भारत में कितने प्रकार की मिट्टी पायी जाती हैं-
मिट्टियों के प्रकार
भारत में निम्नलिखित प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं – (1) पर्वतीय मिट्टी, (2) जलोढ़ मिट्टी, (3) काली मिट्टी, (4) लाल मिट्टी, (5) लेटेराइट मिट्टी, (6) मरुस्थलीय मिट्टी ।
(1) पर्वतीय मिट्टी –
हिमालय पर्वतीय प्रदेश में नवीन, पथरीली, दलदली तथा प्रवेश्य मिट्टियाँ पाई जाती हैं । भारत के लगभग 2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल पर इन मिट्टियों का विस्तार पाया जाता है । कंकड़-पत्थर ना तथा मोटे कणों वाली बालूयुक्त मिट्टी हिमालय पर्वत के दक्षिणी भागों में पार्ड जाती है । चूने के अंशों की प्रधानता वाली मिट्टी नैनीताल, मसूरी तथा चकराता के क्षेत्रों में पाई जाती है । हिमालय के कुछ क्षेत्रों में आग्नेय शैलों के विखण्डन से निर्मित मिट्टियाँ पाई जाती हैं । उत्तरांचल में देहरादून, हिमालय प्रदेश में कां पश्चिमी ढालों पर इस मिट्टी की अधिकता पाई जाती है । यह मिट्टी चाय के उत्पादन के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है । क्योंकि इस (पर्वतीय मिट्टी) मिट्टी में चाय की खेती अधिक होती है, इसीलिए इसे ‘चाय की मिट्टी’ के नाम से भी जाना जाता है ।
(2) जलोढ़ मिट्टी –
नदियों द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों से बहाकर लाई गई जीवांशों से युक्त उर्वर मिट्टी भारत के विशाल उत्तरी मैदान में मिलती है । इस मिट्टी को ‘कछारी’ या ‘काँप’ मिट्टी भी कहते हैं । देश का 40% भाग इस मिट्टी के अन्तर्गत आता है । जलोढ़ मिट्टी हिमालय पर्वतमाला से निकलने वाली तीन बड़ी नदियों – सतलज, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र तथा उनकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर जमा की गई है । यह मिट्टी पूर्वी तटीय मैदानों, विशेष रूप से महानदी, गोदावरी, कावेरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टाई प्रदेशों में मिलती है । ऐसे क्षेत्र जहाँ बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता वहाँ पुरानी जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है । इस मिट्टी को ‘बांगर की मिट्टी’ भी कहते हैं । सही अर्थों में यह मिट्टी भी नदियों द्वारा बहाकर लाई गई प्राचीन काँप मिट्टी ही होती है । इसके साथ-साथ जिन क्षेत्रों में नदियों ने नयी काँप मिट्टी का जमाव किया है, उसे खादर की मिट्टी के नाम से पुकारा जाता है ।
जलोढ़ मिट्टी भी दस हजार वर्ष से अधिक पुरानी है । नवीन जलोढ़ मिट्टी को प्राचीन जलोढ़ मिट्टी की अपेक्षा अधिक उपजाऊ माना जाता है । जलोढ़ मिट्टी में पोटाश, चूना तथा फॉस्फोरिक अम्ल पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं । यह मिट्टी बहुत अधिक उपजाऊ होती है । इस मिट्टी में नाइट्रोजन तथा जैविक पदार्थों की कमी होती है । क्षारीय तत्व शुष्क प्रदेशों को मिट्टियों में अधिक होते हैं । भारत को लगभग 50% जनसंख्या का भरण- पोषण काँप मिट्टियों द्वारा होता है । गेहूँ, गन्ना, चावल, तिलहन, तम्बाकू तथा जूट आदि फसलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर इन मिट्टियों की सहायता से प्राप्त किया जाता है।
(3) काली मिट्टी –
