राज्यस्तरीय दल अर्थात क्षेत्रीय दल
राज्य दल (राज्यस्तरीय दल) की मान्यता का आधार- चुनाव चिन्ह (संरक्षण और आबण्टन) आदेश 1968 में चुनाव आयोग द्वारा 2 दिसम्बर, 2000ई० को महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए थे, अब 14 मई, 2005 ई० को इसमें पुनः परिवर्तन किए गए हैं। इस आदेश के अनुसार राज्य दल की मान्यता तभी प्राप्त होगी, जबकि वह दल निम्नांकित में से कोई एक शर्त पूरी करता हो ।
(i) राजनीतिक दल विधानसभा के गत आम चुनाव में राज्य विशेष में कुल प्रयुक्त वैध मतों का कम-से-कम 6 प्रतिशत प्राप्त कर ले तथा उसे उस राज्य की विधानसभा में कम-से-कम दो स्थान प्राप्त हों।
(ii) उस राजनीतिक दल के उम्मीदवार सम्बन्धित राज्य में लोकसभा के गत आम चुनाव में कुछ प्रयुक्त वैध मतों का कम-से-कम 6 प्रतिशत प्राप्त कर ले तथा इसके साथ उस दल का कम-से-कम एक सदस्य उस राज्य से लोकसभा के लिए निर्वाचित हो।
(iii) वह राजनीतिक दल विधानसभा के गत आम चुनाव में विधानसभा के कम-से कम 3 प्रतिशत स्थान या कम-से-कम तीन स्थान इन दोनों में से जो अधिक हो, वह प्राप्त कर ले।
यह भी उल्लेख किया गया है कि इस विज्ञप्ति को मार्च, 2004ई० से कार्य रूप में लागू समझा जाए।
ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा चुनाव की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति राज्य दलों की शक्ति में भारी वृद्धि है। राष्ट्रीय दलों और क्षेत्रीय दलों की शक्ति में समय-समय पर भारी परिवर्तन होता रहा है और परिवर्तन होता रहेगा। आज जिस राजनीतिक दल को केवल एक राज्य में राज्य दल की स्थिति प्राप्त है, उसे आगे चलकर एक से अधिक राज्य में राज्य दल की स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा इससे आगे बढ़कर वह राष्ट्रीय दल की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार निर्धारित मापदण्ड की दृष्टि से जन समर्थन में कमी आने पर राष्ट्रीय दल, राष्ट्रीय दल की स्थिति और राज्य दल की स्थिति खो देता है।
क्षेत्रीय दलों ( राज्य दलों) के लक्षण
1. इनकी शक्ति प्रमुख रूप से उस राज्य विशेष तक सीमित होती है जिस राज्य में उन्हें क्षेत्रीय या राज्य दल की मान्यता प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए जनता दल (यू) का प्रमुख प्रभाव क्षेत्र बिहार राज्य और समाजवादी दल का प्रमुख प्रभाव क्षेत्र उत्तर प्रदेश राज्य है।
2. क्षेत्रीय दल नीति निर्धारण में उस राज्य विशेष के हितों को या उन राज्यों के हितों को विशेष रूप से ध्यान में रखते हैं, जिस राज्य में उन्हें क्षेत्रीय दल की स्थिति प्राप्त होती है, लेकिन इस बात का यह आशय नहीं लिया जा सकता कि वे राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करते हैं।
3. केन्द्रीय सत्ता में भागीदारी प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय दल, अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ या किसी राष्ट्रीय दल के साथ सहयोग अथवा गठबन्धन की नीति और स्थितियों को अपनाते हैं। इस प्रसंग में समय-समय पर उनके द्वारा अपनी स्थिति में परिवर्तन किया जा सकता है।
4. भारतीय राजनीति में अनेक बार इस विचार को अपना लिया जाता है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता को कमजोर करते हैं। वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है। विविधताओं से भरे भारत देश में अनेक बार क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने का कार्य राष्ट्रीय दलों की तुलना में भी अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न कर पाते हैं। राष्ट्रीय दल हो या क्षेत्रीय दल, कोई दल राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा या कमजोर यह बात दल की नीति और घोषित नीति की तुलना में भी अधिक सीमा तक उसके कार्यकरण पर निर्भर करती है।
