रानाडे के समाज सुधार सम्बन्धी विचार
राजनीतिक उन्नति के लिए सामाजिक सुधार आवश्यक- रानाडे समाज सुधारक थे। उनका विचार था कि राजनीति तथा समाज सुधार को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। रानाडे के अनुसार समाज-सुधार राष्ट्रीय चरित्र की दृढ़ता और शुद्धीकरण का एक साधन था। वे चाहते थे कि यदि भारत में सामाजिक सुधार राजनीतिक उन्नति से पहले नहीं हो सकता। तो कम से कम उसके साथ-साथ अवश्य चलना चाहिए। सामाजिक सुधार और राजनीति के बीच अंटूट सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए, रानाडे ने कहा, “जब आप अपने को राजनीतिक अधिकारों की तुला पर कमजोर पाते हैं तो आप सामाजिक व्यवस्था भी अच्छी नहीं बना सकते और जब तक आपकी सामाजिक व्यवस्था तर्क और न्याय पर आधारित नहीं है, तब तक आप राजनीतिक अधिकारों का उपयोग करने के योग्य भी नहीं हो सकते। यदि आपकी सामाजिक व्यवस्था अच्छी नहीं है, तो आप अच्छी आर्थिक व्यवस्था की स्थापना नहीं कर सकते। यदि आपके धार्मिक विचार निम्न स्तर के और तुच्छ हैं तो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। यह पारस्परिक निर्भरता आकस्मिक नहीं है। यह हमारी प्रकृति का नियम है।” राजनीतिक स्वतन्त्रता, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय शक्ति के संगठन के लिए उनकी दृष्टि में सामाजिक सुधार अपरिहार्य था। उनकी दृष्टि में भारत पिछड़ेपन का सबसे प्रबल कारण राजनीतिक दासता न होकर सामाजिक विषमता और कुसंस्कार थे। इन्हें दूर करने के लिए रानाडे ने संगठनों का निर्माण किया और साहसी नवयुवकों को प्रेरित किया।
रानाडे के अनुसार मानव जीवन एक सम्पूर्ण इकाई है तथा राजनीतिक एवं सामाजिक सुधार को एक दूसरे से पृथक रखना असम्भव है। रानाडे ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जिस प्रकार हम एक गुलाब के फूल के सौन्दर्य को उसकी सुगन्ध से अलग नहीं कर सकते, उसी प्रकार राजनीति को भी सामाजिक सुधार से अलग करना असम्भव है। रानाडे के अनुसार “यदि आपकी सामाजिक व्यवस्था अपूर्ण है तो आपकी आर्थिक व्यवस्था भी उत्तम नहीं हो सकती है यदि आपकी सामाजिक व्यवस्था विवेक तथा न्याय पर आधारित नहीं है तो आप राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करने के योग्य नहीं हो सकते।”
प्राचीनता का विरोध नहीं- रानाडे सुधारवादी थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सामाजिक सुधार का अर्थ यह नहीं है कि अतीत से पूर्णतः सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाये। “सच्चे सुधारक को” उन्होंने कहा, “कोरे कागज पर लिखाई शुरू नहीं करनी है। उसका काम तो आधे वाक्य को पूरा करना है।” वे पुनरुज्जीवन में दकियानूसी विश्वास नहीं रखते थे। वे कहते थे कि कुछ बातें समाज के परिवर्तन के साथ बदलती हैं। नये युग में नई बातें रहती हैं। उनके बाहरी तौर-तरीके बदल जाते हैं चाहे मूल ज्यों का त्यों रहे। कुछ प्राचीन बातें छोड़नी भी पड़ती हैं क्योंकि सुधार की हर युग में पुकार रही है वह हो पाये या न हो पाये। उनका कहना था सच्चे वे ही हैं जो नवीन अवस्था के अनुसार जाति-प्रथा तथा समाज को देखकर सुधार करते हैं। सभी प्राचीन बातों को ज्यों का त्यों अपनाना श्रेयष्कर नहीं है।
रानाडे ने समाज सुधार की दृष्टि से जो कार्य किया वह महाराष्ट्र जैसे पुरातनपन्थी राज्य की स्थिति को देखते हुए अत्यन्त क्रान्तिकारी कदम था। समाज-सुधार सम्बन्धी रानाडे के विचार निम्नलिखित है-
मनुष्यों की समानता पर जोर
