शीतयुद्धोत्तर काल में निःशस्त्रीकरण हेतु किये गये प्रयास
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद निःशस्त्रीकरण हेतु अनकों प्रयास किए गए जिनका विवरण निम्नवत् है-
( 1 ) वारसा और नाटो में ऐतिहासिक सन्धि
19 नवम्बर, 1990 को पेरिस में वारसा व नाटो सन्धि देशों के 34 शासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए सन्धि में जाँच-पड़ताल की भी व्यापक व्यवस्था की गयी ताकि कोई भी पक्ष उसका उल्लंघन न कर सके। सन्धि पर हस्ताक्षर करने के बाद अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा कि इस सन्धि से यूरोप से आपसी सद्भाव व मैत्री का एक नया युग आरम्भ होगा।
(2) सामरिक हथियारों में कटौती की ऐतिहासिक स्टार्ट
प्रथम सन्धि – 31 जुलाई, 1991 को मास्को में अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योद ने शिखर सम्मेलन में ‘सामरिक हथियारों में कटौती की ऐतिहासिक स्टार्ट-1 सन्धि पर हस्ताक्षर किये। सन्धि की शर्तों के अनुसार दोनों महाशक्तियाँ अपने परमाणु शस्त्रों की स्वेच्छा से 30 प्रतिशत कटौती करने को सहमत हो गयी। यह पहला बड़ा औपचारिक समझौता है जिसके माध्यम से सर्वाधिक खतरनाक एवं विनाशकारी शस्त्रों में इतनी कटौती के लिए स्वेच्छा से सहमति हुई।
( 3 ) अमरीका द्वारा सामरिक हथयारों में भारी कटौती की घोषणा
28 सितम्बर, 1991 को अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने घोषणा की कि अमरीका अपने सामरिक परमाणु हथियारों में एकतरफा भारी कटौती कर रहा है जिससे ‘विश्व को परमाणु युग में इतनी बेहतर स्थिति प्रदान की जा सके जितनी पहले कभी नहीं रही।’ एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण की मुख्य बातें निम्नलिखित हैं- (1) यूरोप और विश्व में कहीं विद्यमान अमरीका के कम दूरी तक मार करने वाले सभी सामरिक परमाणु हथियारों को समाप्त करना; (2) जहाजों और पनडुब्बियों से छोड़ी जाने वाली सभी समुद्री परमाणु मिसाइलों की समाप्ति; (3) सभी अमरीकी युद्धक बम बर्षकों को चौबीसों घण्टे चौकसी की हालत में न रखने वाला फैसला; (4) लम्बी दूरी तक मार करने वाले सभी बी-52 और अन्य बम वर्षकों को निष्क्रिय हालत में रखना; (5) ‘स्टार्ट’ सन्धि के अन्तर्गत जिन हथियारों को निष्क्रिय करने पर सहमति हुई थी उन्हें निर्धारित अवधि से पहले ही नष्ट करने का फैसला। सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव ने भी पहल को ‘अन्तर्राष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान’ बतलाया। बुश की
( 4 ) सोवियत संघ द्वारा परमाणु शस्त्रों में कमी करने की सहमति
अमरीका के राष्ट्रपति ‘बुश’ ने सितम्बर, 1991 में कम दूरी के परमाणु प्रक्षेपास्त्र नष्ट करने की घोषणा की थी। इसी के प्रत्युत्तर में सोवियत राष्ट्रपति गार्बाच्योव ने अपने देश के के परमाणु हथियारों में भी कमी करने की घोषणा की। गोबच्योव ने अग्रलिखित प्रस्तावों पर सहमति प्रकट की- (1) जंगी जहाजों और बहु-उद्देश्यीय पनडुब्बियों से भी सामरिक हथियारों को हटा लिया जाएगा, (2) भारी बम वर्षकों को तैयारी की स्थिति से हटा दिया जाएगा (3) सोवियत संघ के छोटे आकार के सचल अन्तरमहाद्वीपीय बेलेस्टिक प्रक्षेपात्रों को सक्रिय नहीं किया जाएगा; (4) सामरिक महत्त्व के आक्रामक हथियारों में और कटौती की जाएगी। सोवियत संघ की इस घोषणा का अमरीका ने स्वागत किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने इसे एक रचनात्मक कदम बताया।
