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महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार | Religious Thoughts of Mahadev Govind Ranade in Hindi

महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार
महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार

महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार

रानाडे के धार्मिक विचार- रानाडे के धार्मिक विचारों के अध्ययन के बिना उनके राजनीतिक एवं सामाजिक विचार स्पष्ट नहीं हो सकते। रानाडे अपने धार्मिक विचारों में अन्धविश्वास तथा असहिष्णुता का सदैव प्रतिकार करते रहें। वे हिन्दू तथा मुसलमानों के साम्प्रदायिक विरोध का पक्ष नहीं लेते थे। पाश्चात्य शिक्षा एवं साहित्य ने उन्हें इतना अधिक उदार बना दिया था कि वे हिन्दू साम्प्रदायिक के रंग में नहीं रंगे। इसी कारण वे पुनरुत्थानवादी वे के स्थान पर सुधारवादी कहे जाने लगे। भारत की प्राचीन मान्यताओं को उन्होंने इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया कि वेद व पुराणों की संस्कृति बदलते हुए समाज के साथ नहीं चल सकती।

यद्यपि प्रारम्भ में रानाजे पाश्चात्य प्रभाव के कारण ईसाई धर्म को श्रेष्ठ मानते थे, किन्तु उनके विचारों में आकस्मिक परिवर्तन आया और उन्होंने माना कि ईसाई धर्म में जीवनमृत्यु की समस्याओं का उचित निराकरण नहीं मिलता। वे प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये। प्रार्थना समाज के कतिपय प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार थे, जो उसे सनातन हिन्दू धर्म से भिन्नता प्रदान करते थे

1. ईश्वर ही इस ब्रह्माण्ड का रचयिता है।

2. ईश्वर की आराधना से ही इस संसार और दूसरे संसार में सुख प्राप्त हो सकता है।

3. ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा, उसमें अनन्य आस्था-प्रेम, श्रद्धा और आस्था की भावनाओं सहित आध्यात्मिक रूप से उसकी प्रार्थना और उसका कीर्तन, ईश्वर को अच्छे लगने वाले कार्यों को करना यह ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।

4. मूर्तियों अथवा अन्य मानव सृजित वस्तुओं की पूजा करना, ईश्वर की आराधना का सच्चा मार्ग नहीं है।

5. ईश्वर अवतार नहीं लेता और कोई भी एक पुस्तक ऐसी नहीं है, जिसे स्वयं ईश्वर ने रचा अथवा प्रकाशित किया हो अथवा पूर्णतः दोषरहित हो।

6. सभी मनुष्य ईश्वर की सन्तान हैं, अतः उन्हें बिना किसी भेद-भाव के आपस में भाई भाई की तरह व्यवहार करना चाहिए। इससे ईश्वर प्रसन्न होता है और यही मनुष्य का कर्तव्य है।

इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त प्रार्थना समाज के सदस्यों के लिए मूर्तिपूजा, करना, जाति भेद का मानना, बाल विवाह, विधवा प्रथा, आदि को बढ़ावा देना निषिद्ध था।

रानाडे ने इन्हीं विचारों को व्यवस्थित करने की दृष्टि से सन् 1868 ‘ए थीईस्ट्स कॉनफेशन ऑफ फेथ’ (A Theist’s Confession of faith) शीर्षक से एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया। इस लेख में रानाडे ने धार्मिक ज्ञान, ईश्वर, परमात्मा तथा आत्मा का सम्बन्ध तथा पाप आदि का विवेचन किया।

रानाडे के नेतृत्व में प्रार्थना समाज ने जाति प्रथा, बाल विवाह, मूर्तिपूजा तथा हिन्दू समाज की अनय कुरीतियों के विरुद्ध आन्दोलन में जीवन भूमिका अदा की। यह सिद्ध करने के लिए उनके विचार शास्त्रों के पूर्णतः अनुरूप थे, उन्होंने विद्वात्तापूर्ण ग्रन्थ लिखे, जैसे ‘विधवाओं के पुनर्विवाह के समर्थन में वेद और बाल विवाह के विरुद्ध शास्त्रों का मत।