जिन सामाजिक सुधारों पर रानाडे ने जोर दिया उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे—मनुष्य की समानता की स्थापना- जिसमें जातिपांत दूर करना, बाल विवाह रोकना, स्त्रियों को पर्दे से निकालना और स्त्रियों की शिक्षा, मनुष्य को पतित करने वाले सारे बुद्धि विरुद्ध तथा निष्ठुर रीति-रिवाजों को दूर करना, आदि ।
विधवा पुनर्विवाह एवं बाल विवाह
रानाडे ने नारी जाति के उद्धार के लिए विधवाओं के पुनर्विवाह पर विशेष जोर दिया। वे 1866 में स्थापित विधवा पुनर्विवाह समिति के सदस्य बन गये। बाल विवाह के कारण भारत में बाल-विधवाओं की बढ़ती समस्या को देखकर उन्होंने बाल विवाह का घोर विरोध किया। रानाडे ने कहा कि “नारी जाति पर किये गए जुल्मों से हमारा भारतीय समाज अपमानित हुआ है।” उनके अभिमत में हिन्दू समाज अतीत की दासता से तभी मुक्ति पा सकता है जब तथाकथित धार्मिक आदेशों के बन्धन को एक-एक कर छोड़ दिया जाये। उन्होंने सरकार से निम्नलिखित कार्यों को करने की सिफारिश की
(i) विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित की जाय-16-18 वर्ष की आयु लड़कों के लिए तथा 10 से 12 वर्ष तक की आयु लड़कियों के लिए।
(ii) विवाह संस्कार सम्पन्न करने से पूर्व दोनों पक्षों के लिए नगर परिषद या जिला परिषद से लाइसेन्स प्राप्त करना अपरिहार्य हो ।
(iii) 45 वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों का कुमारियों से विवाह करना कानूनी रूप से निषेध कर दिया जाये।
(iv) पहली पत्नी के रहते हुए दूसरे विवाह की अनुमति शास्त्रों द्वारा निर्धारित कुछ विशेष स्थितियों में ही प्रदान की जाय- विशेषकर जब कि पहली पत्नी में कुछ दोष हों।
नारी शिक्षा
नारी शिक्षा एक सामाजिक समस्या थी। उसके रास्ते की रुकावट आर्थिक कठिनाई नहीं बल्कि लोकमत था और रानाडे ने इस दिशा में कोकमत को जागृत करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। इस दिशा में उनका पहला व्यावहारिक कदम था— स्वयं अपनी पत्नी को शिक्षित करना ।
समाज सुधार के लिए व्यवस्थापन
रानाडे कहा करते थे कि अंग्रेज न हमारे शासक हैं बल्कि पथ-प्रदर्शक भी है। वे सरकारी कानूनों की सहायता से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के पक्षपाती थे। इस विषय पर उनका एक लेख ‘स्टेट लेजिस्लेशन इन सोशल मेटर्स’ विशेष महत्व का है। वे मानते थे कि शिक्षा के विस्तार एवं जनसाधारण की प्रबुद्धता के कारण सुधारों का मार्ग और भी प्रशस्त होगा, किन्तु केवल इतना मात्र मानकर मौन नहीं रहना चाहिए। इस स्थिति को उपयोगी बनाने एवं शिथिलता के बन्धनों को तोड़ने के लिए राज्य द्वारा उचित व्यवस्थापन आवश्यक एवं अपरिहार्य था। जिस प्रकार सती प्रथा, बाल वध, आदि को रोकने के लिए राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ा, उसी प्रकार अन्य सामाजिक कुरीतियों जैसे बहु विवाह, बाल-विवाह, विधवा प्रथा, आदि को भी राज्य के हस्तक्षेप द्वारा नियन्त्रित करने की आवश्यकता है।
रानाडे के अनुसार बच्चे तथा विधवा स्त्रियाँ स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती और न कानून का स्वयं सहारा लेने में समर्थ हैं। ऐसी परिस्थिति में राज्य का यह कर्तव्य है कि वह दलित एवं शोषित वर्गों की ओर सहायता का हाथ बढ़ाये और उन्हें आश्रय एवं संरक्षण प्रदान करे यदि पारसी, खोजा मुसलमान तथा भारतीय ईसाइयों द्वारा शासन के माध्यम से सामाजिक व्यवस्थापन (Social legislation) का लाभ उठाया जा सकता है तो फिर, रानाडे के अनुसार, हिन्दुओं को इस कार्य में पीछे नहीं रहना चाहिए। रानाडे ने 1897 के अपने नागपुर भाषण में कहा कि सामाजिक सुधारों के लिए व्यवस्थापन को अन्तिम अस्त्र के रूप में ही प्रयुक्त किया जाये। जब तक सुधारों के लिए अन्य उपाय कारगर रूप से उपलब्ध हों तब तक व्यवस्थापन का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
