गुटनिरपेक्षता की कमजोरियां अथवा गुटनिरपेक्षता की विफलताएं अथवा गुटनिरपेक्षता की आलोचना
गुटनिरपेक्षता की विफलताएं क्या हैं? इस सिलसिले में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं-
(1) अवसरवादी और काम निकालने की नीति- पश्चिमी आलोचकों के अनुसार गुटनिरपेक्षता एक अवसरवाद और काम निकालने की नीति होकर रह गयी है, कि गुटनिरपेक्ष देश सिद्धान्तहीन हैं, कि साम्यवादी और गैर-साम्यवादी गुटों के साथ अपने सम्बन्धों के संदर्भ में वे ‘दोहरी कसौटी’ का प्रयोग करते हैं, और यह कि उनका ध्येय पश्चिमी और साम्यवादी दोनों गुटों से अधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का और ‘जिसका पलड़ा भारी हो’ उसकी ओर मिल जाने का रहता है।
डॉ. एम. एस. राजन ने इस आलोचना का उत्तर देते हुए लिखा है कि गुटनिरपेक्षता की नीति अवसरवादिता की नीति हो सकती है, परन्तु उतनी ही जितनी गुटबद्धता की अथवा कोई अन्य नीति हो सकती है, उससे अधिक नहीं। फिर, क्या पाकिस्तान और वहाँ के नेताओं पर पश्चिमी गुट के साथ बंध जाने के सिलसिले में अवसरवाद का आरोप नहीं लगाया जा सकता ?
( 2 ) सिद्धान्तः उपयुक्त किन्तु अव्यावहारिक नीति- आलोचकों के अनुसार यह नीति सिद्धान्ततः जितनी उपयुक्त है, व्यवहारतः उससे बहुत भिन्न है, और सिद्धान्ततः इसमें चाहे कितने ही गुण क्यों न हों व्यवहारतः यह कई तरह से विफल हुई है। अतः यह कहा जाता है कि जहाँ सिद्धान्त के धरातल पर गुटनिरेक्षता का ध्येय राष्ट्रों की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना है, व्यवहार के धरातल पर इसने बहुत से गुटनिरपेक्ष देशों के संदर्भ में इस दायित्व को वस्तुतः – निभाया नहीं है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी देशों की एक आलोचना यह है कि व्यवहारतः गुटनिरपेक्षता ने साम्यवाद के प्रति को छिपाने के लिए नकाब का काम किया है और इसका परिणाम होता है कि साम्यवादी गुट की अधीनता (जैसे एनक्रमा के नेतृत्व में घाना, बर्मा (म्यांमार), क्यूबा)। आलोचक यह भी कहते हैं कि नासिर के अधीन संयुक्त अरब गणराज्य और नेहरू के अधीन भारत 1950 के दशक में साम्यवादी खेल खेलते रहे थे।
इस आलोचना का उत्तर देते हुए डॉ. एम. एस. राजन ने लिखा है कि अभी तक कोई गुटनिरपेक्ष राष्ट्र साम्यवादी गुट में सम्मिलित नहीं हुआ। दूसरी ओर एक साम्यवादी राष्ट्र (यूगोस्लाविया) साम्यवादी गुट का साथ छोड़कर गुटनिरपेक्ष बन गया। जहाँ कुछ मामलों में कुछ गुटनिरपेक्ष देशों ने साम्यवादी शिविर के देशों का समर्थन किया, वहाँ उन्हीं गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने अन्य अवसरों पर उन्हीं देशों की आलोचना भी की है। हंगरी के विरुद्ध सोवियत सैनिक कार्यवाही (1956) तथा चेकोस्लोवाकिया (1968) के मामलों में अनेक गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने सोवियत संघ की आलोचना की थी।
(3) बाह्य सहायता पर निर्भरता- गुटनिरपेक्ष देशों की एक विफलता यह बतायी जाती है कि वे बाहरी आर्थिक और रक्षा सहायता पर बेहद निर्भर रहे हैं। चूँकि वे दोनों गुटों से सहायता प्राप्त करने की स्थिति में थे, इसलिए उन्होंने इतनी भारी आर्थिक और रक्षा सहायता लेने का रास्ता निकाल लिया कि आज वे अपने सहज-सामान्य कार्य निर्वाह के लिए भी इस सहायता पर आश्रित हो गए हैं। आलोचकों का तर्क है कि सच्ची गुटनिरपेक्षता आर्थिक आत्मनिर्भरता को तथ्य रूप में मानकर चलती है। यदि कोई राष्ट्र किसी तरह की सहायता के लिए किसी अन्य राष्ट्र या समूह पर बहुत आश्रित हो तो इसका मतलब है उस राष्ट्र की स्वतंत्रता को और गुटनिरपेक्षता को भी दांव पर लगा दिया गया है।
डॉ. एम. एस. राजन का कहना है कि “किसी देश को दोनों सर्वोच्च शक्तियों से बराबर बड़े परिमाण में आर्थिक और सैनिक सहायता प्राप्त हुई है। यह बात अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि उसकी गुटनिरपेक्षता बराबर ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।”
