राजनीति विज्ञान / Political Science

शीत युद्धोत्तर काल के एक ध्रुवीय विश्व की प्रमुख विशेषतायें  का वर्णन कीजिए।

शीत युद्धोत्तर काल के एक ध्रुवीय विश्व की प्रमुख विशेषतायें
शीत युद्धोत्तर काल के एक ध्रुवीय विश्व की प्रमुख विशेषतायें

द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद सम्पूर्ण विश्व दो गुटों में बंट चुका था। एक गुट का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था तो दूसरे गुट का नेतृत्व सोवियत संघ के पास था। इन दोनों महाशक्तियों के आपसी सम्बन्धों को शीत युद्ध की संज्ञा प्रदान की गयी। शीत युद्ध एक ऐसी स्थिति थी जिसे उष्ण शांति के रूप में जाना जाने लगा। ऐसी स्थिति में न तो पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही वास्तविक युद्ध होता है, बल्कि युद्ध और शान्ति के बीच की स्थिति बनी रहती है।

शीत युद्ध शब्द का प्रयोग पहली बार अमेरिकी राजनेता बर्नार्ड बाहय द्वारा किया गया परन्तु इसे प्रो. लिप्पमैन ने लोकप्रिय बनाया। उसने इसका प्रयोग सोवियत संघ के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों का वर्णन करने के लिए किया। सोवियत संघ तथा पश्चिमी शक्तियों के बीच युद्ध काल में जो सहयोग तथा एक-दूसरे को समझने की भावना विद्यमान थी वह युद्ध के साथ ही धीरे-धीरे समाप्त होने लगी तथा उसका स्थान परस्पर अविश्वास तथा शंका ने ले लिया। ऐसी परिस्थिति पैदा हो गयी जिसमें प्रत्येक एक-दूसरे को हीन तथा पराजित करने का प्रयास करने लगा। इस प्रकार यह तनाव दिनों दिन बढ़ता गया और इसका अन्त शीत युद्ध के अन्त के साथ हुआ। शीत युद्ध के खतम होने के बाद विश्व में एक नई परिस्थिति का निर्माण हुआ और विश्व एक ध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ गया।

शीत युद्धोत्तर काल के एक ध्रुवीय विश्व की प्रमुख विशेषतायें

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एक गतिशील एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है। समय एवं परिस्थिति के अनुरूप इसका स्वरूप बदलता रहा है और स्वाभाविक तौर पर विश्व व्यवस्था भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होती रही हैं। शीत युद्ध के अन्त में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं सम्बन्धों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया है साथ ही विश्व व्यवस्था के प्रकृति को भी। अब न तो विश्व व्यवस्था दो ध्रुवीय रही है और न ही बहुध्रुवीय बल्कि आज यह पूरी तरह एक ध्रुवीय हो चुकी है और शीतयुद्धोत्तर काल में अमेरिका इस एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा है। दूसरी बात यह है कि शीतयुद्धोत्तर काल में विश्व व्यवस्था का जो स्वरूप उभरा है उसमें कई तरह की नई प्रवृत्तियाँ देखी गयीं। इस एकध्रुवीय विश्व की निम्न विशेषतायें परिलक्षित होती हैं-

(1) शीत युद्ध के समाप्ति के पश्चात् सोवियत संघ का विघटन एवं पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी दुर्ग के ढह जाने का एक स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि अमेरिका को चुनौती देने वाली शक्ति का अभाव हो गया और अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। खाड़ी युद्ध एवं यूगोस्लाविया संकट में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए यह माना जाने लगा कि विश्व व्यवस्था का स्वरूप एकध्रुवीय हो गया । आज अमेरिका विश्व के प्रायः हर महत्त्वपूर्ण मामलों में, द्विपक्षीय सम्बन्धों में, द्विपक्षीय संघर्षों में तथा विश्व स्तर की आर्थिक गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है और उसकी इस भूमिका को सम्बद्ध राष्ट्र स्वीकार भी करने लगे हैं। किन्तु रूस एवं चीन जैसे देशों ने विश्व व्यवस्था के एकध्रुवीय स्वरूप का विरोध किया है तथा बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन करते हुए एकध्रुवीय व्यवस्था को समाप्त किए जाने का आह्वान किया है।

(2) यद्यपि वर्तमान विश्व व्यवस्था को एकध्रुवीय माना जा सकता है, फिर भी यह ऐसी एकध्रुवीय व्यवस्था है जिसमें बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर झुकाव स्पष्ट तौर पर नजर आ रहा है। आज विश्व में एकध्रुवीय व्यवस्था का विरोध हो रहा है। रूस एवं चीन की शक्ति बढ़ती जा रही है। और वे सक्रिय रूप से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने लगे हैं। भारत एवं पाकिस्तान परमाणु परीक्षण कर आणविक क्लब में शामिल हो चुके हैं। यूरीपिय संघ, शक्ति सम्पन्न होता चला जा रहा है तथा रूस अपनी सत्ता की पुनर्स्थापना के लिए इच्छुक प्रतीत होता है। ऐसे में एक बार फिर बहुकेन्द्रवाद या बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर झुकाव साफ नजर आने लगा है।

