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गोपाल कृष्ण गोखले एक उदारवादी चिन्तक थे। इस कथन की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

गोपाल कृष्ण गोखले एक उदारवादी चिन्तक थे।
गोपाल कृष्ण गोखले एक उदारवादी चिन्तक थे।

गोपाल कृष्ण गोखले एक उदारवादी चिन्तक थे।

गोखले एक उदारवादी चिन्तक- गोपाल कृष्ण गोखले भारतीय राजनीतिक के महान उदारवादी, व्यावहारिक आदर्शवादी और राजनीतिक गुरू थे, जिन्होंने तत्कालीन भारतीय राजनीति और प्रशासन में क्रमिक सुधारों का पक्ष लिया तथा एक-एक स्वराज्य की माँग को अव्यावहारिक माना। अंग्रेजों की न्यायप्रियता और समुचित आचरणशीलता के प्रति उनकी निष्ठा इतनी अधिक थी कि वह यह मानने के लिए तैयार न थे, कि भारत में अंग्रेज अधिकारियों को सुधार सकना सम्भव नहीं है।

ब्रिटेन के साथ भारत के सम्बन्धों को वह सर्वथा हितकर मानते थे और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक संघर्ष के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय उन्हें रुचिकर नहीं था। क्रान्ति या विप्लव के विचारों से वे कोसों दूर थे। सार्वजनिक जीवन का वे आध्यात्मीकरण करना चाहते थे। उनकी धार्मिक प्रवृत्ति और साधु-वृत्ति के कारण ही महात्मा गाँधी ने उनको अपना राजनीतिक गुरू माना था।

गोपाल कृष्ण गोखले व्यावहारिक राजनीतिक बुद्धि के धनी थे, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों की न्याय और उदारता की वना को उकसा कर उन्हें भारत को अपने साम्राज्य के भीतर ही स्वशासन देने को तैयार करना चाहते थे। गोखले का विचार था कि उग्रवादी साधनों से भारत का ही अहित होगा, आवश्यकता यह है कि उदारवादी अंग्रेजों के साथ उदारवादी भावना से काम किया जाये। गोखले ने प्रजातांत्रिक आधारों पर निर्मित साम्राज्यवाद को निम्न कोटि का साम्राज्यवाद कहा।

उन्हें ब्रिटिश सरकार से भारतीयों के प्रति समानता की भावना की अपेक्षा थी। इस बात से उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचता था कि अंग्रेज भारतवासियों को शासित मानकर उनके प्रति हीन व्यवहार करें। भारत में ब्रिटिश सरकार की स्थापना का लक्ष्य भारतीयों का कल्याण होना चाहिए था, इस लक्ष्य के समक्ष अन्य सभी बातों को गौण होना चाहिए। गोखले की मान्यता थी कि जब ब्रिटिश सरकार भारतीयों के साथ हर क्षेत्र में समानता का व्यवहार करने लगेगी, तभी वह यथार्थ रूप में भारतीयों के हृदय में सम्मानित स्थान पा सकेगी।

1. ब्रिटिश उदारवाद में विश्वास भारत-ब्रिटिश सहयोग तथा पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन- गोखले अपने समकालीन उदारवादियों की भाँति ब्रिटिश शासन के कल्याणकारी स्वरूप में विश्वास करते थे। उनकी धारणा थी कि ब्रिटेन के साथ सम्पर्क बनाये रखने से भारतीयों की बौद्रिक प्रतिभा चमकेगी, दृष्टिकोण विकसित होगा और भावी भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। गोखले ने भारत के लिए ब्रिटिश सम्पर्क को एक दैविक व्यवस्था माना जिसके अन्तर्गत ही भारतीय अपनी प्रगति के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते थे। भारत को विश्व राष्ट्रों के समुदाय के बीच एक सम्मानित स्थान प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सहायता और सम्पर्क अपेक्षित था।

