राजनीति विज्ञान / Political Science

एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा का कारण क्या है? विस्तृत विवेचना कीजिए।

एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा का कारण
एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा का कारण

एशिया में महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा का कारण

एशिया में नव-जागरण के साथ-साथ विश्व युद्ध के पश्चात् महाशक्तियों में सक्रिय अभिरुचि भी दिखायी देती है। एशियाई राजनीति में अमरीका, सोवियत संघ और चीन ने जितनी रुचि पिछले 30 वर्षों में दिखायी है, उतनी शायद पहले कभी नहीं दिखायी। पश्चिमी एशिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया और हिन्द महासागर महाशक्तियों की शक्ति प्रतिस्पर्द्धा के केन्द्र बने हुए हैं। 1950 के कोरिया युद्ध में अमरीका, चीन और सोवियत संघ का हस्तक्षेप स्पष्ट परिलक्षित होता था। 1947 में ही कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में जो विवाद छिड़ा उसमें अमरीका ने हमेशा पाकिस्तान की पीठ थपथपायी। 1956 में जब मिस्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया तो ब्रिटेन एवं फ्रांस ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया। पश्चिमी एशिया में जून 1967 में होने वाले अरब-इजरायल युद्ध में जहाँ सोवियत संघ ने अरबों का पक्ष लिया वहीं अमरीका ने इजरायल का समर्थन किया। हिन्द महासागर में अमरीका ने डियागो गार्सिया पर सैनिक अड्डे का निर्माण किया तो सोवियत संघ भी 1968 से ही इस क्षेत्र में सक्रिय हो गया। सोवियत संघ के पास हिन्द महासागर में कोई स्थायी अड्डे तो नहीं रहे परन्तु उसकी पनडुब्बियां और लड़ाकू जहाज बराबर तैरते रहते थे। हिन्द महासागर में चीन की नौ-सेना का भी दखल है किन्तु शक्ति-संतुलन की दृष्टि से वह अधिक महत्त्व नहीं रखता। एशिया में सबसे अधिक चलने वाला युद्ध वियतनाम युद्ध था। यह युद्ध वस्तुतः एक ओर अमरीका और दूसरी तरफ रूस-चीन समर्थन से लड़ा गया। अमरीका 1965 से ही वियतनामा युद्ध में पूरी तरह कूद चुका था। 1971 की जुलाई में कीसिंगर की चीन यात्रा के बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि अमरीका और चीन की व्यूह रचना दक्षिणी-पूर्वी एशिया में सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए है तो सोवियत संघ ने भारत के साथ वह संधि सम्पन्न कर ली जिस पर दोनों देश लम्बे समय से विचार-विमर्श कर रहे थे। दिसम्बर 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अमरीका ने प्रशान्त महासागर में स्थित सातवें बेड़े के परमाणु युद्धपोत ‘एण्टरप्राइज’ को बंगाल की खाड़ी में भेजकर युद्ध पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने की कोशिश की थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में कम्पूचिया लम्बे समय तक समस्या का केन्द्र बना रहा है। 1978 में वहाँ वियतनाम ने सैनिक हस्तक्षेप किया और उसके द्वारा समर्थित हेंग सामरिन की सरकार सत्तारूढ़ हुई। परन्तु चीन ने इसकी तीव्र निन्दा की। सोवियत संघ के अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप तथा कम्पूचिया में सोवियत संघ के समर्थन से वियतनाम के हस्तक्षेप से बहुत से देश उससे सशंकित हो गए। अमरीका ने पाकिस्तान को भारी सैनिक सहायता देने का निर्णय किया। खबर है कि चीन ने पाकिस्तान को परमाणु शस्त्र बनाने की तकनीक जुटाने में चुपके-चुपके काफी मदद की।

