एशियाई नव-जागरण की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
एशिया का नव-जागरण 20वीं शताब्दी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। यह उपनिवेशवाद के उन्मूलन का परिचायक है, स्वाधीनता आन्दोलन का प्रेरक हैं तथा साम्राज्यवाद एवं रंगभेद के स्वरूपों को खुली चुनौती है। एशिया के जागरण के फलस्वरूप दो प्रकार की प्रवृत्तियां स्पष्टतः दिखायी देती हैं- बौद्धिक स्तर पर यह आकांक्षा है कि परम्परागत जीवन पद्धति को कायम रखते हुए अपने भाग्य का स्वयं निर्माण किया जाए अथवा पश्चिमी जीवन पद्धति का अनुसरण किया जाए। भौतिक स्तर पर भी दो प्रकार की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां सकारात्मक और नकारात्मक दिखायी देती हैं।
सकारात्मक प्रवृत्तियाँ
1. साम्राज्यवाद की समाप्ति- एशियाई नव-जागरण के फलस्वरूप पुराने ढंग के साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का अन्त हुआ। भारत, श्रीलंका, मलाया, इण्डोचीन, फिलिपाइन्स अब सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य बन गये। जाग्रत एशिया साम्राज्यवाद के हर रूप से नफरत करता है। एशिया के सभी राष्ट्रों की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद तथा रंग भेद का उन्मूलन रहा है।
2. सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा- एशिया के राष्ट्रों में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की प्रवृत्ति पायी जाती है। वे राजनीतिक स्वतन्त्रता को स्वयं में साध्य स्वीकार नहीं करते अपितु सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन के लिए साधन मानते हैं। एशिया का परिवर्तन राजतन्त्र की पुरानी शासन प्रणाली तथा सामन्तवाद की पुरानी सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ दरिद्रता, निरक्षरता तथा बेकारी के उन्मूलन का अभियान है। एशिया के लोग विषमताओं को दूर करना चाहते हैं। वे सामाजिक और आर्थिक न्याय चाहते हैं।
3. राष्ट्रीयता की भावना का प्रबल होना- एशिया के नव-जागरण की एक विशेष प्रवृत्ति राष्ट्रीयता की भावना का सभी देशों में शक्तिशाली होना है जिसने इजरायल से लेकर फिलिपाइन्स तक नए राष्ट्रों का निर्माण किया है। इस भावना के कारण सभी देशों में बड़ी क्रान्तियां हुई हैं। टर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में, भारत में गांधी, म्यांमार में औँगसान, चीन में सुनयात सेन, इण्डोनेशिया में सुकर्ण के तथा वियतनाम में हो ची मिन्ह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम चलाए गए। राष्ट्रीयता की भावना ने आर्थिक पुनर्निर्माण और विकास के कार्यक्रमों को गति दी है। एशियाई राष्ट्रवाद ने अफ्रीका के नव-जागरण में भी योग दिया है और वहाँ साम्राज्यवादियों द्वारा अपनायी गयी जाति-भेद और रंग-भेद की नीतियों के विरुद्ध जनमानस बनाया है।
4. साम्यवाद के प्रति आकर्षण- एशिया के देशों में साम्यवाद के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। उत्तरी एशिया का बड़ा भाग सोवियत संघ के साम्यवादी शासन में रहा। दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश चीन साम्यवादी बन चुका है, उत्तरी कोरिया और वियतनाम में साम्यवादी शासन है। भारत में केरल, पं. बंगाल और त्रिपुरा राज्यों में साम्यवादियों का काफी जोर है।
एशिया में साम्यवादी प्रसार में कई कारण सहायक हैं- प्रथम, साम्यवादी रूस सदैव एशियाई देशों में स्वाधीनता के लिए चलाए जाने वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों का समर्थन तथा पश्चिमी देशों द्वारा एशियाई देशों के शोषण का विरोध करता रहा है। द्वितीय, इन देशों को साम्यवादी रूस की आर्थिक स्वतन्त्रता पर बल देने वाली लोकतंत्र की भावना पश्चिमी यूरोप की लोकतंत्र की भावना की अपेक्षा अधिक आकर्षक प्रतीत होती थी। पश्चिमी देश राजनीतिक स्वतंत्रता पर बल देते हैं जबकि साम्यवाद आर्थिक स्वतंत्रता पर अधिक बल देता है। एशियावासियों के लिए सूक्ष्म राजनीतिक अधिकारों की अपेक्षा रोटी अधिक महत्त्वपूर्ण है। तृतीय, साम्यवाद वहाँ अधिक पनपता है जहाँ निर्धनता, भुखमरी, बेकारी आदि समस्याएं होती हैं। एशिया के अधिकांश पिछड़े देशों में ऐसी ही स्थिति है, अतः यहाँ साम्यवाद के प्रसार का उपयुक्त धरातल बना। चतुर्थ, साम्यवादी क्रान्ति से पूर्व रूस एवं चीन अत्यन्त पिछड़े हुए देश थे। साम्यवादी विचारधारा के कारण कुछ ही वर्षों में वे महाशक्तियां बन गए। अतः उनका अनुभव एशिया के अन्य पिछड़े देशों के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा उन्नति में सहायक सिद्ध हो सकता है।
5. गुटों से अलग रहने की नीति- एशिया के देशों में गुटों से पृथक रहने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वे अपने आपको किसी गुट से सम्बद्ध नहीं करना चाहते। भारत, श्रीलंका, इण्डोनशिया आदि देशों ने निर्गुट राष्ट्रों के आन्दोलन को कोलम्बो शिखर सम्मेलन (1976), नयी दिल्ली शिखर सम्मेलन (1983) तथा जकार्ता शिखर सम्मेलन (1992) के माध्यम से काफी शक्ति प्रदान की।
एशिया के अनेक देश आज गुटों से अलग रहने की नीति में आस्था रखते हैं।
नकारात्मक प्रवृत्तियाँ
1. जन आकांक्षाओं की बढ़ती हुई प्रवृत्ति- राजनीतिक चेतना से एशिया के लोगों में इतनी अधिक आकांक्षाएं और मांगें बढ़ गयीं कि उन्हें पूरा करना आसान नहीं है। इससे लोगों में निराशा की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
2. उग्र राष्ट्रवाद एवं आपसी टकराहट- एशिया का राष्ट्रवाद उग्र होता जा रहा है। आज एशिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जो अपने किसी एशियाई देश के साथ विवादों में न उलझा हो। इन विवादों के कारण एशिया में युद्ध और तनाव चलते रहते हैं। जैसा कि थामस ए. रुश ने कहा है कि एशिया में विद्यमान प्रमुख तनाव क्षेत्र हैं- चीन-रूस विवाद, चीन वियतनाम विवाद, भारत-चीन विवाद, भारत-पाक विवाद, अरब-इजरायल विवाद, मलेशिया इण्डोनेशिया विवाद, राष्ट्रवादी (फारमोसा) चीन और साम्यवादी चीन में विवाद, अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप, ईरान-इराक विवाद, श्रीलंका में तमिलों की समस्या |
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