फिलीस्तीन का विभाजन एवं इजराइल का जन्म
फिलिस्तीन समस्या और इजराइल का जन्म इस संघर्ष का मूल है। भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर स्थित पश्चिमी एशिया का यह भू-भाग लगभग 4,000 वर्षों का इतिहास लिए हुए है जो ईजील, हिब्रू, क्रूसेडर, मामलूक, तुर्क, अरबों व अंग्रेजों के अधीन रहकर 1948 में अरब व इजराइल राज्यों में विभक्त हो गया। फिलिस्तीन का हृदय-स्थल यरूशलम 2,000 वर्षों में यहूदी, ईसाई व मुसलमानों का सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र रहा है और इस महत्ता से तीनों धर्मों ने समय-समय पर इस पर अधिकार करने के अथक प्रयास किये। फिलिस्तीन प्रथम विश्व युद्ध तक तुर्क साम्राज्य के अधीन था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसे राष्ट्र संघ के तत्वावधान में ‘मैण्डेट’ बना दिया गया। ब्रिटिश नियंत्रण के पश्चात् इस क्षेत्र में यहूदी लोग अधिक संख्या में आकर बसने लगे तथा उनका अनुपात 1920 में 16% से 1947 में 24% हो गया। बाहर से आये यहूदी स्थानीय अरब लोगों से अधिक शिक्षित, सम्पन्न एवं कर्मठ थे। अतः उन्होंने कृषि, उद्योग आदि में प्रगति की और समस्त व्यापारिक प्रतिष्ठानों को अपने नियंत्रण में कर लिया। फलस्वरूप अरब निवासियों में प्रतिरोध की भावना जाग्रत हुई। उन्होंने 1939 में बाहर से आने वाले यहूदियों की संख्या प्रतिवर्ष 15 हजार करने की मांग की, किन्तु यूरोप के यहूदी फासिज्म के शिकार होने के रण यहाँ आने को इच्छुक थे।
ग्रेट ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में अपने अधिकारों का उपयोग दोहरी राजनीति के अन्तर्गत किया। उसने प्रथम विश्व युद्ध के समय अरबों से यह वायदा किया कि युद्ध में विजय के पश्चात् = फिलिस्तीन को अरब राष्ट्रों के साथ मिला दिया जायेगा और अरब तुर्क शासन से मुक्त हो सकेंगे। इसी समय बनी व सम्पन्न यहूदी समाज को भी ग्रेट ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में बसने का निमंत्रण दे दिया। ब्रिटेन ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उस पर संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार व उसके यहूदी समाज का दबाव पड़ रहा था। वैसे तो 2 नवम्बर, 1917 को ब्रिटिश विदेश मंत्री बेलफोर ने ‘यहूदियों के राष्ट्रीय घर’ की स्थापना की घोषणा की थी। यह बेलफोर घोषणा कहलाती है जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में ‘यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय गृह (National Home) का निर्माण करना चाहती है। विश्व के यहूदियों ने इस घोषणा को फिलिस्तीन उन्हें सौंपने का ब्रिटिश वायदा मान लिया और दुनिया भर से यहूदी फिलिस्तीन में आकर बसने व बसाये जाने लगे। अप्रैल, 1920 में मित्र राष्ट्रों से ब्रिटेन को फिलिस्तीन का मैण्डेट मिला था और जून, 1922 में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी घोषणा कर फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रीय घर स्थापित करने की पुष्टि कर दी। जून, 1922 में अमरीका ने भी इसकी पुष्टि कर अपने राज्य के यहूदी समाज का विश्वास जीत लिया। ग्रेट ब्रिटेन ने घोषणा के बाद विश्व के सभी भागों से और मुख्यतः यूरोपीय राज्यों से यहूदियों को यहाँ तेजी से बसाया और अरबों की भूमि उन्हें हस्तान्तरित कर दी। इससे धार्मिक द्वन्द्व ने राजनीतिक संघर्ष का रूप ग्रहण कर लिया और अरबों तथा यहूदियों में मारकाट बढ़ गयी। संघर्ष दिन-प्रतिदिन नियोजित रूप से बढ़ता गया और 1937 तक स्थिति इतनी खराब हो गयी कि ब्रिटिश सरकार इसे अपने अधिकार के अन्तर्गत अनुशासित रखने में असमर्थ हो गयी। इस समस्या के समाधान हेतु निर्मित ‘मील कमीशन’ ने फिलिस्तीन को अरब व यहूदी सम्भागों में विभक्त करने की सिफारिश कर दी। अप्रैल, 1947 में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन समस्या संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस समस्या के समाधान हेतु मई, 1947 में 11 राज्यों की एक समिति गठित की, जिसमें भारत भी एक सदस्य था। इस समिति ने मील कमीशन के निर्णयों की पुष्टि करते हुए फिलिस्तीन को तीन भागों में विभक्त करने की सिफारिश की- (1) यहूदी राज्य, (2) अरब राज्य तथा (3) यरूशलम, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय न्यास परिषद् के अधीन रखना था। 29 नवम्बर, 1947 को महासभा ने दो-तिहाई बहुमत से इस निर्णय को स्वीकृति प्रदान कर दी, परन्तु अरबों ने इसे ठुकरा दिया। अरब इस बात पर तुले हुए थे कि उनकी मातृभूमि में कोई विदेशी राज्य स्थापित न हो। दूसरी ओर यहूदी लोग अपना राज्य कायम करने के लिए दृढ़ निश्चयी थे। फलतः दोनों ही पक्षों ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए संघर्ष का सहारा लिया और फिलिस्तीन गृह युद्ध का अखाड़ा बन गया।
14 मई, 1948 को ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में मैण्डेट समाप्ति की घोषणा कर दी। ठीक उसी समय यहूदी राज्य इजराइल के निर्माण की घोषणा भी कर दी गयी। इजराइल राज्य के निर्माण की घोषणा के पांच मिनट के भीतर ही संयुक्त राज्य अमरीका ने उसे मान्यता प्रदान कर दी। सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोपीय साम्यवादी देशों ने इस नये राज्य को तीसरे दिन मान्यता प्रदान की।
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