सुरक्षा परिषद की निषेधाधिकार शक्तियां
सुरक्षा परिषद् में मतदान की प्रणाली तथा वीटो- चार्टर की धारा 27 में सुरक्षा परिषद् में मतदान की प्रक्रिया का वर्णन है। इसके अनुसार प्रक्रिया सम्बन्धी विषय में परिषद् के निर्णय 9 सदस्यों के स्वीकारात्मक मत से किये जायेंगे। प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों का आशय ऐसे मामलों से है जिनमें सुरक्षा परिषद् की बैठक के समय या स्थान का निर्णय करना, इसके अंगों की स्थापना, कार्यवाही चलाने के नियम और सदस्यों को बैठक में सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रित करना आदि हों। इसके अतिरिक्त सब विषय महत्त्वपूर्ण या सारवान (Substan tive) समझे जाते हैं। ऐसे विषयों के निर्णयों के लिए 9 सदस्यों के स्वीकारात्मक वोट के साथ स्थायी सदस्यों के स्वीकारात्मक वोट भी होने चाहिए। इस व्यवस्था के अनुसार यदि 5 स्थायी सदस्यों में से कोई एक भी किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय के विपक्ष में वोट दे देता है तो वह विषय अस्वीकृत समझा जायेगा। इस प्रकार प्रत्येक स्थायी सदस्य को निषेधाधिकार (Veto) प्राप्त है।
कहने का तात्पर्य यह है कि प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों को छोड़कर अन्य सभी विषयों में निर्णय के लिए पाँचों स्थायी सदस्यों की सर्वसम्मति अनिवार्य है। यदि कोई भी स्थायी सदस्य इन विषयों में निर्णय लेने के समय अपना नकारात्मक मत प्रदान करता है, तो सुरक्षा परिषद् उन विषयों पर कोई निर्णय नहीं ले सकती। इस प्रकार स्थायी सदस्यों में से किसी भी एक का नकारात्मक मत सुरक्षा परिषद् को निर्णय लेने से रोक सकता है। सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की इस शक्ति को निषेधाधिकार की शक्ति कहते हैं। इस प्रकार तथाकथित ‘पाँच बड़ों में से कोई भी सदस्य दूसरे राज्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेने एवं उनके विरुद्ध विधि लागू करने में समक्ष हो सकता है, किन्तु स्वयं विधि के ऊपर है।
निषेधाधिकार की पृष्ठभूमि
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान याल्टा शिखर सम्मेलन में अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सबसे पहले निषेधाधिकार का प्रस्ताव रखा था। स्टालिन तथा चर्चिल ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। बाद में सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भी मतदान प्रक्रिया पर विचार-विमर्श के क्रम में चारों महाशक्तियां इस पर एकमत रहीं। निषेधाधिकार का आधार यह विचार था कि उत्तरदायित्व तथा अधिकार परस्पर सम्बन्धित होने चाहिए। सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन के तीसरे आयोग के अधिशासी अधिकारी ग्रेसन क्रिर्क के अनुसार निषेधाधिकार दो मूलभूत धारणाओं पर आधारित है। इनमें से प्रथम धारणा यह थी कि किसी भी सशस्त्र कार्यवाही में उसका भार प्रधानतः महाशक्तियों को वहन करना पड़ेगा। परिणामस्वरूप परिषद् के इन सदस्यों से यह आशा करना अव्यावहारिक होगा कि वे अपनी सेनाओं को उन कार्यवाहियों के लिए प्रदान करेंगे जिनके कि विरोध में वे हैं। दूसरी धारणा यह थी कि संघ को अपनी शक्ति के लिए महाशक्तियों के आवश्यक सहयोग पर निर्भर रहना चाहिए। यदि वह सहयोग अपर्याप्त रहता है, तब सशस्त्र सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाएं भी अवश्य ही असफल हो जायेंगी।
निषेधाधिकार का प्रयोग
