गुट निरपेक्षता का भविष्य अथवा गुट निरपेक्षता की प्रासंगिता का वर्णन कीजिये।
गुटनिरपेक्षता विश्व राजनीति में राष्ट्रों के लिए एक विकल्प के रूप में निश्चय ही स्थायी रूप धारण कर चुकी है। इसने विशेषतः राष्ट्र समाज के छोटे-छोटे और अपेक्षाकृत कमजोर सदस्यों के संदर्भ में राष्ट्रों की स्वतंत्रता और समता बनाए रखने में योग दिया है। इसने विश्व के पूर्ण स्वीकरण को रोककर, विचारधारा शिविरों में विस्तार और प्रभाव को संयत करके तथा गुटों के अन्दर भी स्वतंत्रता की शक्तियों को प्रोत्साहन देकर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा बनाए रखने तथा उसे बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। इसने संयुक्त राष्ट्र संगठन के भीतर और बाहर दोनों जगह बहुत-से कल्याणकारी क्षेत्रों में, जैसे कि उपनिवेशों को स्वतंत्र कराने, प्रजातीय समता को साकार करने तथा अल्प-विकसित देशों के आर्थिक विकास के क्षेत्र में बहुत बड़ा योग दिया है।
आज संयुक्त राष्ट्र संघ के दो-तिहाई देश गुटनिरपेक्षता के दायरे में आ चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न मंचों से गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों ने विश्व-शांति, उपनिवेशवाद के अन्त, परमाणु अस्त्रों पर रोक, निःशस्त्रीकरण, हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करना, नयी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के निर्माण आदि विषयों पर संगठित रूप से कार्यवाही की और सफलता हासिल की है।
यह भी प्रश्न किया जाता है कि आज गुटनिरपेक्षता का क्या औचित्य रह गया है। गुटनिरपेक्षता की सार्थकता द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीत-युद्ध के वातावरण में तो थी, किन्तु पिछले 15-20 वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत सारे परिवर्तन का अन्त हो चुका है, सोवियत संघ का विघटन हो चुका है, पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवाद को हुए कब्र में दफनाया जा चुका है, वारसा पैक्ट भंग कर दिया गया है, नाटो की भूमिका में परिवर्तन हैं। मसलन शीत युद्ध आ रहा है, जर्मनी का एकीकरण हो चुका है। गुटनिरपेक्षता का उदय शीत युद्ध के संदर्भ में हुआ था और आज शीत युद्ध के अन्त हो जाने के कारण गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया। है। निर्गुट आन्दोलन के 8वें सम्मेलन में जिम्बाम्बे की राजधानी हरारे में लीबिया के नेता कर्नल गद्दाफी ने निर्गुट आन्दोलन को ‘अन्तर्राष्ट्रीय भ्रम का मजाकिया आन्दोलन’ (A funny movedment of international fallacy) कहा था और पूछा था कि जब अमरीका ने उनके देश पर हवाई हमला करके उन्हें सपरिवार जान से मार देने की कोशिश की तो निर्गट आन्दोलन क्या कर रहा था? क्या इसके बाद भी इसकी कोई प्रसांगिकता रह जाती है ?
फरवरी, 1992 में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों की बैठक में मिस्र ने स्पष्ट तौर से अपील की थी कि इस आन्दोलन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, उनका तर्क था कि सोवियत संघ के विघटन, सोवियत गुट तथा शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। किन्तु बहुसंख्यक विदेश मंत्रियों ने इस विचार का विरोध किया था। उनका कहना था कि बड़ी संख्या में गुटनिरपेक्ष देश अभी निर्धन हैं या आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और समृद्ध राष्ट्रों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उनका नव-औपनिवेशिक शोषण किया जा रहा है, इस स्थिति में उन्हें बचाने के लिए, यह जरूरी है कि विकसित और विकासशील देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डाला जाए और विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग सुदृढ़ एवं सक्रिय किया जाए। इसके लिए निर्गुट आन्दोलन एक अपरिहार्य मंच का काम करेगा। आतंकवाद, पूर्ण निरस्त्रीकरण की समस्या के साथ आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर से गुजर रही विश्व आर्थिक नीति पर विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के बढ़ते वर्चस्व के कारण विकासशील देशों की आर्थिक समस्याओं के समाधान का मुद्दा काफी जटिल होता जा रहा है।
अतः ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ को केन्द्र बनाकर ‘नाम’ (NAM) महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। निःशस्त्रीकरण के क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन विश्व की पुकार की भूमिका निबाह सकता है और इसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महाशक्तियां तीसरी दुनिया के देशों में घातक हथियारों का जमावड़ा न करें।
1993 में आन्दोलन का सदस्य बनने के लिए प्राप्त नए आवेदनों से यह सुस्पष्ट है कि सार्वभौम कार्यों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की निरन्तर प्रासंगिकता बनी है और महत्त्व भी बढ़ा है। ऐसा कहा गया है कि 21वीं शताब्दी आर्थिक युद्ध की होगी। आर्थिक दृष्टि से समृद्ध
राष्ट्रों के गुट उभरकर स्वयं ही प्रतिस्पर्द्धा कर लेंगे और इससे विकासशील राष्ट्रों की स्वतंत्रता और हितों को खतरा पहुँचेगा। इस खतरे को नियंत्रित करने के लिए उत्तर-दक्षिण संवाद को बनाए रखने में दक्षिण-दक्षिण सहयोग और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बनाने के लिए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन और जी-77 को एक होकर कार्य करना होगा ।
आज निम्नलिखित क्षेत्रों में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता नजर आती है-
1. नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की पुरजोर मांग करना।
2. आणविक निरस्त्रीकरण के लिए दबाव डालना।
3. दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहन देना।
4. एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अमरीकी दादागिरी का विरोध करना ।
5. विकसित और विकासशील (उत्तर-दक्षिण संवाद) देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डालना।
6. अच्छी वित्तीय स्थिति वाले गुटनिरपेक्ष देशों (जैसे ओपेक राष्ट्रों को इस बात के लिए तैयार करना कि वे अपना अधिशेष पश्चिमी देशों की बैंकों में जमा करने के बजाय विकासशील देशों में विकासात्मक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करें।
7. नव-औपनिवेशिक शोषण का विरोध किया जाए।
8. संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन के लिए दबाव डाला जाए ताकि बड़े राष्ट्र प्रस्तावित पुनर्गठन के लिए राजी हो सकें यानी उनके ‘वीटो’ परिषद् की सदस्यता में पर्याप्त बढ़ोत्तरी की जा सके या महासभा को और अधिकार दिए जा सकें।
संक्षेप में, विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने की दिशा में यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अस्तित्व अधिक समय तक नहीं रह पाएगा, विशेषकर ऐसे में जबकि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद इसके सामने कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं रह गया है।
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