( 5 ) मास्को में ऐतिहासिक स्टार्ट-दो सन्धि पर हस्ताक्षर
3 जनवरी, 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति बुश और रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने भव्य क्रेमलिन पैलेस (मास्को) में ऐतिहासिक सन्धि स्टार्ट-दो पर हस्ताक्षर किए स्टार्ट दो परमाणु हथियारों में कटौती सम्बन्धी पहली सन्धि का अगला चरण है जिस पर जुलाई 1991 में राष्ट्रपति जार्ज बुश और तत्कालीन सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव ने हस्ताक्षर किए। स्टार्ट-दो जिसे राष्ट्रपति येल्तसिन ने शताब्दी की ‘सन्धि’ कहा है, इसका उद्देश्य दोनों देशों के परमाणु हथियारों में दो-तिहाई कटौती करना है, यानी वर्तमान लगभग 20,000 को कम करके 6,500 रखना है (अमरीका के 3,000 और रूस के 3,000 ) । इस प्रकार अमरीका के शस्त्रागार में परमाणु हथियारों की संख्या उतनी ही रह जाएगी, जितनी 1970 में थी। स्टार्ट-दो पर हस्ताक्षर होना अन्तर्राष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण की दिशा में स्मरणीय घटना है, इसका महत्त्व और क्षेत्र स्टार्ट- एक तथा सुप्रसिद्ध आई.एन.एफ. सन्धि से अधिक व्यापक है।
(6) रासायनिक हथियान निषेध ( 13 जनवरी, 1993)
रासायनिक हथियारों के विकास, उनका निर्माण, भण्डारण एवं उनके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने से सम्बन्धित सन्धि 29 अप्रैल, 1997 से लागू हो गई है। इस सम्बन्ध में 13 अप्रैल, 1993 को पेरिस में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे जिसमें 160 देशों की सहमति थी लेकिन इसे लागू करने के लिए कम से कम 65 देशों द्वारा इसका अनुमोदन किया जाना जरूरी था। 65 देशों के अनुमोदन के बाद इस सन्धि के कानूनी रूप लेने की अवधि 180 दिन थी। इस हिसाब से यह 29 अप्रैल, 1997 से प्रभावी हो गई है।
इस सन्धि के मसौदे में रासायनिक हथियारों के लिए अनुसंधान, उनका भण्डारण एवं उनके हस्तान्तरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का प्रावधान रखा गया है। मसौदे में सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले रासायनिक हथियारों के जखीरे नष्ट कर देंगे। रासायनिक हथियारों के नियंत्रण के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था बनाई गई है। इस संस्था का मुख्यालय हेग में है।
रासायनिक हथियारों के विनाश की दिशा में विश्वस्तर पर किए गए इन प्रयासों को एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना गया, लेकिन अमरीका एवं रूस के बिना यह सन्धि काफी हद तक खोखली सिद्ध होगी क्योंकि हथियारों पर पाबन्दी लगाने वाले 65 देशों में अमरीका व रूस शामिल नहीं है। अमरीका एवं रूस की तरह के कई देश ऐसे हैं जिन्होंने इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं और वे देश चोरी छिपे रासायनिक हथियारों के विकास एवं उत्पादन में लगे ऐसे देशों में लीबिया, सीरिया, इराक तथा उत्तर कोरिया प्रमुख हैं। हुए हैं।
(7 ) व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (सी.टी.बी.टी.)
