महादेव गोविन्द रानाडे के आर्थिक विचार
रानाडे का आर्थिक दर्शन- रानाडे भारतीय आर्थिक चिन्तन के क्षेत्र में भारत की आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने वाले प्रथम अर्थशास्त्री थे। उनके द्वारा भारतीय आर्थिक जीवन का वर्गीकृत विवरण भावी अर्थशास्त्रियों का मार्गदर्शक बना। उनके प्रमुख आर्थिक विचार अग्रलिखित हैं—
भारत की दरिद्रता के लिए उत्तरदायी कारण
रानाडे ने भारत की आर्थिक अवनति और दरिद्रता पर गम्भीरता से विचार किया तथा उसके कारणों पर प्रकाश डाला। दादाभाई नौरोजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ में भारत की दरिद्रता के लिए जिस ‘निर्गम सिद्धान्त (Drain Theory) का प्रतिपादन किया था उससे रानाडे सहमत नहीं थे। उन्होंने इस दृष्टिकोण को भ्रामक बतलाया कि जब तक हम इंग्लैण्ड को भारी कर देते रहेंगे तब तक हमारे दुर्भाग्य का अन्त नहीं होगा। रानाडे ने स्पष्ट कहा ‘इस भार कर एक अंश तो उस धन का ब्याज है जो हमें उधार दिया जाता है अथवा हमारे देश के उद्योग-धन्धों में लगाया जाता है। अतः हमें शिकायत न करके उल्टे इस बात के लिए आभारी होना चाहिए कि एक ऐसा साहूकार है जो ब्याज की अल्प दर पर हमारी आवश्यकताएं पूरी कर देता है।” रानाडे के अनुसार भारत की दरिद्रता के छः प्रमुख कारण थे।
(1) धन उत्पादन के एकमात्र साधन के रूप में कृषि पर निर्भर रहना ।
(2) नये उद्योगों को लगाने के लिए पूंजी का अभाव।
(3) ऋण की पुरानी व्यवस्था ।
(4) कुछ क्षेत्रों में जनाधिक्य ।
(5) साहस और जोखिम उठाने की क्षमता का अभाव, तथा
(6) परम्परागत सामाजिक ढांचे और गतिशील अर्थव्यवस्था के बीच असामंजस्य ।
रानाडे ने इन कारणों का विश्लेषण करते हुए कहा कि दरिद्रता वस्तुतः देशवासियों के अज्ञान के कारण है। हमारा पिछड़ापन ही हमें गरीब बनाए हुए हैं। ब्रिटिश सरकार की यह नीति भी देश की दरिद्रता के लिए उत्तरदायी है कि वह कच्चा माल भारत से ले जाती है और इंग्लैण्ड के निर्मित माल के लिए भारत को बाजार बनाती है। रानाडे का विचार था कि देश का आर्थिक कल्याण तभी हो सकेगा जबकि उद्योग, व्यापार तथा कृषि, तीनों का एक साथ विकास किया जाये।
कृषि अर्थशास्त्र सम्बन्धी विचार
रानाडे ने देश की कृषि की दयनीय स्थिति और उसकी निश्चित प्रकृति को भारत की गरीबी का एक प्रमुख कारण बताया है। उनके अनुसार देश अनन्य रूप से कृषि पर निर्भर था और कृषि की स्थिति अनिश्चित थी। किसानों की दशा बड़ी भयावह थी और वह ऋण के बोझ से कुचले जा रहे थे। ग्रामीण उद्योग समुचित पूंजी के अभाव में नष्ट प्रायः हो चुके थे और सरकार भू-राजस्व बढ़ाती जा रही थी। इसलिए रानाडे चाहते थे कि किसानों को ऋण से उबारने के लिए कानून बनाए जायं और भूराजस्व व्यवस्था का तत्काल सुधार किया जाय।
रानाडे के अनुसार सरकार इस सिद्धान्त पर चलती है कि सभी भूमि सरकारी है और इसलिए वह यथासम्भव अधिक से अधिक कर लगाती है और समय-समय पर उसे और भी बढ़ाती चलती है। रानाडे चाहते थे कि सरकार इस सिद्धान्त को छोड़ दे, भूमि पर खेतिहरों का स्वामित्व स्वीकार करे, युक्तिसंगत दर पर भूमि कर लगाये। उन्होंने सरकार को यह विश्वास भी दिलाना चाहा कि इस प्रस्ताव पर अमल होने से उसके राजस्व में कमी नहीं रहेगी।
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