महादेव गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार
महादेव गोविन्द रानाडे के सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन में मिश्रण दिखलायी देता है। हीगल, बोसाके तथा केशवचन्द्र सेंन की भाँति रानाडे को भी विश्वास था कि इतिहास में ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है। इसीलिए उन्होंने ईश्वर में आस्था थी। वे किसी मानवीय शक्ति को ईश्वर के आदेश से ऊँचा मानने के लिए तैयार नहीं थे। भारतीय इतिहास के उतार-चढ़ाव में भी उन्हें दैवीय इच्छा तथा विवेक की कार्यान्विति दिखायी देती थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि भारत अवश्य ही उन्नति करेगा। 1893 के लाहौर सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने कहा था “मुझे अपने धर्म के दो सिद्धान्तों में पूर्ण विश्वास है। हमारा यह देश सच्चे अर्थ में ईश्वर का चुना हुआ देश है; हमारी इस जाति का परित्राण विधि के विधान में है। यह सब निरर्थक नहीं था कि ईश्वर ने इस प्राचीन आर्यावर्त पर अपने सर्वोत्कृष्ट प्रसादों की वर्षा की थी।” रानाडे के राजनीतिक विचारों का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
1. राजनीति तथा प्रशासन में समन्वय
देश पर अनेक आक्रमण हुए उसका तात्कालिक प्रभाव विनाशकारी था, लेकिन उसका दुरगामी प्रभाव यह हुआ कि संस्कृति की विभिन्न धाराएं आपस में मिल गयीं और जीवन में राजनीतिक तथा सामाजिक समन्वय स्थापित हो गया। उनका कहना था कि भारतवासियों ने जीवन के लौकिक क्षेत्रों में विज्ञान तथा प्रविधि में और नगर – प्रशासन तथा नागरिक गुणों में पर्याप्त श्रेष्ठता का परिचय नहीं दिया था। अतः मैकियावेली की भाँति रानाडे ने भी राजनीतिक तथा नागरिक गुणों के विकास पर बल दिया। सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना की यह शिक्षा भारत-ब्रिटेन सम्बन्ध के साथ ही उत्पन्न हो सकती थी। इसीलिए भारत में ब्रिटिश शासन के पीछे ईश्वर का मुख्य उद्देश्य इस देश को राजनीतिक शिक्षा देना है। अपने देश से गम्भीर प्रेम के बावजूद रानाडे यह मानते थे कि ब्रिटिश शासन से भारत को अनेक नियामतें उपलब्ध हुई हैं। वे भारत में ब्रिटिश शासन को ईश्वर की देन मानते थे।
2. राज्य की प्रकृति पर विचार
राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में रानाडे ने प्रत्ययवादी तथा व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का समन्वय किया है। वे निर्मम प्रतिस्पर्धा और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के विरुद्ध थे। वे राज्य की अवयवी प्रवृत्ति में विश्वास करते थे। इसलिए जर्मन विचारकों के आदर्शों से उन्हें सहानुभूति थी। 1896 में कलकत्ता के सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने हीगल की भावना को व्यक्त करते हुए कहा कि, “आखिरकार राज्य का अस्तित्व इसलिए है कि वह अपने सदस्यों को उनके प्रत्येक जन्मजात गुण का विकास करके अधिक श्रेष्ठ, सुखी, समृद्धि और श्रेष्ठ बनाये।” यह महान् उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है जब राजनीतिक समाज के सभी मानव अधिकाधिक ईमानदारी और सच्चाई के साथ प्रयत्न करे।
राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में रानाडे के भावनात्मक दृष्टिकोण का परिचय इस बात से मिलता है कि उन्होंने औद्योगीकरण, उपनिवेश, आर्थिक जीवन के नियोजित संगठन, समाज सुधार तथा उद्योगों के संरक्षण के क्षेत्र में राज्य के अभिक्रम का समर्थन किया।
3. स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा
स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में रानाडे का विचार न्यायिक था। उनके अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ नियन्त्रण या शासन का अभाव नहीं है बल्कि उसका अर्थ है मनुष्य को असहाय की भाँति दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े और सत्ता तथा शक्ति को धारणा करने वालों के अनुचित व्यवहार से उसकी रक्षा की जाय। इस प्रकार रानाडे का दृष्टिकोण माण्टेस्क्यू तथा संविधानवादियों से मिलता-जुलता है।
1893 में उन्होंने कहा था— स्वतन्त्रता का अभिप्राय कानून बनाना, कर लगाना, दण्ड देना तथा अधिकारियों को नियुक्त करना है। स्वतन्त्रता तथा परतन्त्र देश में वास्तविक अन्तर यह है कि यहाँ दण्ड देने से पहले उसके सम्बन्ध में कानून बना लिया जाय, कर लेने से पहले अनुमति ले ली गयी हो और कानून बनाने से पहले मत ले लिये गये हों, वही देश स्वतन्त्र है।
रानाडे का विचार था कि शिक्षा की व्यवस्था सरकार द्वारा की जाय और समाज सुधार तथा सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की दिशा में प्रभावकारी कदम उठाये जायँ। सामूहिक रूप से राज्य अपने सर्वोत्तम नागरिकों की शक्ति, विवेक, दया और उदारता का प्रतिनिधित्व करता है।
4. नौकरशाही की साम्राज्यवादी व्यवस्था त्रुटिपूर्ण
रानाडे के समय नौकरशाही की साम्राज्यवादी व्यवस्था थी, जिससे भारतवासियों की आत्मा को गहरा आघात पहुँचता था।
भारत में ब्रिटिश शासक वर्ग अहंकार, घमण्ड नीचता तथा तिरस्कार की भावना का जो प्रदर्शन किया करता था उसका भी उन्होंने विरोध किया। देश की जनता का वह शिक्षित वर्ग जिसका अपना स्वतन्त्र प्रेस और समुदाय है तथा जिसे देश की बहुसंख्या जनता की सहज सहानुभूति प्राप्त है। यह भारतीय उदारवाद का प्रतिनिधित्व है।
इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिकारी वर्ग की प्रचण्ड, शक्तियाँ खड़ी है। इन अधिकारियों को वहाँ रहने वाले अपने गैर सरकारी देशवासियों का समर्थन प्राप्त है ही साथ ही साथ उनके मातृदेश के निहित स्वार्थों की दुर्भावना और शक्ति भी उनकी सहायता और समर्थन के लिए सदैव तत्पर रहती है। रानाडे भारतीय लोक प्रशासन में सुधार करना चाहते थे।
विवेकानन्द की भाँति रानाडे ने भी भारत के लिए उज्ज्वल भविष्य की कल्पना की थी। उन्हें विश्वास था कि भारतवासियों की शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों को पूर्णत्व की सीमा तक विकसित किया जा सकता है। उनके अनुसार देश के पुनरुद्धार और नवीनीकरण का यही एक मात्र उपाय था। 1896 में कलकत्ता के सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने भारत के भविष्य का गौरवपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया था।
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