( 4 ) गुटनिरपेक्षता की नीति किसी तरह सुरक्षा का साधन नहीं- आलोचकों का यह कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्र गुटनिरेक्षता को अपनी सुरक्षा के लिए पर्याप्त मानते थे। यदि वे अत्यन्त विशाल रक्षा व्यवस्था रखेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता सुरक्षित नहीं रह जाएगी और यदि वे बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करेंगे तो उनकी गुटनिरपेक्षता का स्वरूप शुद्ध नहीं रह जाएगा। अक्टूबर 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण ने भारत के लोगों को यह अनुभव करा दिया कि वर्तमान राष्ट्र समाज में जो सर्वथा आदर्श नहीं है कोई भी चीज किसी देश की सुरक्षा का प्रमाण नहीं हो सकती, गुटनिरपेक्षता भी नहीं कि उपयुक्त सैन्य शक्ति रखने के साथ गुटनिरपेक्षता की कोई असंगति नहीं है, और बाहरी आक्रमण से मुकाबला करने के लिए बाहर से सैनिक सहायता स्वीकार करना भी कोई गलत काम नहीं है। चीनी आक्रमण के दौरान भारत के लोगों ने यह भी अनुभव किया कि अन्य गुटनिरपेक्ष देशों में सबको भारत के साथ सहानुभूति नहीं थी जबकि बहुत से ऐसे देशों ने, जो पश्चिमी गुट के साथ बंधे थे या तो भारत के प्रति सहानुभूति दिखायी या चीनी आक्रमण का मुकाबला करने में भारत को सहायता दी।
गुटनिरपेक्षता के कुछ नासमझ आलोचकों को लगा कि चीन के आक्रमण से उनका दृष्टिकोण एकदम सही सिद्ध हो गया कि गुटनिरपेक्षता किसी भी तरह की सुरक्षा का साधन नहीं है और इसलिए भारत को गुटनिरपेक्षता का त्याग कर देना चाहिए। यह तो ऐसे हुआ मानो गुटबद्ध होने से किसी राष्ट्र को पूरी तरह सुरक्षा मिल जाती है।
( 5 ) संकुचित नीति- विदेश नीति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसे गुटनिरपेक्षता की नीति में बांधा नहीं जा सकता। गुटनिरपेक्षता का दायरा बहुत सीमित है। गुटों से बाहर क्रियाशील होने की कल्पना इस अवधारणा में है ही नहीं। सारी नीति गुटों की राजनीति के आस-पास घूमती है। महाशक्ति गुटों की राजनीति पर प्रतिक्रिया करते रहना ही इस नीति का मुख्य लक्षण बन जाता है। या तो गुटों के आपसी झगड़ों में पंच बनने की कोशिश करना या जैनों से अलग रहते हुए एक के केवल समीप जाने का प्रयत्न करना कि दूसरा बुरा न माने और यदि दूसरे के बुरा मानने का डर हो तो पहले से नाप-तौल कर दूर हटना या बारी-बारी से पास जाना या दूर हटना, यही गुटनिरपेक्षता की शैली रही है।
(6) राष्ट्रहित के बजाय नेतागिरी की नीति- कतिपय आलोचक उसे ऊर्ध्वमूल नीति कहते हैं, ऐसी नीति, जिसकी जड़ें ऊपर हैं, नीचे नहीं। अपने देश में नहीं राष्ट्रहित उसके केन्द्र में नहीं है। उससे राष्ट्रहित हो जाए यह अलग बात है। उसके केन्द्र में नेतागिरी की भावना रही है। मोर का नाच, पांव कितने ही कमजोर हों, गंदे भी, लेकिन पंख फैलाकर नाच होना चाहिए। दुनिया के मंचों पर नेतागिरी चमकनी चाहिए।
( 7 ) इस नीति द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं- आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्षता की नीति के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में, जो शक्ति- संतुलन के सिद्धान्त पर चल रही है, हम कोई उल्लेखनीय परिवर्तन करने में भी असमर्थ रहे। जब तक शीत युद्ध चलता रहा, दुनिया प्रमुख शिविरों में बंटी रही। इन शिविरों ने भारत या मिस्र या यूगोस्लाविया के कहने से अपनी नीति में कहीं कोई परिवर्तन नहीं किया। भारत के विरोध के बावजूद अमरीकी सेनाओं ने कोरिया में 38वीं अक्षांश रेखा को पार कर लिया। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। लेबनान में अमरीकी फौजें और हंगरी व चेकोस्लोवाकिया में सोवियत फौजें घुस गयी। 1962 में क्यूबा के सवाल पर अमरीकी और सोवियत संघ में टक्कर होते-होते बच गयी, लेकिन उसका कारण गुटनिरपेक्ष देशों का दबाव नहीं था। पश्चिमी एशिया में चार बड़े अरब-इजरायल युद्ध हो गए और गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका नगण्य रही। अफ्रीका और एशिया के देशों की उपनिवेशवाद से मुक्ति के • गुटनिरपेक्ष देशों ने पर्याप्त शब्द बल का प्रयोग किया, किन्तु उनके स्वातन्त्र्य का श्रेय गुटनिरपेक्षता को देना, घटनाओं की गलत व्याख्या करना होगा। अल्जीरिया, अंगोला, मोजाम्बिक जैसे देशों ने अपनी स्वतंत्रता खूनी युद्ध के द्वारा प्राप्त की और अन्य देशों से भी साम्राज्यवादी ताकतें अपनी अन्दरूनी कमजोरियों या विवशताओं के कारण हटती रहीं।