आज की परिस्थितियों में भारतीय राजनीति में अनेक क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व तथा उनकी निरन्तर बढ़ती हुई शक्ति नितान्त स्वाभाविक स्थिति है। इस स्थिति के लिए भारत के राष्ट्रीय दल, विशेष रूप से कांग्रेस और भाजपा दोनों ही राजनीतक दलों की अपूर्णताएं कमियां और दोष की उत्तरदायी हैं
क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि
नवीन संविधान लागू किए जाने के कुछ वर्ष बाद से ही भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व रहा है। प्रमुख क्षेत्रीय दल रहे हैं— द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी०एम०के०) अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना डी० एम० के०) अकाली दल, मुस्लिम मजलिस, केरल कांग्रेस, शिव सेना, तेलुगु देशम और नेशनल कान्फ्रेंस आदि । इसके अतिरिक्त नागालैण्ड, मणिपुर, मेघालय मिजोरम अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम में तो नगालैण्ड लोकतान्त्रिक दल, मणिपुर पीपुल्स पार्टी और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रण्ट, आदि क्षेत्रीय दल ही प्रभावशाली हैं।
अब तक स्थिति यह थी कि क्षेत्रीय दल लोकसभा चुनाव में अपनी शक्ति और प्रभाव का सीमित परिचय ही दे पाते थे, लेकिन ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों की शक्ति में भारी वृद्धि हुई है। ग्यारहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों ने 125 बारहवीं लोकसभा में 170 लोकसभा में कुल मिलाकर 190 से अधिक और चौदहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों और अन्य पंजीकृत दलों ने 171 स्थान प्राप्त किए हैं। 1996 से लेकर अब तक केन्द्र में जो भी सरकारें बनी, उन सभी सरकारों के गठन तथा कार्यकरण में क्षेत्रीय दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस प्रकार क्षेत्रीय दलों या गुटों ने भारतीय राज व्यवस्था में निर्णयकारी स्थिति प्राप्त कर ली है।
राज्य स्तरीय दलों ( क्षेत्रीय दलों) की शक्ति में वृद्धि के कारण
राज्यस्तरीय दलों की शक्ति में निरन्तर वृद्धि भारतीय राजनीति का एक तथ्य है तथा इन दलों के उदय और इनकी शक्ति में वृद्धि के कुछ विशेष कारण रहे हैं।
1. कांग्रेस के प्रभाव और शक्ति में कमी तथा अन्य राष्ट्रीय दलों की असफलताएं- 1966 तक कांग्रेस को लगभग सम्पूर्ण भारत में भारी प्रभाव और शक्ति प्राप्त थी, अतः केवल कुछ ही क्षेत्रीय दलों तक उदय हुआ तथा वे क्षेत्रीय दल भी अपने प्रभाव का विस्तार नहीं कर पाए। विविध कारणों से 1966 से कांग्रेस की शक्ति में कमी आना प्रारम्भ हुआ: भारतीय संघ के कुछ राज्यों में यह कमी अधिक आई० राष्ट्रीय दल कहे जाने वाले दल इस रिक्तता को भर नहीं पाए और स्वाभाविक रूप से राज्यस्तरीय दलों ने जन्म लिया। आज भी स्थिति यही है। केन्द्र में सत्ता के दावेदार दो प्रमुख दल हैं- कांग्रेस और भाजपा, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार तथा तमिलनाडु जैसे विशाल राज्यों और अनेक छोटे राज्यों में ये दल राज्यस्तरीय दलों से अलग रहकर सत्ता के सही दावेदार नहीं बन पाते हैं।
