन् डी. एम. के. अकाली दल और केरल कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दल भी अनेक भागों में विभक्त है। स्थिति यह है कि आज एक राजनीतिक दल जन्म लेता है कल उसमें टूटने, समाप्ति या अन्य किसी दल में उसके विलय की स्थिति पैदा हो जाती है। इस प्रकार राजनीतिक दलों में कोई स्थायित्व नहीं है और राजनीतिक चित्र में अस्पष्टता बनी हुई है। भारत में दलीय व्यवस्था की निश्चित रूप से यह एक बड़ी विकृति है।
(3) अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र और अनुशासन का अभाव – राजनीतिक दलों के प्रसंग में एक खेदजनक तथ्य यह है कि अधिकांश राजनीतिक दलों में ‘आन्तरिक लोकतन्त्र’ का अभाव है और वे अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों में लम्बे समय से संसदात्म्क चुनाव नहीं हुए थे सब कुछ ‘तदर्थ आधार’ (Adhoc basis ) की पद्धति के आधार पर चल रहा था, चुनाव आयोग के निर्देश के कारण पहली बार मई-जून 1997 में, दूसरी 2000 ई. में, तीसरी बार 2003 – में राजनीतिक दलों के संगठनात्मक चुनाव सम्पन्न हुए तथा चौथी बार मार्च-मई 2005 ई. में संगठनात्मक चुनावोंकी प्रक्रिया प्रारम्भ हुईं। लेकिन इन चुनावों में निश्चित रूप से अनेक कमियां रहीं। सामान्य स्थिति यह है कि दलों का निर्माण किन्हीं प्रक्रियाओं, मर्यादाओं, सिद्धान्तों या कानूनों के आधार पर नहीं होता है और दलों की आय व्यय का कोई लेखा-जोखा सदस्यों के सामने प्रस्तुत नहीं किया जाता।
( 4 ) संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली, लेकिन विभाजित विपक्ष- 1967-70 तथा 1977-79 के काल को छोड़कर भारतीय राजनीति में सामान्यतया कमजोर और विभाजित विपक्ष की स्थिति ही रही है, लेकिन नौवीं, दसवीं, ग्याहरवीं, बारहवीं, तेरहवी और चौदहवीं लोकसभा के चुनावों ने (1989 से 2006 के काल में विपक्ष को संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली बनाया है।
बारहवीं और तेरहवी लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार का गठन हुआ और मुख्य विपक्षी दल की स्थिति कांग्रेस ने प्राप्त की। बारहवीं तथा तेरहवीं लोकसभा में विपक्ष संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली होते हुए भी एक कमजोरी से पीड़ित था और वह कमजोरी थी, विपक्ष का विभाजित होना विपक्ष की इसी विभाजित स्थिति के कारण अप्रैल ‘99 में विपक्ष में बाजपेयी सरकार तो गिरा दी, लेकिन वह देश को वैकल्पिक सरकार नहीं दे पाया। 14वीं लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल की स्थिति भाजपा की प्राप्त है और विपक्षी गठबन्धन के रूप में ‘राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन’ है तथा इस प्रकार यह न केवल शक्तिशाली वरन् संगठित भी है। राज्य स्तर पर भी अधिकांश राज्यों में विपक्ष पर्याप्त शक्तिशाली है।
( 5 ) क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि- नवीन संविधान लागू किए जाने के कुछ वर्ष बाद से ही भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व रहा है। प्रमुख क्षेत्रीय दल रहे हैं – द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना डी. एम. के.) अकाली दल, मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, केरल कांग्रेस, शिवसेना, तेलुगूदेशम और नेशनल कान्फ्रेंस, आदि। इसके अतिरिक्त नगालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम में तो नगालैण्ड लोकतान्त्रिक दल, मणिपुर पीपुल्स पार्टी और सिक्किम डेमाक्रेटिक फ्रण्ट, आदि क्षेत्रीय दल ही प्रभावशाली है। –