( 8 ) गुटनिरपेक्षता- एक दिशाहीन आन्दोलन- कतिपय आलोचकों का मत है कि नई विश्व व्यवस्था का जिसमें शक्ति नहीं, सद्भावना नियामक तत्त्व हो, निर्माण करना तो दूर रहा, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपने आप में ही बिखरने लगा है। हवाना सम्मेलन (1979) की कार्यवाहियों से स्पष्ट हो गया था कि सम्पूर्ण आन्दोलन तीन खेमों में बंट गया है- एक में क्यूबा, अफगानिस्तान, वियतनाम, इथियोपिया, द. यमन जैसे सोवियत संघ परस्त देश थे तो दूसरे में सोमालिया, सिंगापुर, जैसे, फिलिपीन्स, मोरक्को, मिस्र आदि अमरीकी परस्त देश । तीसरे खेमे में भारत, यूगोस्लाविया और श्रीलंका जैसे देश थे। यह बंटवारा इस बात का सबूत था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की अपनी कोई दिशा नहीं रह गयी और वह महाशक्तियों के खिलवाड़ का प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था।
( 9 ) गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता का अभाव- आलोचकों का कहना है कि गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में बुनियादी एकता भी नहीं पायी जाती समृद्ध राष्ट्रों के शोषण के विरुद्ध मोर्चाबन्दी करना तो दूर रहा, वे आपस में एक-दूसरे की सहायता करने की भी कोई ठोस योजना नहीं बना सके। गुटनिरपेक्ष राष्ट्र एक-दूसरे का शोषण करने से भी बाज नहीं आते। तेल सम्पन्न राष्ट्रों ने अपने साथी विकासमान राष्ट्रों को भी किसी प्रकार की रियायत नहीं दी। अपनी जीवन पद्धतियों की रक्षा के लिए भी गुटनिरपेक्ष देश कोई संयुक्त रणनीति नहीं बना पाए।
( 10 ) गुटनिरपेक्षता एक मूल्य-रहित पैंतरा मात्र है- आलोचकों का कहना है कि वास्तव में गुटनिरपेक्षता अपने आप में कोई विचारधारा या सिद्धान्त नहीं है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में भारत और श्रीलंका जैसे लोकतांत्रिक देश हैं तो नेपाल, मोरक्को, इथियोपिया जैसे राजशाही देश भी रहे हैं। वियतनाम, क्यूबा, लाओस जैसे कम्युनिष्ट देश इसमें हैं तो फौजी तानाशही वाले इण्डोनेशिया, म्यांमार, पाकिस्तान, घाना, उगांडा जैसे देश भी इसमें रहे हैं। दूसरे शब्दों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के लगभग 116 देशों में से 10 देश भी ऐसे नहीं हैं जिन्हें सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक कहा जा सके। इन देशों की शासन-पद्धतियां ही भिन्न-भिन्न नहीं हैं अपित अर्थव्यवस्था के स्वरूप और समस्याएं भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं। कई गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों में आपसी तनाव ने युद्ध का रूप धारण कर लिया है। अपने द्वितीय मामलों को सम्मेलन के मंच पर लाने में नहीं चूकते। यदि गुटनिरपेक्षता और कुछेक नैतिक मूल्य एक-दूसरे के पर्याय होते तो आज सम्मेलन का स्वरूप इतना विशृंखलित और आत्मविरोधी नहीं होता।
आलोचकों का यह भी कहना है कि युद्ध या संकट के समय गुटनिरपेक्ष देश अकेला रह जाता है, जैसे चीनी आक्रमण के समय भारत रह गया था। फिर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मार्ग इतना कुटिल है कि गुटनिरपेक्षता की माला जपते हुए भी राष्ट्रों ने अन्दर-ही-अन्दर गुटों से हाथ मिलाने की कोशिश की। 1971 में सम्पन्न भारत- सोवियत संधि इसका प्रमाण है। मिस्र सोवियत और इराक-सोवियत संधियां भी इसी ढर्रे पर सम्पन्न की गयी थीं। सैन्य-परामर्श और सैन्य-सहायता के स्पष्ट प्रावधान इन संधियों में थे।
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