पुनरुत्थानवादियों की आलोचना करते हुए, रानाडे ने तर्क दिया- ‘हमसे जब अपनी संस्थाओं और रस्म रिवाजों का पुनरूत्थान करने को कहा जाता है तो लोग बहुत परेशान हो जाते हैं कि आखिर किस चीज का पुररुत्थान करें। क्या हम जनता की उस समय की पुरानी आदतों का पुनरूत्थान करें, जब हमारी सबसे पवित्र जातियाँ हर किस्म के गर्हित— जैसा कि हम अब उन्हें समझते हैं—कार्य करती थीं, अर्थात् पशुओं का ऐसा भोजन और ऐसा मंदिरा पान कि हमारे देश के समस्त पशु पक्षी और वनस्पति ही खत्म हो जायें? उन पुराने दिनों के देवता और मनुष्य ऐसी भयानक वर्जित वस्तुओं को इतनी मात्रा में खाते और पीते थे, जिन्हें कोई भी पुनरूत्थानवादी अब दुबारा इस तरह खाने पीने की सलाह नहीं देगा। क्या हम पुत्रों को उत्पन्न करने की बारह विधियाँ अथवा विवाह की आठ विधियों का पुनरूत्थान करें जिनमें लड़की को जबरदस्ती उठा ले जाना सही माना जाता था और मिश्रित तथा अनैतिक सम्भोग को स्वीकार किया जाता था? क्या हम वियोग का पुनरूत्थान करें जिसके अन्तर्गत अपने भाइयों की विधवा पत्नियों से हमें पुत्रोत्पत्ति करनी चाहिए? क्या हम उन्मुक्तता का पुनरूत्थान करें, जो विवाह बन्धनों के मामलों में ऋषियों और पत्नियों के बीच व्याप्त थी? क्या हम वर्ष प्रतिवर्ष बलि दिये जाने पशुओं के अम्बारों को फिट खड़ा करके बलि प्रथा का पुनरूत्थान करें जिसमें देवताओं के प्रसादन के लिए मनुष्यों की बलि चढ़ाने में भी संकोच नहीं किया जाता था? क्या हम वामांगी शक्ति पूजा का पुनरुत्थान करें जिसकी वीभत्सताओं और व्यावहारिक विषय सम्भोग की कोई सीमा नहीं थी? क्या हम सती प्रथा और बाल हत्याओं का पुनरूत्थान करें अथवा जीवित मनुष्यों को नदी में अथवा चट्टान पर से फेंकने की प्रथा का पुनरूत्थान करें अथवा उसे कांटे से फांसकर घुमाकर मार डालने अथवा जगन्नाथ के रथ के नीचे कुचलकर मार डालने की प्रथा का पुनरूत्थान करें? क्या ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच अनवरत युद्धों का अथवा आदिवासी जनसमुदाय को कुचलने और रौंद डालने का पुनरूत्थान करें। क्या हम एक पत्नी पर बहुत से पति थोपने का पुनरुत्थान करें? अथवा एक पति के गले में अनेक पत्नियों को मढ़ देने की प्रथा का पुनरूत्थान करें? इन उदारणों से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पुरानी प्रथाओं और रस्म रिवाजों का पुनरूत्थान करने से हमारा कल्याण नहीं होगा, न ही यह व्यावहारिक रूप में सम्भव है। रानाडे ने धर्म के सम्बन्ध में कहा था, “हिन्दुओं के लिए धर्म उनके प्राणों से भी अधिक के प्रिय है।” उन्होंने शिक्षण

संस्थाओं में धार्मिक शिक्षण का सुझाव भी दिया। रानाडे ईश्वरवादी थे। वे इतिहास को ईश्वर के विधान का प्रतिफल मानते थे। आत्मा की अमरता में उनका अटूट विश्वास था। ईश्वर की नैतिक सत्ता तथा अन्तःकरण की प्रेरणा उनकी आध्यात्मिक विचारधारा के केन्द्रबिन्दु हैं।

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