2. गोखले ब्रिटिश सम्पर्क को इसलिए भी भारत के लिए वरदान स्वरूप मानते थे कि उसके कारण भारत में पाश्चात्य शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान का प्रवेश हुआ। पाश्चात्य शिक्षा गोखले की दृष्टि में एक मुक्तिदायिनी शक्ति थी और भारत में इसका विस्तार होना चाहिए। गोखले का अभिमत था कि देश की तत्कालीन दशा में पाश्चात्य शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य । भारतीय मानस को पुराने जीर्ण-शीर्ण विचारों की दासता से मुक्त करना और उसमें पाश्चात्य जीवन चरित्र और चिन्तन के सर्वोत्तम तत्वों को अनुप्राणित करना था।

राष्ट्रीय एकता में विश्वास- गोपाल कृष्ण गोखले ने रानाडे की ही भाँति देशवासियों के नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक योग्यताओं के विकास पर पर्याप्त बल दिया। उनका कहना था। कि कठोर परिश्रम, त्याग, सामाजिक स्फूर्ति और नैतिक विकास के बल पर ही राष्ट्रीयता की सुदृढ़ नींव डाली जा सकती है। राष्ट्रवाद के लिए एक पवित्र भावना आवश्यक है, जिसका प्रबल उदय तभी सम्भव है। जब भारतीयों की सामाजिक क्षमता में वृद्धि हो और उनके नैतिक चरित्र का उत्थान हो। राष्ट्रीय दृढ़ता और निष्ठापूर्ण प्रयासों द्वारा ही भारतीय अपनी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो सकेंगे।

गोखले ने राष्ट्रीय एकता का संदेश भी दिया। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को भारत राष्ट्र के लिए कल्याणकारी माना और स्वयं को यथासम्भव ऐसे विवादों से बचाये रखने को कहा, जिससे इन दोनों धर्मावलम्बियों के बीच कटुता पैदा होने की सम्भावना हो। राष्ट्रीय एकता एवं सार्वजनिक नीति के आध्यात्मीकरण के अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिए गोखले ने भारत सेवक समाज नामक संस्था की स्थापना की।

3. राजनीतिक का आध्यात्मीकरण- गोखले राजनीतिक में धार्मिक दृष्टिकोण लेकर प्रविष्ट हुए थे। वे राजनीतिक तथा सार्वजनिक जीवन को आध्यात्मिकता से अनुरंजित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि धर्म को राजनीति का आधार होना चाहिए और चरित्र निर्माण पर हमें सर्वाधिक बल देना चाहिए। राष्ट्र के निर्माण के लिए नैतिक चरित्र का उत्थान और सामाजिक उत्तरदायित्वों का मान आवश्यक है। गोखले राजनीतिक सन्यासी थे, जो राजनीति में नैतिक तथा उच्च उद्देश्यों को लेकर उभरे थे। वे सदैव साध्य के ऊपर साधन की प्रधानता पर बल देते थे। उनका विश्वास था कि राजनीति जन सेवा का साधन तभी बन सकती है, जब उसका आध्यात्मीकरण हो जाये।

4. स्वशासन की धारणा-अपने समकालीने उदारवादी नेताओं की भाँति गोखले भी भारत के लिए स्वशासन ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत चाहते थे। ब्रिटिश शासन उनकी दृष्टि एक ईश्वरीय देन था, अतः उनकी दृष्टि में उससे पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद भारतीयों के लिए अहितकर था। गोखले का विश्वास था कि ब्रिटिश नौकरशाही के फलस्वरूप प्रशासन में जो आर्थिक और अन्य दोष प्रवेश कर गये थे। उनका निराकरण स्वशासन द्वारा ही हो सकता था।

5. संवैधानिक साधनों में अडिग विश्वास – गोखले का संवैधानिक साधनों में अडिग विश्वास था। सावधानी, धीमा विकास और विवेक की प्रगति में उन्हें पूर्ण आस्था थी। उग्र विचारों और साधनों के वे विरुद्ध थे। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन के लक्ष्य को वे संवैधानिक तरीकों से ही प्राप्त करना चाहते थे।

