अफगानिस्तान समस्या के कारण
वर्तमान समय में अफगानिस्तान की समस्या राजनीतिक अस्थिरता, आतंकवाद, मादक द्रव्यों की तस्करी, हिंसा, जातीय संघर्ष, मानवाधिकार, अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप, अमरीकी वर्चस्व, संयुक्त राष्ट्र संघ की औचित्यता, शरणार्थियों की समस्या आदि से जुड़ी हुई है। इसलिये यह समकालीन विश्व की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या है।
इस समस्या की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भौगोलिक रूप से अफगानिस्तान की सीमायें रूस (पूर्व सोवियत संघ), चीन, पाकिस्तान और ईरान से मिलती हैं। 17 वीं शताब्दी में रूस के जारशाही शासन ने अफगानिस्तान को सामरिक दृष्टि से देखा तथा इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए 17 वीं सदी में रूस के पीटर महान ने ओटोमॉन साम्राज्य से तथा 19वीं सदी में रूस के ही जार निकोलस ने ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान को जो आर्थिक सहायता की नीति अपनायी गयी, वह भी रूस की इन्ही आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति थी। दिसम्बर 1979 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप इसी श्रृंखला की अगली कड़ी थी।
27 दिसम्बर, 1979 में सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान में प्रवेश करके राष्ट्रपति हफीजुल्ला अमीन को अपदस्थ करके कहर साम्यवादी परचम पार्टी के नेता बाबरक करमाल को अफगानिस्तान का राष्ट्रपति नियुक्त किया। इस घटना से न केवल दक्षिण एशिया में तनाव उत्पन्न हुआ बल्कि महाशक्तियों के बीच भी पुनः शीतयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी। वस्तुतः अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप अकस्मात नहीं हुआ बल्कि इसके पीछे अनेक कारण है-
(1) अफगानिस्तान में विभिन्न सत्तास्पर्धी गुटों के बीच तनाव।
(2) अफगान सरकार को जन सहयोग का अभाव इससे वहाँ राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण था।
(3) अफगानिस्तान के सरकार विरोधी तत्त्व को विदेशी सहायता मिल रही थी। इसमें इस्लामिक छापामारों को श्रेष्ठता प्राप्त थी।
(4) राष्ट्रपति हफीजुल्ला रूस विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे थे इसलिये सोवियत संघ यहाँ अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था।
(5) सोवियत संघ राष्ट्रहित के लिये यहाँ गर्म पानी के बन्दरगाह प्राप्त करना चाह रहा था।
इस सोवियत हस्तक्षेप की अमेरिका ने कटु आलोचना की क्योंकि इस घटना से दक्षिण एशिया में अमरीकी हितों को आघात पहुंचा था। इससे अमेरिका ने स्वयं को इस्लामिक अफगानों का पक्षधर दिखाकर मुस्लिम देशों के बीच लोकप्रियता प्राप्त करने की कोशिश की। अमरीका ने पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान ने इस्लामिक छापामारी को सोवियत संघ के विरुद्ध संघर्ष के लिये व्यापक आर्थिक एवं सैनिक सहायता प्रदान की। इन सभी गतिविधियों से नवीन शीत युद्ध (New Cold War) का प्रादुर्भाव हुआ तथा रूस और अमेरिका के बीच निशस्त्रीकरण की दिशा में चल रही वार्ताओं में बाधा पहुँची तथा पूरे विश्व का वातावरण तनावपूर्ण हो गया।
चूँकि अफगानिस्तान संकट से विश्व शान्ति को खतरा पैदा हो गया था इसलिये प्रारम्भ से इसके समाधान के प्रयास किये गये। सन् 1980 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने एक प्रस्ताव पारित करके अफगानिस्तान से सोवियत सेनायें वापस बुलाने की माँग की परन्तु सोवियत संघ ने इसे अपने वीटो द्वारा निषफल कर दिया। अतः संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 1980 को ऐसा प्रस्ताव पारित किया परन्तु इसका कोई परिणाम नहीं हुआ।
अन्ततः राष्ट्र संघ की पहल पर सितम्बर, 1987 में जिनेवा में रूस पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मध्य निम्न मुद्दों पर समझौता हुआ-
(1) पाकिस्तान और अफगानिस्तान एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
(2) पाकिस्तान व ईरान से शरणार्थियों की वापसी।
(3) समझौते की अन्तर्राष्ट्रीय गारन्टी ।
परन्तु सोवियत सेनाओं की वापसी को लेकर दोनों पक्षों में विवाद बना रहा। इसी बीच सोवियत संघ के उदारवादी नेता मिखाइल गोर्बाच्योव अन्तर्राष्ट्रीय वास्तविकताओं को समझते हुए अफगानिस्तान से सेनायें वापस बुलाने को राजी हो गये। इसी क्रम में 14 अप्रैल, 1988 को जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मध्य एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार सोवियत संघ को 9 माह के अन्दर अफगानिस्तान से अपनी सेनायें हटाना था। अमेरिका और सोवियत संघ ने गारन्टी करने वाले राष्ट्र के रूप में हस्ताक्षर किये।