अब तक स्थिति यह थी कि क्षेत्रीय दल लोकसभा चुनाव में अपनी शक्ति और प्रभाव का सीमित परिचय ही दे पाते थे, लेकिन ग्याहरवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों की शक्ति में भारी वृद्धि हुई है। ग्यारहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों ने 125, बारहवीं लोकसभा में 170, तेरहवीं लोकसभा में कुन मिलाकर 190 से अधिक और चौदहवी में लोकसभा में क्षेत्रीय दलों और अन्य पंजीकृत दलों ने 171 स्थान प्राप्त किए हैं। 1996 से लेकर अब तक केन्द्र में जो भी सरकारें बनीं, उन सभी सरकारों के गठन तथा कार्यकरण में क्षेत्रीय दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस प्रकार क्षेत्रीय दलों या गुटों ने भारतीय राज व्यवस्था में निर्णयकारी स्थिति प्राप्त कर ली हैं।
( 6 ) दलों में आन्तरिक गुटबन्दी भारत की दल प्रणाली की एक प्रमुख (ज वस्तुतः बड़ी बुराई है) विभिन्न दलों में आन्तरिक गुटबन्दी है। लगभग सभी राजनीतिक दलों में छोटे-छोटे गुट पाए जाते है : एक वह जो सत्ता या संगठन के पदों पर आसीन है और दूसर असन्तुष्ट गुट। इन गुटों में पारस्परिक मतभेद इस सीमा तक पाया जाता है कि कभी-कभी चुनावों में एक गुट के समर्थन प्राप्त उम्मीदवारों को दूसरे गुट के सदस्य पराजित करने का भरसक प्रयत्न करते है। कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों में यही स्थिति है। विशि विचारधारा पर आधारित मार्क्सवादी दल और अन्य वामपंथी दल भी गुटबन्दी से मुक्त नहीं है तथा सभी क्षेत्रीय दल भी आन्तरिक गुटबन्दी से गम्भीर रूप से ग्रस्त हैं। पश्चिमी देशों मेंराजनीतिक दलों की तुलना में भारत के राजनीतिक दलों में गुटबन्दी बहुत तीव्र है। शासक दल और अन्य दलों में गुटबन्दी की यह स्थिति भारतीय राजनीति का अभिशाप बनी हुई है।
( 7 ) राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रम में स्पष्ट भेद का अभाव– भारत के राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रमों में स्पष्ट भेद का अभाव है और इसी कारण वे जनता के सम्मुख स्पष्ट विकल्प प्रस्तुत करने में असफल रहे है। वस्तुतः राजनीतिक दलों की नीतियां और कार्यक्रम अत्यधिक अस्पष्ट और अनिश्चित है। कुछ राजनीतिक दलों के पास अपना कोई निश्चित कार्यक्रम न होने के कारण उनके द्वारा अनावश्यक रूप में आन्दोलनकारी राजनीति को अपनाया जाता है और विघटनकारी तत्वों को प्रोत्साहित किया जाता है। आज स्थिति यह है कि आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम नहीं वरन् ‘मन्दिर-मस्जिद विवाद’ और जातिवादी गठजोड़ सामान्य जल की भाषा में कमण्डल और मण्डल’ राजनीतिक दलों की पहचान बन गए है। वस्तुस्थिति यह है कि सत्ता ही सभी राजनीतिक दलों का असली धर्म है।
(8) राजनीतिक दल-बदल- भारत में दल-बदल की स्थिति सदैव से विद्यमान रहीं है, लेकिन 1967 से 70 और पुनः 1977-79 के वर्षो में यह प्रवृत्ति बहुत अधिक भीषण रूप में देखी गई। दलबदल राजनीतिक अस्थिरता का कारण और परिणाम, दोनों ही रहा है और इसने राजनीतिक वातावरण को दूषित करने का की कार्य किया है। अतः लम्बे समय से दल बदल पर रोक लगाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी और जनवरी 1985 में भारतीय संविधान में 52वां संवैधानिक संशोधन कर दल-बदल पर कानूनी रोक लगा दी गई, लेकिन इस कानून में प्रावधान है कि एक राजनीतिक दल के विभाजन और एक राजनीतिक दल के दूसरे राजनीतिक दल में विलय को दल-बदल नहीं समझा जाएगा ऐसी स्थिति में विभाजन और विलय के नाम पर दल-बदल की स्थिति बनी रहीं। 91 वें संवैधानिक संशोधन (2003) के आधार पर दल-बदल पर पूर्णतया रोक लगाने की चेष्टा की गई है, लेकिन अब भी एक राजनीतिक दल के दूसरे राजनीतिक दल में विलय के नाम पर दल बदल किया जा सकता है और किया जा रहा हैं। विधानसभा सदस्यों के दल-बदल के बाद इस बात को लेकर कानूनी और राजनीतिक विवाद जन्म लेते है कि यह स्थिति दल-बदल है या विधि सम्मत विभाजन और विलय। वस्तुतः दल-बदल पर प्रभावी रोक तभी सम्भव है जबकि राजनीतिक दल विशिष्ट विचारधारा पर आधारित हों, संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर उनकी संख्या को सीमित नियन्त्रित किया जाए ओर सभी राजनीतिक दल आधार संहिता को अपनायें।
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