एशिया के नव-जागरण के कारण (Resurgence of Asia: Causes)
एशिया के नव-जागरण के कारण (Resurgence of Asia: Causes)- उन्नसवीं शताब्दी में यूरोप उन्नति करता चला गया और एशिया पिछड़ता गया। औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ एशिया कच्चे माल की आवश्यकता, उत्पादित माल को खपाने के लिए मण्डियों और अतिरिक्त धन के विनियोग के लिए यूरोपीय राष्ट्रों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र बना। आर्थिक स्रोतों के शोषण की आवश्यकता पर आधारित पश्चिमी स्वामित्व ने कालान्तर में एशियाई देशों को भुखमरी, दरिद्रता, पीड़ा तथा अगणित कष्टों के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया। जब तक लोगों ने विदेशी सत्ता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना तब तक वे निष्क्रिय और शान्त रहे। जैसे ही उन्हें यह आभास हो गया कि उनके पतन और शोषण का कारण विदेशी शासक और उनकी औपनिवेशिक प्रवृत्तियां हैं, वे विद्रोही हो उठे। यह चेतना बहुत कुछ पश्चिमी ज्ञान, साहित्य, कानूनों व संस्थाओं के कारण उत्पन्न हुई थी। प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त एशिया में स्वशासन और राष्ट्रीयता की पहली लहर आयी। एशियाई राष्ट्रों के नेतागण ‘स्वशासन’, ‘राष्ट्रीय आत्म-निर्णय’ तथा ‘विश्व में अपने उचित स्थान की मांग करने लगे। इस मांग ने आगे चलकर स्वाधीनता आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।
संक्षेप में, एशियाई नव-जागरण के निम्नलिखित कारण थे-
( 1 ) जापान की रूस पर विजय- एशियाई राष्ट्रों में नव-जागरण उत्पन्न करने वाली सबसे प्रभावक घटना 1904-05 में जापान द्वारा रूस को पराजित करना था। इस घटना ने एशिया के लोगों में नयी चेतना और आत्म-विश्वास की एक लहर फैला दी। जापान ने एक नया नारा दिया कि ‘एशिया, एशिया वालों के लिए है’ (Asia for Asians ) । एशिया के अधिकांश देश अब विदेशी शोषण से मुक्त होने की बात सोचने लगे।
( 2 ) उपनिवेशवादी शक्तियों की दुर्बलता- द्वितीय विश्व युद्ध में यद्यपि साम्राज्यवादी शक्तियां फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में जनतंत्रवादी शक्तियों के साथ थीं, फिर भी जहाँ एक ओर जनतंत्रवादी एवं समाजवादी तत्त्व मजबूत बने वहाँ दूसरी ओर साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी राष्ट्रों का ह्रास हुआ। ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस केवल नाममात्र के ही बड़े राष्ट्र रह गए। इटली और जर्मनी को अपार क्षति हुई और एक प्रकार से वे बरबाद हो गए। फ्रांस और ब्रिटेन द्वितीय श्रेणी के राष्ट्र बन गए थे और उनमें इतनी क्षमता नहीं रह गयी कि वे अपने विशाल साम्राज्यों का बोझ संभाल पाते।
( 3 ) पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता का प्रभाव- एशिया के नव-जागरण में पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता की प्रमुख भूमिका रही है। एशिया के लोगों ने स्वतन्त्रता, समानता तथा राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की शिक्षा पश्चिमी जगत से ही सीखी। शूमां के शब्दों में, “इन पिछड़े हुए राष्ट्रों के नए बुद्धिजीवियों ने विज्ञान, युद्ध, कला तथा राजनीति में पश्चिमी राष्ट्रों की दक्षता तथा निपुणता का ज्योंही एक आंशिक भाग प्राप्त किया त्योंही उनमें इस बात की मांग करने वाले नेतागण भी पैदा हो गए कि उन्हें अपना भविष्य स्वयं निश्चित करने का अधिकार मिलना चाहिए।”
( 4 ) सोवियत संघ और समाजवादी राष्ट्रों का मजबूत होना- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सबसे अधिक क्षति सोवियत संघ की हुई थी। फिर भी युद्ध के उपरान्त न केवल सोवियत संघ एक बड़ी शक्ति के रूप में विश्व रंगमंच पर आया बल्कि यूरोप का समस्त पूर्वी भाग साम्यवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आ गया। इससे साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद विरोधी शक्तियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला। सोवियत संघ सदा से ही साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोधी रहा और उसने उपनिवेशों में हो रहे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों सदैव ही समर्थन किया। दूसरे महायुद्ध के बाद सोवियत संघ द्वारा एक बड़ी शक्ति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भूमिका निभाने से एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के जागरण को बल मिला।
