परमाणु अप्रसार संधि- Non Proliferation Treaty (NPT) in Hindi
द्वितीय महायुद्ध के बाद निःशस्त्रीकरण के बारे में यू.एन. के माध्यम से जो प्रयास हुए हैं उनमें एन.पी.टी., स्टार्ट व सी.टी.बी.टी. का विशेष महत्त्व है। अतः हम इन (एन.पी.टी.) पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
परमाणु अप्रसार सन्धि- 1968 (एन.पी.टी.) (Nuclear Non Proliferation Treaty (N.P.T.)- 1966 में यू. एन. की महासभा की राजनीतिक समिति द्वारा परमाणु अस्त्रों के प्रसार व निर्माण पर नियंत्रण (N.P.T.) का प्रस्ताव पारित किया गया। 112 में 110 द्वारा पक्ष में मतदान किया गया। इसकी प्रमुख धारायें इस प्रकार हैं-
(1) परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा परमाणु विहीन राष्ट्रों को परमाणु बम निर्माण के रहस्य की जानकारी नहीं प्रदान की जाएगी।
(2) इस प्रकार परमाणु शक्तियाँ परमाणु विहीन राज्यों को परमाणु अस्त्र प्राप्त करने में सहयोग नहीं देंगी।
(3) परमाणुविहीन राज्यों द्वारा परमाणु बम बनाने का अधिकार त्याग दिया जायेगा।
(4) परमाणु अस्त्रों पर रोक लगाने की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था कायम की जानी चाहिए।
(5) परमाणु तकनीकी क्षमता से सम्पन्न राष्ट्र उसका उपयोग असैनिक कार्यों के लिए करेंगे।
इस सन्धि को 1963 की सन्धि के बाद निःशस्त्रीकरण की दिशा में एक युगान्तकारी कदम माना गया है। किन्तु यह निःशस्त्रीकरण का कोई वास्तविक व सार्थक हल प्रस्तुत नहीं करती। क्योंकि इसमें भूमिगत परीक्षणों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं, परमाणु राज्यों द्वारा नवीन परमाणु परीक्षण पर कोई रोक नहीं लगाती और न ही परमाणु निरीक्षण कार्यक्रम पर कोई अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण या परीक्षण की व्यवस्था करती है। परमाणु शक्ति द्वारा शक्तिहीन पर आक्रमण करने की स्थिति यह कोई बाध्यकारी प्रतिक्रिया की व्यवस्था भी इसमें नहीं है। कुल मिलाकर यह एक भेदभावपूर्ण, दोषपूर्ण अस्पष्ट व प्रभावहीन सन्धि है।
परमाणु अप्रसार संधि समीक्षा सम्मेलन- NPT की प्रगति की समीक्षा के लिये संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 3-28 मई, 2010 को न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में सम्पन्न हुआ। विश्व के कुल 189 देशों ने N.P.T. पर हस्ताक्षर किये हैं जिसमें से 150 देशों ने भाग लिया। सम्मेलन में भारत, पाकिस्तान एवं इजराइल से N.P.T. पर बिना शर्त हस्ताक्षर करने को कहा गया। साथ ही यह भी कहा गया कि ये तीनों देश सी. टी.बी. टी. पर भी हस्ताक्षर करें और परमाणु परीक्षण पर रोक बनाये रखे। ईरान द्वारा अप्रसार संधि के दायित्वों को पूरा न करने पर इस सम्मेलन में चिन्ता व्यक्त की गयी तथा इसी परिप्रेक्ष्य में मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) परमाणु क्षेत्र के निर्माण के लिए वर्ष 2012 में एक बैठक आयोजित करने के फैसले के साथ यह सम्मेलन समाप्त हुआ।
भारत द्वारा विरोध- 1968 में अणु अप्रसार सन्धि का भारत द्वारा विरोध किया गया था तथा उसे भेदभावपूर्ण, दोषपूर्ण व अपर्याप्त बतलाया गया था। उसे निःशस्त्रीकरण के सिद्धान्तों के विपरीत भी माना गया क्योंकि भारत के अनुसार- “विश्व शान्ति को परमाणु विहीन राज्यों में परमाणु अस्त्रों के प्रसार से खतरा नहीं है, बल्कि परमाणु राष्ट्रों के पास ऐसे आयुद्ध बने रहने से भी उतना ही खतरा है।” वस्तुतः यह एक भेद मूलक दृष्टि पर आधारित है जो परमाणु सम्पन्न व विहीन राज्यों के विभाजन को निरन्तर कायम रखना चाहती है। यह उन देशों के लिए अहितकर मानी गई जो आणविक शस्त्रों का निर्माण कर सकते हैं।
भारत के साथ-साथ जर्मनी, जापान, इटली, संयुक्त अरब गणराज्य, रूमानिया, ब्राजील आदि देशों द्वारा भी इसका विरोध इन्हीं कारणों से किया गया था। जापान का मत था कि- परमाणु राष्ट्र ठोस आश्वासन प्रदान करें कि उस पर हस्ताक्षर करने वालों के विरुद्ध परमाणु अखों का प्रयोग नहीं करेंगे।” स्पेन द्वारा ‘इसे सोवियत संघ व अमेरिका द्वारा परमाणु अखों पर ‘एकाधिकार’ का प्रयास बतलाया गया।” इसका एक मुख्य लाभ केवल इतना माना जा सकता है कि- “सोवियत संघ व अमेरिका द्वारा अपने गुट के देशों को परमाणु शस्त्र प्रदान नहीं किये जायेंगे।” किन्तु लाभ की अपेक्षा हानि व दोष कहीं अधिक हैं।
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