2. कुछ प्रमुख राज्यस्तरीय नेता तथा उनके व्यक्तित्व का प्रभाव- व्यक्तित्व आधारित राजनीति सदैव से ही भारतीय राजनीति का एक तत्व रहा है और भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों में राज्य स्तर के प्रभावशाली व्यक्तियों ने राज्यस्तरीय दलों का गठन किया तथा अपने व्यक्तित्व के आधार पर दल की शक्ति को बढ़ाया। वर्तमान समय में समाजवादी पार्टी (मुलायम सिंह) राजद (लालू यादव) अकाली दल (प्रकाश सिंह बादल), डीएमके (करुणानिधि), अन्ना डीएमके (जयकलिता), शिवसेना (बालठाकरे), नेशनल कानफ्रेन्स (शेख अब्दुल्ला और तदुपरान्त फारुक अब्दुल्ला), तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी) और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) के व्यक्तित्व पर आधारित है। तेलुगुदेशम को एन टी आर ने जन्म दिया और चन्द्रबाबू नायडू के व्यक्तित्व ने उसकी स्थिति को बनाए रखा।
3. राष्ट्रीय दलों विशेषतया कांग्रेस का मनमाना व्यवहार और क्षेत्रीय आकांक्षाएं- भारतीय राजनीति में अनेक बार यह देखा गया है कि राष्ट्रीय दलों, विशेषतया कांग्रेस ने मुख्यमंत्री ऊपर से थोपे ऐसे व्यक्तियों को मुख्यमंत्री बनाया, जिन्हें बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं था, मुख्यमंत्री बार-बार बदले और राज्य राजनीति में अनावश्यक तथा अनुचित रूप से हस्तक्षेप किए। आन्ध्र और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सातवें आठवें दशक में इन्हीं स्थितियों को अपनाया गया। ऐसी स्थिति में एन0टी0 रामाराव ने तेलुगू आत्मगौरव की रक्षा के नाम पर ‘तेलुगुदेशम्’ की स्थापना की। उ०प्र० बिहार और पंजाब जैसे राज्यों में भी कांग्रेस आला कमान ने अनुचित अनावश्यक और मनमाने हस्तक्षेप किए, जिसके परिणामस्वरूप राज्य स्तर पर कांग्रेस कमजोर हुई और क्षेत्रीय दलों को बल मिला। भाजपा ने विशेष रूप से 1994-2005 ई० के वर्षों में उत्तर प्रदेश में यही भूल की और क्षेत्रीय दलों को बल मिला।
क्षेत्रीय आकांक्षाएं और कभी-कभी आशंकाएं भी राज्यस्तरीय दलों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी हैं। द्रविड़ संस्कृति और आकांक्षाओं ने डीएमके को जन्म दिया और केन्द्र हम पर हिन्दी लाद देगा, इस आशंका ने डीएमके और अन्ना डीएमके की शक्ति को बढ़ाया। यह भी तथ्य है कि किसी विशेष मुद्दे पर केन्द्रीय सत्ता के विरोध और राज्य की स्वायत्ता का नारा लगाकर राज्यस्तरीय दल अपनी शक्ति में वृद्धि कर लेते है। पूर्वोत्तर राज्यों में नगालैण्ड, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम आदि में तो राज्यस्तरीय दल नितान्त स्वाभाविक है केन्द्र इन राज्यों की परिस्थितियों, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाता।
4. अवसरवादी राजनीति और राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक राजनीतिक मुद्दों का अभाव – भारत के तथाकथित राष्ट्रीय दलों के पास सम्पूर्ण देश के ‘आर्थिक उत्थान और सर्वांगीण विकास की कोई योजना हो, तो क्षेत्रीय दलों की शक्ति में कोई कमी आएगी, लेकिन जब विचारधारा, नीति, सिद्धान्तों और आदर्शों का अभाव है, सत्ता प्राप्ति एकमात्र लक्ष्य है तो क्षेत्रीय दलों का उदय तथा उनकी शक्ति में वृद्धि नितान्त स्वाभाविक है। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस या भाजपा इन दोनों में से किसी को भी भारतीय संघ के सभी राज्यों या अधिकांश राज्यों में भारी समर्थन प्राप्त नहीं है इनमें से किसी के पास सम्पूर्ण अर्थों में राष्ट्रीय नेता नहीं है, ऐसे नेता जो पूरे देश की जनता को अपील कर सकें।
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