सोवियत संघ ने 16 फरवरी, 1946 को पहली बार निषेघाधिकार का प्रयोग किया। लेबनान तथा सीरिया ने अपने देशों से ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सेना हटाये जाने का आग्रह किया था। अमरीका का प्रस्ताव था कि सेनाएं शीघ्र न हटायी जायें। सोवियत संघ चाहता था कि सेनाएं तुरन्त हटा ली जायें इसलिए सोवियत संघ ने अमरीकी प्रस्ताव को वीटो द्वारा समाप्त कर दिया। संयुक्त राष्ट्र की 1945 में स्थापना के बाद से सोवियत संघ (अब रूस) ने सुरक्षा परिषद में 120 बार वीटो का इस्तेमाल करने वाले सदस्यों में अमरीका का दूसरा स्थान है, जिसने 78 बार वीटो का इस्तेमाल किया। ब्रिटेन ने 32 बार, फ्रांस ने 18 बार जबकि चीन ने 5 बार वीटो का इस्तेमाल किया। दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में ‘वीटो’ शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है।
निषेधाधिकार का परिणाम
निषेधाधिकार के कारण अनेक महत्त्वपूर्ण समस्याओं का निर्णय दुर्लभ हो गया। सोवियत संघ के समर्थक राष्ट्रों को अमरीका के विरोध के कारण एवं अमरीकी समर्थक राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरोध के कारण बहुत दिनों तक संघ की सदस्यता नहीं मिली। ब्रिटेन एवं फ्रांस ने वीटो का सहारा लेकर सन् 1956 में मध्य पूर्व की शान्ति एवं सुरक्षा को भंग किया।
निषेधाधिकार के अधिक प्रयोग से सुरक्षा परिषद् का प्रभाव घटने लगा। सुरक्षा परिषद् की निर्बलता के कारण महासभा का प्रभाव बढ़ने लगा। निषेधाधिकार के प्रभाव को कम करने के लिए अन्तरिम समिति और शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव पारित करने पड़े। वीटो के कारण संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की नियुक्ति में भी बहुत बाधाएं उत्पन्न हुई।
दोहरा निषेधाधिकार
संयुक्त राष्ट्र चार्टर ‘प्रक्रिया सम्बन्धी’ तथा ‘महत्त्वपूर्ण विषयों’ में भेद तो करता है परन्तु उसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं करता। प्रक्रिया सम्बन्धी मामले के अतिरिक्त किसी भी विषय में निर्णय के समय महाशक्तियों (स्थायी सदस्यों) में से कोई भी नकारात्मक मत प्रदान कर सकता है और इस प्रकार परिषद् को निर्णय लेने से रोक सकता है। यह शक्ति पहली वीटो की शक्ति (Power of First Veto) कहलाती है। दूसरे, वीटो का प्रश्न उस समय उठता है जबकि सुरक्षा परिषद् को यह तय करना होता है कि कोई विषय प्रक्रिया सम्बन्धी (Procedural) है या नहीं? चूँकि यह प्रश्न कि कोई विषय प्रक्रिया सम्बन्धी है अथवा नहीं, एक कार्य विधिक प्रश्न नहीं है अतः इस पर निर्णय लेते वक्त 9 सदस्यों के मत अनिवार्य हैं, जिनमें 5 स्थायी सदस्यों के मत भी सम्मिलित होते हैं। इस प्रश्न के निर्धारण में स्थायी सदस्य दूसरे वीटो (Second Veto) का प्रयोग कर सकते हैं। संक्षेप में, इन प्रावधानों के कारण ऐसा कहा जाता है कि दोहरी वीटो की शक्ति के कारण महाशक्तियों को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा वे सुरक्षा परिषद् की किसी भी कार्यवाही को रद्द करवा सकती हैं।
निषेधाधिकार के विपक्ष में तर्क : आलोचना
अनेक आलोचकों के अनुसार सुरक्षा परिषद् अपने सामूहिक सुरक्षा के कार्य में असफल हो गयी है और इस असफलता का प्रधान कारण महाशक्तियों का निषेधाधिकार है। शीत युद्ध के समय सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में वीटो के जरिए अड़ंगा लगाने की आदत डाल रखी थी। हाल में अमरीका ने इजराइल सरकार के पक्ष में बार-बार वीटो का इस्तेमाल किया पामर तथा पर्किन्स के अनुसार, “किसी भी बात ने संयुक्त राष्ट्र में लोक विश्वास को कम करने में उतना योग नहीं दिया है, में जितना कि सुरक्षा परिषद् में वीटो के बार-बार उपयोग अथवा दुरुपयोग ने।” डब्ल्यू. आरनोल्ड फास्टर के अनुसार, वीटो का भय सम्पूर्ण व्यवस्था पर छाया हुआ है। ऐसी व्यवस्था के रक्त में ही पक्षाघात है। यह उस कार के समान है जिसका स्टार्टर किसी भी समय उसकी यंत्र व्यवस्था में गड़बड़ करके उसके इंजन को रोक सकता है। वीटो की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है-