(3) शीत युद्धोत्तर काल में विश्व व्यवस्था का जो स्वरूप उभरा है उसमें अन्तर्राष्ट्रीय जगत में आर्थिक सम्बन्धों का महत्त्व काफी बढ़ गया है। आर्थिक तत्त्व अब राजनीतिक सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। परस्पर निर्भरता युग में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि कोई एक राष्ट्र अपनी समस्त जरूरतों की पूर्ति खुद नहीं कर सकता फलतः आर्थिक सहयोग की धारणा को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बल मिला है। आज सभी छोटे बड़े राज्य अनी आर्थिक जरूरतों एवं आर्थिक विकास के सम्बन्ध में एक-दूसरे के साथ व्यापक स्तर पर सहयोग करने लगे हैं। पुनः वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के विश्वव्यापी नारे में भी विश्व व्यवस्था में आर्थिक तत्त्व के महत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है और इस बात का अहसास एकध्रुवीय विश्व की महाशक्ति अमेरिका को भी हो गया है। बाजार की खोज ने सामरिक दादागिरी को किनारे कर दिया है। सारे देश विश्व के अधिकतम बाजारों पर अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं फलस्वरूप आर्थिक शक्ति राजनीतिक शक्ति पर हावी हो चुकी है।

(4) शीत युद्धोत्तर काल में विश्व व्यवस्था का स्वरूप सहयोगात्मक हो गया है चूँकि विचारधारा का ठहराव खत्म हो चुका है, अतः पूर्वी यूरोप एवं पश्चिमी यूरोपीय देशों के बीच सहयोग का वातावरण तैयार हुआ है। पूर्वी यूरोप में प्रजातांत्रिक मूल्यों के अंगीकरण, बर्लिन की दीवार टूटने व जर्मनी का एकीकरण आदि घटनाओं ने यूरोपीय देशों को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में ला दिया है। फलतः यूरोपीय देशों के विकसित एवं अविकसित देशों के बीच व्यापक स्तर पर राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग का वातावरण तैयार हुआ है।

(5) नवोदित विश्व के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया तेज हो गयी है और क्षेत्रवाद एवं क्षेत्रीय संगठनों का महत्त्व बढ़ गया है। पश्चिमी यूरोप आर्थिक एकता की अवधारणा का सकल संचालन दूसरे राष्ट्रों के लिए उत्साहजनक रहा है। इसमें यूरोपीय साझे बाजार, यूरोपीय आर्थिक समुदाय तथा वर्तमान में यूरोपीय संघ (EV) की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आसियान, आफ्टा (AFTA), ओपेक G-8, G-15, G-77, नाफ्टा (NAFTA) जैसे क्षेत्रीय संगठनों की बढ़ती हुई अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका को इस परिप्रेक्ष्य में दोष पाया जा सकता है। इन सभी क्षेत्रीय संगठनों का मुख्य उद्देश्य क्षेत्रीय सहयोग एवं क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देना है।

(6) इसके अतिरिक्त शीतयुद्धोत्तर काल में जिस विश्व व्यवस्था का विकास “हुआ है उसमें विश्व बंधुत्व एवं शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एकमात्र वैश्विक मूल्य के रूप में उभरा है। परमाणु मुक्त विश्व की स्थापना पर जोर दिया जा रहा है। समस्त विश्व में लोकतंत्रीकरण, उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है। नये अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक परिप्रेक्ष्य का निर्माण हुआ है। उत्तर-दक्षिण सहयोग, दक्षिण-दक्षिण सहयोग का विकास हुआ है तथा विश्व में आर्थिक शीत युद्ध आरम्भ होने की पृष्ठभूमि का निर्माण हो चुका है जो एक नई विश्व की परिकल्पना को साकार करने का प्राथमिक चरण माना जा सकता है।

उपरोक्त सभी बिन्दुओं का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि शीत युद्धोत्तर काल में विश्व व्यवस्था के जिस रूप का विकास हुआ है उसका स्वरूप अभी अनिश्चित सा है। शीत युद्धोत्तर काल में उभरी नई अन्तर्राष्ट्रीय प्रवृत्तियाँ इस विश्व व्यवस्था को एक सकारात्मक लोकतांत्रिक एवं विकासवादी स्वरूप देने का प्रयास कर रही है जिसकी प्रकृति अभी निश्चित नहीं की जा सकती क्योंकि यह अभी अपने विकास के चरण में है। यह सच है कि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था को एकध्रुवीय माना जा रहा है किन्तु विश्व जगत् में अभी भी बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर झुकाव साफ परिलक्षित होता है। यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि शीत युद्धोत्तर काल की वैश्विक व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप कैसा होगा।

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