अफगानिस्तान में गृह युद्ध की स्थिति
15 फरवरी, 1989 को अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी सम्पन्न हुई तथा इससे उत्पन्न रिक्तता ने गृह युद्ध को जन्म दिया। एक ओर सोवियत समर्थक राष्ट्रपति नजीबुल्ला का साम्यवादी गुट था दूसरी ओर पाक एवं ईरान समर्थित कट्टरपंथी इस्लामिक मुजाहिदीन छापामार गुट था। इन दोनों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। चूँकि नजीबुल्ला को सोवियत का समर्थन प्राप्त था अतः अमेरिका ने विरोधी गुट को सहायता प्रदान की जिसका सोवियत संघ ने कड़ा विरोध किया।
धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय घटना क्रम बदलने लगा और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अफगानिस्तान में साम्यवादी गुट कमजोर हो गया तथा इस्लामिक छापामार गुट की शक्ति में वृद्धि हुई। लम्बे संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता के बाद 28 अप्रैल, 1992 को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्ला ने त्याग पत्र दे दिया और मुजाहिदीन नेता सिवगुत कलाह को सत्ता सौंप दी। पाकिस्तान ने इसे मान्यता प्रदान की परन्तु अन्य छापामार गुटों ने इसे स्वीकार नहीं किया। एक छापामार गुट के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार ने इस समझौते का विरोध किया। यही स्थिति अन्य छापामार गुटों की थी जिसके नेता रसीद दोस्तम और मसूद थे।
दिसम्बर 1992 में जमायते गुट के नेता बुरहानुद्दीन रब्बानी दो वर्ष के लिये राष्ट्रपति चुने गये, जिसे हिकमतयार गुट ने स्वीकार नहीं किया। अन्ततोगत्वा पाकिस्तान, सऊदी अरब और ईरान के हस्तक्षेप से मार्च 1993 में आठ अफगानी छापामार मुजाहिदीन नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसके अनुसार रब्बानी राष्ट्रपति और हिकमतयार प्रधानमंत्री बने।
परन्तु 1994 में अफगान समस्या पुनः भड़क उठी जब पाक प्रशिक्षित कट्टरपंथी इस्लामिक गुट ने जलालाबाद में अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। उन्होंने लगभग 80% क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में करके जनता के ऊपर इस्लामिक कानूनों को थोप दिया तथा बर्बरता से उनके चलन पर बल दिया। वर्तमान समय में तालिबान मलीशिया और अन्य अफगान गुटों के बीच संघर्ष जारी है। अफगानिस्तान की तालिबान सत्ता को पाकिस्तान से सहायता एवं समर्थन मिल रहा है। पहले अमेरिका ने पाकिस्तान की सहायता के नाम पर इन्हीं कट्टरपंथी गुटों को बढ़ावा दिया, परन्तु जब ये गुट मानवाधिकार, अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों और विश्व में अमरीकी हितों के लिये खतरा बन गये तो अमेरिका ने इनका विरोध करना प्रारम्भ किया। वास्तव में अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति अत्यन्त जर्जर है, लोग भूखों मर रहे हैं परन्तु पाक समर्थित एक गुट अफसरशाही की जिन्दगी व्यतीत कर रहा
वर्तमान स्थिति
धीरे-धीरे तालिबान गुट पर एक अरब इस्लामी कट्टरपंथी ओसामा बिन लादेन का आधिपत्य हो गया और तालिबान विश्व आतंक का पर्याय बन गये। 11 सितम्बर, 2001 को ओसामा बिन लादेन के आतंकवादी संगठन अलकायदा ने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर के दो भवनों को नष्ट करके अरबों की सम्पत्ति एवं 5000 लोगों को मौत की नींद सुला दिया। इसके प्रति उत्तर में अक्टूबर 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में आक्रमण कर दिया और अफगानी संगठन नार्दन एलायंस के सहयोग से तालिबान के शासन को समाप्त कर दिया। वहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता में ऐसी सरकार का गठन किया गया जो वहाँ के विभिन्न कबीलों एवं राजनीतिक दलों को स्वीकार हो ।
नवम्बर 2001 में जर्मनी के प्रसिद्ध नगर बॉन में संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों, 17 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों और विभिन्न अफगान गुटों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें निम्न निर्णय लिये गये-
(1) छः माह के अन्दर नवीन सरकार के लिये एक आयोग की स्थापना।
(2) 19 सदस्यीय अन्तरिम सरकार का गठन।
(3) मध्यवर्ती काल में संयुक्त राष्ट्र संघ की शान्ति सेना की स्थापना ।
22 दिसम्बर, 2001 को बॉन कबीले पोपलजाई के सदस्य हामिद करजई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने अफगानिस्तान में सत्ता संभाल ली। 11 से 19 जून, 2002 को 1551 सदस्यीय लोया जिरगा (अफगानिस्तान के विभिन्न कबीलों की संसद) द्वारा 18 माह के लिये हामिद करजई अफगानिस्तान के राष्ट्रपति चुन लिये गये परन्तु आज भी वहाँ कबीलाई संघर्ष जारी है।
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