(1) वीटो की व्यवस्था के कारण सुरक्षा परिषद् में बड़े राष्ट्रों का आधिपत्य जम गया है और बहुमत का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। केल्सन ने लिखा है कि वीटो के द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में पाँच स्थायी सदस्यों को निषेधाधिकार प्राप्त हो गया है और इस प्रकार अन्य सदस्यों पर उनकी कानूनी प्रभुता स्थापित हो गयी है। चार्टर के द्वारा सब सदस्यों को समान माना गया है पर वीटो की व्यवस्था इस सिद्धान्त का उल्लंघन करती है।
(2) वीटो के प्रयोग से सुरक्षा परिषद् का कोई भी स्थायी सदस्य किसी भी कार्यवाही को विफल कर सकता है और विश्व लोकमत की उपेक्षा कर सकता है।
(3) वीटो महाशक्तियों की निरंकुशता और स्वच्छन्दता का परिणाम है। इसे महाशक्तियों ने अपनी शक्ति के बल पर अन्य सदस्यों पर लाद दिया है। क्योंकि कोई भी महाशक्ति वीटो की अनुपस्थिति में संघ का सदस्य बनने के लिए तैयार नहीं थी। वीटो की तुलना ऐसी शादी से की गयी है जो बन्दूक के बल पर की गयी है।
(4) महाशक्तियों ने वीटो का दुरुपयोग किया है। वीटो के कारण सुरक्षा परिषद् शान्ति और सुरक्षा की व्यवस्था के अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ हो गयी। त्रिग्बे ली के शब्दों में, “वीटो के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ नपुंसक है। यह महाशक्तियों के संघर्ष द्वारा पक्षाघातग्रस्त कर दिया गया है।”
(5) वीटो के प्रयोग ने सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को नष्ट कर दिया। अब राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए नाटो, सीटो, सेण्टो जैसे प्रादेशिक सुरक्षा संगठनों की रचना करने लगे। सन् 1946 में फिलिपीन्स के प्रतिनिधि ने तो यहाँ तक कहा कि “वीटो एक फ्रेंकेन्सटीन दैत्य’ है… यह संयुक्त राष्ट्र में सभी व्यावहारिक कार्यवाहियों को रोक देता है …।”
सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यों की वीटो पॉवर के आलोचकों का कहना है कि यह व्यवस्था समाप्त होने से सुरक्षा परिषद में बहुमत से फैसले हो सकेंगे। सुरक्षा परिषद का रूप बदलने के पक्ष में भी तर्क दिए गए हैं। अभी तक पाँच में से एक भी स्थाई सदस्य ने वीटो पॉवर खत्म कराने में दिलचस्पी नहीं दिखाई है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर में किसी भी बदलाव के लिए पाँचों स्थायी सदस्यों की सहमति जरूरी है।
निषेधाधिकार के पक्ष में तर्क : अनिवार्यता
सुरक्षा परिषद् से वीटो की व्यवस्था को हटा देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रभावशाली सदस्य बनाये रखने के लिए यह व्यवस्था आवश्यक थी। वीटो की व्यवस्था न होने पर अमकरीका और ब्रिटेन जिन्हें विश्व के राष्ट्रों का बहुमत प्राप्त था, सोवियत संघ और उसके सहयोगी राष्ट्रों को हर मौके पर पराजित कर सकते थे। इस हालत में संयुक्त राष्ट्र में संघ पश्चिमी गुट के हाथों में एक कठपुतली बन जाता और सोवियत संघ का उसमें शामिल होना व्यर्थ होता। वीटो की व्यवस्था ने सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र संघ में उतना ही प्रभावकारी बना दिया जितना प्रभावकारी अमरीका और ब्रिटेन का बहुमत था। ए.ई. स्टीवेन्सन ने कहा है कि “स्वयं वीटो हमारी कठिनाइयों का आधारभूत कारण नहीं है। यह सोवियत संघ के लोगों के साथ दुर्भाग्यपूर्ण एवं दीर्घ स्थिति विभेदों का प्रतिबिम्ब मात्र ही है।” संक्षेप में, वीटो के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना के लिए महाशक्तियों के बीच पारस्परिक सहयोग हो । महाशक्तियों के सहयोग के बिना सामूहिक व्यवस्था सम्भव नहीं है। राष्ट्र संघ की विफलता का एक कारण अमरीका और रूस का उससे पृथक् रहना था। स्टीवेन्सन के शब्दों में, “यदि पाँच बड़े राष्ट्र अपने महत्त्वपूर्ण हितों से सम्बन्धित किसी मामले में राजी नहीं होते तो उनमें से किसी के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग एक बड़े युद्ध को जन्म देगा।”