( 5 ) विश्व युद्धों का प्रभाव- प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों की एशिया के जागरण में प्रभावकारी भूमिका रही है। इन युद्धों ने एशियाई लोगों में राष्ट्रवाद की लहर को और अधिक प्रबल कर दिया। एशियाई सैनिक अपने यूरोपियन प्रभुओं की ओर से विश्व के अन्य प्रदेशों में युद्ध में शामिल हुए और उन्होंने जहाँ-तहाँ यूरोपीय सेनाओं को पराजित किया। इससे उनका भ्रम टूट गया कि यूरोपियन सैनिक अपराजेय हैं। वुडरो विल्सन द्वारा प्रतिपादित चौदह सूत्रों से आत्म-निर्णय और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के विचारों ने उनमें नयी चेतना उत्पन्न की। विश्व युद्धों ने यूरोपीय साम्राज्यों को नष्ट कर दिया। साम्राज्यवादी देश दुर्बल हो गए तथा तुर्की के अरब उपनिवेश, जर्मनी के एशियाई-अफ्रीकी उपनिवेश, इटली के अफ्रीकी उपनिवेश, उनसे छिन गए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने सबसे पहले इस तथ्य को समझ लिया कि शालीनता के साथ अपने उपनिवेश को स्वतंत्र कर देना ही समय की मांग है।
( 6 ) संयुक्त राष्ट्र संघ का योगदान- संयुक्त राष्ट्र संघ ने उपनिवेश दासता से त्रस्त मानवता की मुक्ति के लिए कुछ ऐसे सराहनीय कार्य किए जिससे न केवल एशियाई अपितु अफ्रीकी एवं लैटिन अमरीकी नव-जागरण को बड़ा बल मिला।
( 7 ) अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते हुए स्वरूप का प्रभाव- एशियाई नव-जागरण को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उभरती अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति ने भी काफी कुछ किया- (अ) दूसरे महायुद्ध के बाद विश्व ने सर्वव्यापक रूप ले लिया और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याएं अब केवल कुछ यूरोपीय राष्ट्रों का मसला न रहकर विश्वव्यापी समस्याएं बन गयीं शान्ति की भांति अब अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति भी अविभाज्य हो गयी। (ब) द्वितीय महायुद्ध से पूर्व शक्ति का केन्द्र यूरोप था, लेकिन अब शक्ति अमरीका तथा सोवियत संघ में केन्द्रित हो गयी और इस तरह विश्व दो महान शक्तियों- सोवियत संघ और अमरीका के प्रभावों के अन्तर्गत विभाजित हो गया। शक्ति के इस ध्रुवीकरण का एशियाई नव-जागरण पर व्यापक प्रभाव पड़ा। अमरीकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य साम्यवाद का विरोध तथा सोवियत संघ के बढ़ते हुए प्रभावों को रोकना रहा। इसके लिए अमरीका आर्थिक और सैनिक सहायता की नीति का अवलम्बन करता रहा। दूसरी तरफ सोवियत संघ अमरीकी आर्थिक और सैनिक सहायता के नव-उपनिवेशवादी दुर्गुणों का पर्दाफाश करता रहा। इस प्रकार दो महाशक्तियों की परस्पर विरोधी नीतियों ने एशिया एवं अफ्रीका के जागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। (स) विज्ञान एवं प् तकनीकी क्षेत्र में क्रान्तिकारी विकास का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर विशेष प्रभाव पड़ा। आवागमन तथा संचार के साधनों के विकास के कारण अविकसित एशियाई राष्ट्रों में न केवल जागरुकता बढ़ी, अपितु आकांक्षाएं भी बढ़ीं। एशिया और अफ्रीका के लोगों को यह आभास हुआ कि वे यूरोपीय राष्ट्रों तथा अमरीका से आर्थिक एवं औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। यह आभास भी एशियाई-अफ्रीकी जागरण का एक कारण है। (द) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैद्धान्तिक वैचारिक मान्यताओं पर भी अधिक बल दिया जाता है। साम्यवाद और पूँजीवाद के बीच टकराव ने भी एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों को सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं को परखने पर मजबूर किया है।
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