सी.टी.बी.टी. अर्थात् व्यापक आणविक परीक्षण सन्धि, विश्व भर में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लाया गया सन्धि या समझौता है जिसको 1993 में भारत, अन्य देशों में उत्तरी अमरीका के साथ सह प्रस्तावक था, लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए [कि यह सन्धि सार्वभौमिक परमाणु निःशस्त्रीकरण के समयबद्धता से जुड़ी हुई नहीं है, सह-प्रस्तावक बनने से ही इंकार कर दिया।
अगस्त 1996 में जेनेवा में इस विवादास्पद सन्धि के मसौदे पर विचार चलता रहा। भारत ने सी. टी.बी.टी. के प्रस्तावित मसौदे पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया क्योंकि प्रस्ताव मसौदे में परमाणु निःशस्त्रीकरण का कोई प्रावधान नहीं रखा गया। भारत का दूसरा विरोध यह था कि यह सन्धि बहुत ही संकीर्ण है और यह केवल नये विस्फोट रोकने की कोशिश करती है, पर नये तकनीकी विकास एवं नये परमाणु शस्त्रों के विकास पर चुप है। सन्धि का स्वरूप परमाणु राष्ट्रों की तकनीकी उपलब्धता को बरकरार रखकर उनके हितों की रक्षा करने के लिए अधिक है। न कि सम्पूर्ण निःशस्त्रीकरण के लिए। भारत के विरोध के कारण सन्धि को पारित करवाने संयुक्त राष्ट्र महासभा में ले जाना पड़ा। अब तक 142 देशों ने सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये हैं। भारत, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया ने सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। महासभा में बहस के दौरान इन देशों ने भारत द्वारा उठाई गई आपत्तियों को सही बताया। विश्व की सभी परमाण शक्तियाँ जहाँ दुनिया को परमाणु अप्रसार की सीख देती हैं वहीं दूसरी ओर 1945 के बाद से उन्होंने हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण किए हैं। पर्माणु विषयों की एक अग्रणी अमरीकी पत्रिका के अनुसार 1945 के बाद से दुनिया में कम से कम 2046 तक परमाणु परीक्षण हुए हैं। इनमें से 8.5 प्रतिशत परीक्षण पूर्व सोवियत संघ द्वारा किए गए। एक नवीनतम जानकारी के अनुसार अमरीका ने 1030, सोवियत संघ ने 715, फ्रांस ने 210, ब्रिटेन ने 45 तथा चीन ने 45 परीक्षण किए हैं। कुछ परमाणु परीक्षणों की संख्या में भारत द्वारा किया गया परमाणु परीक्षण भी शामिल है। इस प्रकार से अमरीका ने हर 18 दिन पर, सोवियत संघ ने हर 22 दिन पर, फ्रांस ने हर 57 दिन, पर चीन ने हर 29 दिन पर और ब्रिटेन ने हर आठ दिन पर एक परमाणु परीक्षण किया। 1992 में दुनिया में कुल आठ परमाणु परीक्षण किए गए। इनमें से अमरीका ने 6 बार तथा चीन ने 2 बार परीक्षण किए।
सिपरी की ताजा रिपोर्ट में विश्वव्यापी परमाणु प्रसार की सम्भावनाओं के बारे में चिन्ताजनक आँकड़े प्राप्त किये गए हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार इजराइल के पास हथियार बनाने लायक पर्याप्त सामग्री है जिससे 1000 परमाणु बम बनाये जा सकते हैं। उसके अनुसार भारत 60 और पाकिस्तान 10 परमाणु बम बना सकता है। परमाणु बम बनाने के लिए दो प्रमुख सामग्रियाँ- प्लेटेनियम और परभार फ्यूरेनियम जिनका विश्व में कुल भण्डार इस समय क्रमशः 1,000 से 1,300 टन है। इससे 50 हजार परमाणु बम बनाये जा सकते हैं।