संवैधानिक साधनों के प्रयोग का उनके मतानुसार सबसे बड़ा लाभ यह था कि इससे भारतीयों की अंग्रेजों की सहानुभूति से वंचित नहीं होना पड़ेगा। यदि उग्रवादी या आतंकवादी साधनों का आश्रय लिया गया तो भारतीयों को ब्रिटिश जनता से कोई समर्थन नहीं मिल सकेगा और यह स्थिति तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीयों के लिए अहितकर ही सिद्ध होगी।

6. सत्ता के केन्द्रीयकरण के विरोधी- गोखले सत्ता के केन्द्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे। भारतीयों को उनके अधिकार तभी प्राप्त हो सकते थे, जब ब्रिटिश सरकार सत्ता के विकेन्द्रीय की नीति अपनाती। गोखले की मान्यता थी कि सत्तों का केन्द्रीयकरण प्रशासकीय निरंकुशता को बढ़ाता है। प्रशासकीय स्वेच्छाचारिता पर अंकुश रखने और सत्ता के विकेन्द्रीयकरण की दिशा में बढ़ने के लिए गोखले ने विभिन्न अवसरों पर कुछ सुझाव भी प्रस्तुत किये।

7. स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन- गोपाल कृष्ण गोखले ने स्वदेशी तथा बहिष्कार आन्दोलन पर भी अपने विचार प्रकट किये। वह बहिष्कार को एक ऐसा अस्त्र मानते थे, जिसका प्रयोग और कोई चारा बाकी न रहने पर ही किया जाना चाहिए। शासितों की शिकायतों की ओर शासकों को ध्यान आकृष्ट करने का यह एक उपयोगी साधन है। गोखले इसे विधि-सम्मत हथियार मानते थे। उनका विचार था कि इसे कार्य में लाने से पहले यह आवश्यक है कि सभी ओर किसी सामान्य संकट का अनुभव किया जाये और सभी मतभेद व्यक्तिगत दुरूह कर लिये जायें।

8. मानव प्रगति के लिए स्वतंत्रता में विश्वास- गोखले महान उदारवादी थे, जिनका मानव प्रकृति के लिए स्वतन्त्रता की अनिवार्यता में गहरा विश्वास था। भारत की पराधीनता से उन्हें मार्मिक कष्ट पहुँचता था। ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से उनका आग्रह था कि वे भारत पर शासन इस तरह करे कि भारतवासी पश्चिम के उच्च आदर्शों के अनुसार स्वयं अपने पर शासन करने योग्य बन सके।

गोखले जीवन पर्यन्त अपने महान राजनैतिक और आर्थिक उद्देश्यों के लिए संघर्ष करते रहे। यद्यपि उनकी राजनीतिक धारणायें पश्चिमी विचारों से प्रेरणा लिए हुए थी। परन्तु उन्होंने पश्चिम की धारणाओं को भारतीय हितों के मापदण्ड के ऊपर रखा, पश्चिम दर्शन को परिस्थितियों के अनुसार ढालना और संशोधित करना चाहा। ब्रिटिश शासन की भारत विरोधी सभी नीतियों का उन्होंने डटकर संवैधानिक ढंग से विरोध किया और भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को अपने ढंग से ऊपर बढ़ाया। पण्डित मोतीलाल नेहरू ने गोखले के विषय में कहा था कि, “वह देशभक्ति से प्रेरित एक महान आत्मा थे। उनकी देशभक्ति सम्पूर्ण थी।” यद्यपि वह मनुष्यों के जन्मजात नेता थे, परन्तु उन्होंने मातृभूमि के निम्नतम् सेवक होने के अतिरिक्त और किसी बात के लिए कभी भी कोई चाह नहीं की। उन्होंने भारत माता की इतनी भक्ति से सेवा की अब यह इतिहास का विषय बन चुका है।

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