(2) वीटो की व्यवस्था ने शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में बड़े राष्ट्रों का सहयोग निश्चित करके यह भी तय कर दिया कि सुरक्षा परिषद का जो भी निर्णय होगा वह बहुत सोच-विचारकर और पूर्ण जिम्मेदारी के साथ होगा, वह ऐसा निर्णय नहीं कर सकेगी जिसे पूरा करने की शक्ति उसमें न हो। चूँकि उसके निर्णयों के लिए 5 बड़े राष्ट्रों का सहयोग अनिवार्य है अतएव उन निर्णयों को कार्यान्वित करने में उन पर सामूहिक दायित्व होगा। अतः उसकी कार्यवाहियों की सफलता प्रायः निश्चित हुआ करेगी।
(3) वीटो कई बार अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्वक हल करने में वरदान भी सिद्ध हुआ। संयुक्त राष्ट्र के आरम्भिक वर्षों में यह कहा जाता था कि यदि वीटो को हटा दिया जाय तो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाये रखने का कार्य सुगम हो जायेगा, किन्तु यदि ऐसा होता तो इसमें एक गुट की प्रधानता हो जाती, वीटो ने संघ में विभिन्न पक्षों में संतुलन बनाये रखा और किसी भी गुट को अपना मनमाना कार्य करने से रोका उदाहरणार्थ, सुरक्षा परिषद् में कश्मीर के प्रश्न पर जब ब्रिटिश अमरीकन गुट ने पाकिस्तान का समर्थन करना चाहा तो सोवियत संघ ने 1958 में दो बार वीटो के प्रयोग से अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को संभाला।
(4) वीटो का प्रयोग बड़ी शक्तियां एक-दूसरे पर अंकुश बनाये रखने के लिए करती हैं। यदि कभी वीटो को समाप्त करने का प्रयास सफल भी हुआ तो चीन निश्चित ही संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का त्याग कर देगा एवं इस बात में दो मत नहीं हो सकते कि चीन के अभाव में संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व नगण्य हो जायेगा। संयुक्त राष्ट्र को बनाये रखने के लिए वीटो की बुराइयों को स्वीकार करना ही सार्थक है। पं. जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि संयुक्त राष्ट्र बिल्कुल न होने से लंगड़ा संयुक्त राष्ट्र ही अच्छा है।
(5) वीटो संयुक्त राष्ट्र की समस्त कार्यवाहियों को प्रभावित नहीं करता। संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेन्सियों, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय, न्यास परिषद, आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् एवं महासभा में वीटो की व्यवस्था नहीं है।
(6) यदि हम वीटो रहित सुरक्षा परिषद् की कल्पना करें तो हमें आभास होगा कि किसी बड़े अशुभ को रोकने के लिए छोटे अशुभ के रूप में वीटो एक आवश्यकता है। उदाहरण के लिए यदि अमरीका अपने सभी स्थायी सदस्यों की सहायता से एवं अपने बहुमत के प्रभाव से कोई ऐसा निर्णय कराने में सफल हो जाता है जिसे चीन स्वीकार नहीं करना चाहता या उक्त निर्णय चीन के हितों के प्रतिकूल है तो निश्चित ही चीन अपनी हर सम्भव शक्ति से उस निर्णय के क्रियान्वयन को रोकने का प्रयास करेगा जिससे स्वाभाविक रूप से दोनों गुटों, पूरब एवं पश्चिम के मध्य बड़ा संघर्ष हो सकता है जो अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का स्वरूप ग्रहण कर ले। ऐसी स्थिति में सुरक्षा परिषद् के निर्णयों की अवहेलना होगी जिससे उसका महत्त्व घट जायेगा। उक्त अप्रिय घटनाओं से बचने के लिए यही उचित होगा कि चीन अपने निषेधाधिकार के द्वारा उस प्रस्ताव को ही समाप्त कर दे।
(7) इसके अतिरिक्त, ‘शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव’ स्वीकृत होने एवं ‘लघु असेम्बली’ की स्थापना से वीटो का महत्त्व गौण पड़ गया है। अब वीटो का प्रभाव मुख्य रूप से सदस्यता के सम्बन्ध में रह गया है। विश्व शान्ति के सम्बन्ध में अब महासभा को अत्यन्त विस्तृत अधिकार मिल गये हैं जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई काम रुक नहीं सकता। वीटो के कायम रहते हुए भी महासभा द्वारा बहुत-से कामों को सम्पन्न कराया जा सकता है।
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