रानाडे के विपरीत उस काम के अन्य समाज सुधारकों ने सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में अंग्रेजी शासन के हस्तक्षेप को उचित नहीं ठहराया। तिलक जैसे विचारक भी सामाजिक क्षेत्र में अंग्रेजी शासन के हस्तक्षेप को उचित नहीं मानते थे। तिलक के अभिमत में किसी भी सुधार के स्थायी होने के लिए उसकी सामाजिक स्वीकृति आवश्यक थी।
समाज सुधार प्रणालियां
रानाडे के समाज सुधार दर्शन के सन्दर्भ में कुछ अन्य महत्वपूर्ण समाज सुधार पद्धतियों की चर्चा करना प्रासंगिक होगा जिनके बारे में रानाडे अपने व्याख्यानों में बार-बार चर्चा किया करते थे। रानाडे के अनुसार किसी भी समाज के सामने समाज परिवर्तन के चार ही रास्ते हैं और ये हैं-
(1) पहला रास्ता स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा भण्डारकर ने सुझाया था कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों को समझने तथा उनकी अद्यतन मीमांसा की आवश्यकता है। तभी हम अपने समाज में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। उदाहरणार्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से दयानन्द सरस्वती ने जाति प्रथा तथा ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड की जमकर निन्दा की थी वेदों की ओर वापिस चलो का प्रसिद्ध नारा दिया था।
रानाडे ने विधवा विवाह आदि सुधारों के सम्बन्ध में इसी पद्धति का अनुकरण किया। रानाडे ने मनु का उल्लेख करते हुए कहा कि उनके आदेशों के अनुसार ऐसी स्त्रियों को त्याग और बलिदानमय जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करना धर्म और न्याय की हंसी उड़ाना है।
(2) दूसरा रास्ता सुझाने वाले थे सर्वश्री गोपाल कृष्ण गोखले, तेलंग तथा ए. ओ. ह्यूम, इत्यादि। ये लोग कानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाने के पक्षधर थे।
(3) तीसरा रास्ता लोगों के अन्तःकरण को प्रभावित करने का था। इस प्रणाली के अन्तर्गत लोगों को समझा-बुझाकर इस बात के लिए राजी करना था कि वे नैतिक सिद्धान्तों पर चलने का निश्चय करें, उसके लिए प्रतिक्षा करें और वैसा ही आचरण करें।
(4) चौथे रास्ते को उन्होंने विद्रोह का नाम दिया था, जिससे उनका आशय उस अवस्था से था जबकि सुधार में आस्था रखने वाले लोग हिन्दू समाज से पृथक होकर धार्मिक आधार पर अपना एक स्वतन्त्र समाज बना लें। बंगाल में ब्रह्म समाज वालों ने इसी रास्ते को अपनाया था।
रानाडे ने प्रथम तीन मार्गों का समर्थन तो किया, किन्तु अन्तिम अर्थात् विद्रोह के मार्ग का नहीं। राज्य द्वारा कानून बनाये जाने का समर्थन रानाडे अन्तिम विकल्प के रूप में ही करना चाहते थे। जबकि अन्य विकल्प असफल हो चुके हों।
समाज सुधार की धीमी गति
रानाडे के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सदैव धीमी होना चाहिए। रानाडे के शब्दों में, “जहाँ निश्चित रूप से विकास करना हो वहां विकास की गति सदा धीमी होगी।”
धर्म परिवर्तन का विरोध
रानाडे के हृदय में सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता की भावना थी। ईसा मसीह और ईसाई धर्म के लिए उनके मन में बड़ा आदर था, किन्तु धर्म परिवर्तन के प्रयत्नों के वे घोर विरोधी थे। धर्म परिवर्तन कराने वाली किसी भी संस्था से उन्हें कोई लगाव नहीं था।
इण्डियन सोशल कॉन्फ्रेंस की स्थापना