कतिपय विद्वानों का मानना है कि पूर्व में एशिया दो महाशक्तियों- सोवियत संघ और में अमरिका- का संघर्ष स्थल बन गया था, भविष्य में वह चार महाशक्तियों- रूस, अमरीका, चीन और जापान के चतुष्कोणीय संघर्ष का केन्द्र बनेगा।

एशिया में सक्रिय रुचि दिखाते हुए अमरीका ने ‘आइजनहॉवर सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया तो सोवियत नेता ब्रेझनेव ने एशियाई सामूहिक सुरक्षा का विचार प्रस्तुत किया। जून 1969 में सोवियत संघ ने इस हिस्से में अपनी रुचि को ‘सामूहिक सुरक्षा के नाम से प्रकट किया। यद्यपि ब्रेझनेव ने यह बात स्पष्ट नहीं की कि यह सामूहिक सुरक्षा किस प्रकार के भय के लिए है, तथाति सोवियत संघ की यह नयी नीति ‘यथास्थिति’ बनाए रखने के लिए थी, जिससे कि इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को रोका जा सके। जापान और चीन के बीच आर्थिक सम्बन्धों का विकास इस बात की ओर संकेत करता है कि अपनी आर्थिक सैन्य सीमाओं एवं आवश्यकताओं से प्रभावित ये राष्ट्र सम्मिलित रूप से इस क्षेत्र में विश्व महाशक्तियों के प्रभाव को कम करना चाहेंगे। जापान के आर्थिक चमत्कार ने जापान को एशिया में ही वरन् विश्व स्तर पर भी आर्थिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। अपनी आर्थिक प्रगति के कारण जापान किसी भी रूप से उपेक्षित नहीं किया जा सकता।

साम्राज्यवादियों ने एशिया के मर्मस्थलों पर इस प्रकार अड्डे जमाए हैं जिससे एशियाई राष्ट्र कभी महाद्वीपीय एकता की बात सोच ही न सकें पश्चिमी एशिया में इजरायल, पूर्वी एशिया में दक्षिण कोरिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर आदि तथा दक्षिण एशिया में पाकिस्तान व उत्तर में जापान पश्चिमी साम्राज्यवाद के गढ़ हैं। इसी प्रकार सोवियत संघ ने क्रमशः सीरिया, उत्तरी कोरिया, वितयनाम, लाओस, कम्बोडिया व अफगानिस्तान आदि में अपनी डैनें फैला रखी थीं। हिन्द महासागर अमरीका व सोवियत संघ की सामरिक स्पर्द्धा का केन्द्र बन गया। अरब जगत के तेल को किसी हालत में ब्रिटेन, फ्रांस व अमरीका मुक्त करने की मनःस्थिति में नहीं हैं।

निष्कर्ष – अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति पर अत्यधिक बल दिया जाता है और शक्ति की दृष्टि से एशिया महाद्वीप निर्बल दिखायी देता है। इस शक्ति की न्यूनता के कई कारण हैं- आर्थिक पिछड़ापन, संचार के साधनों का अभाव, तकनीकी व विज्ञान के क्षेत्र में कमजोरी आदि तत्त्व इस महाद्वीप को शक्तिहीन बनाने के प्रमुख कारण हैं। इन कमजोरियों की वजह से दो प्रकार की सम्भावनाओं का एशिया के राष्ट्रों को मुकाबला करना पड़ रहा है। एक सम्भावना यह बन रही है कि एशिया में स्थानीय शक्ति के अभाव का फायदा उठाकर विश्व की महान शक्तियां रिक्त स्थान को भरने का प्रयत्न करें और इसके फलस्वरूप एशिया महान शक्तियों के संघर्ष का अखाड़ा बन जाए। व्यवहार में ऐसा हो रहा है। दूसरी सम्भावना यह रही है कि एशिया के दो बड़े – राष्ट्र भारत और चीन एक-दूसरे साथ सहयोग करके महाशक्तियों को इस महाद्वीप में हस्तक्षेप करने से रोकें। क्या भारत और चीन में सहयोग सम्भव है ?

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