इस प्रकार परमाणु हथियारों के वर्तमान भण्डार से दुगुने हथियार और बनाये जा सकते हैं। यह स्थिति अत्यन्त खतरनाक है, किन्तु स्पष्ट है कि देहलीज पर खड़ी शक्तियों (जैसे इजराइल, पाकिस्तान, भारत आदि) के पास इन पदार्थों का एक नगण्य भण्डार ही है। इसकी बहुतायत तो परमाणु हथियार सम्पन्न राष्ट्रों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस तथा चीन) के पास ही है। अतः परमाणु अप्रसार के बारे में कोई भी बड़ी शुरुआत इन्हीं पाँच बड़ी परमाणु शक्तियों की ओर से होनी चाहिए। वस्तुतः इन राष्ट्रों को अपने वास्तविक परमाणु भण्डारों और उन्हें चरणबद्ध रूप में नष्ट करने की सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए। परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने का यही एकमात्र रास्ता है। आज दुनिया में शस्त्रों का सबसे बड़ा व्यापारी देश है अमरीका, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध में 3,639 अरब रुपये का रहा। दूसरा क्रम इंग्लैण्ड का रहा, जिसका इस अवधि में हथियारों का यह व्यापार 160 अरब रुपये की शुद्ध सामग्री विदेशों में बेची। इसके बाद 1995 तक उसका यह व्यापार 3,000 अरब रुपये का रहा। 1955 में तत्कालीन सोवियत संघ तथा फ्रांस भी इस व्यापारिक प्रतियोगिता में शामिल हो गए, फिर भी शीर्ष पर अमरीका ही रहा जिसने 1967 से अब तक लगभग 50 अरब डॉलर की धनराशि इस मद में केवल तीसरे विश्व के देशों से कमायी। दूसरे नम्बर के व्यापारी देश अविभाजित सोवियत संघ और अब रूस की आमदनी लगभग 35 अरब डॉलर रही। हथियारों के इस व्यापार और उससे निरन्तर बढ़ रही हथियारों की होड़ ने गरीब देशों की अर्थव्यवस्था को अत्यधिक छिन्न-भिन्न कर दिया है।
परमाणु हथियारों में कमी करने की अमरीकी व रूसी घोषणाओं से विश्व शान्ति की सम्भावनायें बढ़ी हैं। यह सही है कि उक्त कटौतियों के बावजूद मानव संहार के लिए पर्याप्त परमाणु भण्डार बचे रहेंगे, फिर भी आगे इनमें और कमी होने और अन्ततः परमाणु हथियार विश्व स्थापित होने की सम्भावना को बल मिला है। फ्रांस व चीन ने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने की सहमति जताई है; अमरीका चाहता था कि भारत भी उसे स्वीकार कर ले। परन्तु भारत ने एक ओर जहाँ परमाणु निःशस्त्रीकरण के नये प्रयासों की सराहना की है, वहीं दूसरी ओर यह भी कहा है कि यह सन्धि भेदभावपूर्ण है और राष्ट्रों को परमाणु शस्त्र युक्त व परमाणु शस्त्रविहीन, दो वर्गों में बाँटती है, जो न्यायसंगत नहीं है।
साथ ही भारत ने 11 मई, 98 को परमाणु करके, निःशस्त्रीकरण की संभावना को कम किया है। परमाणु सम्पन्न राष्ट्र होने के यदि भारत के अनुरोध को अन्य देश मान लें, तो भारत सी.टी.बी.टी. सन्धि पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो जायेगा, ऐसे मामलों में भारत का मुँह ताकने वाला पाक भी भारत की नकल करता रहा है। वह विश्व में भारत को परमाणु सम्पन्न राष्ट्र न होने देने की आवाज उठायेगा, भारत व पाक दोनों को परमाणु सम्पन्न राष्ट्र घोषित करना 5 व 8 के देशों को आराम से लाभकर नहीं होगा। ऐसी स्थिति में अमेरिका, भारत, पाक व कोरिया पर सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर करने हेतु निरन्तर दबाव बनाये हुए हैं। तथापि संदर्भों में निःशस्त्रीकरण मिथक बनकर रह गया है।
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