1885 में कांग्रेस का जन्म हो चुका था। कांग्रेस का प्रमुख कार्य राजनीतिक था, परन्तु कुछ सामाजिक कार्य भी इसके द्वारा किया जाने लगा। फिर भी सरकारी कर्मचारी इसमें भाग नहीं ले पाते थे। इसलिए रानाडे ने कांग्रेस से अलग ही रहकर समाज सुधार का कार्य करने का निश्चय किया। सन् 1885 में जब बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो रानाडे तथा दीवान बहादुर रघुनाथ ने समाज सुधार की आवश्यकता पर बल दिया और इसी विषय के व्याख्यान दिये। जब 1887 में मद्रास में कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन हुआ तो निश्चय किया गया कि ‘सामाजिक समिति’ की स्थापना की जाये तो समाज के क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त करें। फलतः ‘इण्डियन सोशल कॉन्फ्रेन्स’ स्थापित हुई और इसके प्रथम सभापति तंजौर के राजा माधवराव के०सी०एस० आई० बने। कांग्रेस के माध्यम से ही इसका अधिवेशन होता रहा। इस कॉन्फ्रेस के तरह अधिवेशनों में रानाडे उपस्थिति होकर व्याख्यान देते रहे। रानाडे ने कॉम्फ्रेन्स के उद्देश्यों के विषय में कहा था कि इसका उद्देश्य सुधार सम्बन्धी जागृति उत्पन्न करना है। “कॉन्फ्रेन्स का उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों से जूझने वाले देश भर में बिखरे विभिन्न संगठनों और आन्दोलनों के प्रतिनिधियों को पारस्परिक मन्त्रणा और परामर्श के लिए प्रतिवर्ष एक जगह एकत्र कर, देश में सुधार चाहने वाली शक्तियों को सुदृढ़ बनाना तथा में प्रोत्साहित करना था।” अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कॉन्फ्रेन्स आर्य समाज, प्रार्थना समाज ब्रह्म समाज, देव समाज, सनातन धर्म सभा, आदि संस्थाओं से सहायता लेने में तत्पर रहेगी।
संक्षेप में, रानाडे सामाजिक सुधार को राष्ट्रीय चरित्र के साथ सम्बद्ध करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि सामाजिक सुधार राष्ट्रीय चरित्र की सुदृढ़ता और शुद्धि का एक साधन है। अपने इसी मूलभूत विश्वास के कारण रानाडे ने यह मन्तव्य प्रतिपादित किया कि “समाज सुधार के बिना राजनीतिक आजादी निरर्थक है।” भारत राष्ट्र के सामाजिक तथा राजनीतिक विकास को कम से कम साथ-साथ अवश्य चलना चाहिए।
रानाडे के युग की समस्या थी कि (अ) क्या राजनीतिक आजादी की लड़ाई को प्राथमिकता दी जाये अथवा क्या सामाजिक सुधारों की लड़ाई को लड़ा जायेगा? (ब) तथा इस सामाजिक सुधारों की लड़ाई में राज्य की क्या भूमिका होनी चाहिए? (स) अगर उत्तर ‘हा’ में है तो भी क्या हमें इसके लिए विदेशी शासकों की शरण में जाना चाहिए तथा इसका औचित्य क्या है? ये सारे सवाल मूलतः लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उठाते थे उनकी यह निश्चित मान्यता थी कि अगर सामाजिक सुधार लाने के लिए हम इतने व्यग्र हैं तो भी हमें इसके लिए विदेशी शासकों की मदद कदापि नहीं होनी चाहिए तथा हमें उसके लिए व्यापक जनमत तैयार करना चाहिए। तिलक का यह भी कहना था कि जब शिकायतकर्ता राज्य के पास फरियाद लेकर नहीं जाते हैं तो भी राज्य हस्तक्षेप के लिए क्यों आतुर है।
रानाडे ने राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “वह सामूहिक योग्यता का प्रतिनिधित्व करता है तथा वह श्रेष्ठजनों की शक्ति, बुद्धि दया तथा स्पष्टता का ही दूसरा नाम है।” अतः उन्होंने अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था।
“व्यक्ति जिन मामलों का तेजी से निपटारा नहीं कर सकता है तथा जब उसके पास कोई अन्य विकल्प भी नहीं रहता है तब सुस्पष्ट रूप से निर्धारित क्षेत्र में राज्य नियन्त्रणकारी कदम’ उठा सकता है।” फिर उन्होंने यह भी सवाल उठाया था, “क्या इस प्रकार की नीति निर्धारण के भी समय क्या विदेशी शासक अपने खुद के हितों की पूर्ति के लिए आमादा तो नहीं हैं या कि वे निस्वार्थ भावना से ऐसे कदम उठा रहे हैं।”
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