ज्वालामुखी द्वारा निकलने वाले लावे के जम जाने पर और फिर विखण्डन होने के फलस्वरूप काली मिट्टी का निर्माण होता है । इस मिट्टी का रंग काला होता है, जिस कारण इसे काली मिट्टी’ अथवा रेगुर मिट्टी कहते हैं । काली मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है । इस मिट्टी में मैग्नेशियम, चूना, लोहांश, ऐलुमिनियम तथा जीवांशत्त्वों को मात्रा अधिक होती है । यह मिट्टी दक्कन टैप के उत्तर-पश्चिमी भागों में लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल पर पाई जाती है । महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी मध्य प्रदेश के पठारी भागों में काली मिट्टी का विस्तार है । दक्षिण में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों की घाटियों में भी इस मिट्टी का विस्तार पाया जाता है । इस मिट्टी के निर्माण में पैतृक शैल कण बड़े सहायक होते हैं । इसीलिए काली मिट्टी का विस्तार लावा पठार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी हुआ है ।
काली मिट्टी को कपास की मिट्टी’ (Black Cotton Soil) भी कहा जाता है, क्योंकि इस मिट्टी में कपास की खेती भारी मात्रा में होती है । इस मिट्टी में पोषक तत्त्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं । काली मिट्टी के प्रमुख पोषक तत्व कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नेशियम कार्बोनेट, पोटाश और चूना हैं । परन्तु काली मिट्टी में फॉस्फोरिक तत्त्व की मात्रा कम होती है। ग्रीष्म ऋतु में इस मिट्टी में गहरी दरारें पड़ जाती हैं और जुताई कार्य बड़ा ही कठिन हो जाता है । कपास, गन्ना, मूंगफली, तिलहन, गेहूँ आदि फसलों का उत्पादन काली मिट्टी में किया जाता है ।
(4) लाल मिट्टी –
यह मिट्टी लाल, पीले या भूरे रंग की होती है। इसमें लोहांश की मात्रा अधिक होने और उनके ऑक्साइड में बदलने से इस मिट्टी का रंग ईंट के समान लाल हो जाता है । प्रायद्वीपीय पठार के दक्षिण- पूर्वी भागों पर लगभग 8 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में इस मिट्टी का विस्तार पाया जाता है । काली मिट्टी के क्षेत्रफल को लाल मिट्टी ने चारों ओर से घेर रखा है । इस मिट्टी का विस्तार कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के दक्षिण-पूर्वी भाग, उड़ीसा, तमिलनाडु, मेघालय, दक्षिणी उत्तर प्रदेश तथा छोटा नागपुर के पठार पर पाया जाता है ।
लाल मिट्टी में फॉस्फोरिक अम्ल, जैविक तथा नाइट्रोजन पदार्थों की मात्रा कम पाई जाती है । लाल मिट्टी में बाजरा, ज्वार, दलहन, गेहूँ तथा तिलहन आदि फसलें उगाई जाती हैं।
(5) लेटेराइट मिट्टी –
लेटेराइट मिट्टी का निर्माण उष्ण कटिबन्धीय भारी वर्षा के कारण होने वाली अपक्षालन क्रिया के फलस्वरूप होता है । इस मिट्टी का रंग गहरा पीला होता है । इस मिट्टी में सिलिका तथा लवणों की मात्रा अधिक होती है । लेटेराइट मिट्टी में कणों, कंकड़, पत्थरों की अधिकता तथा जीवांशीय तत्त्वों का अभाव पाया जाता है । हमारे देश भारत में यह मिट्टी 1.26 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल फैली हुई है । केरल, कर्नाटक, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, झारखण्ड, उत्तर-पूर्व में मेघालय तथा दक्षिणी महाराष्ट्र में यह मिट्टी पाई जाती है । लेटेराइट मिट्टी कम उपजाऊ होती है । यह मिट्टी केवल घास तथा झाड़ियों के उगने के लिए ही उपयुक्त होती है । उर्वरकों की सहायता से इस मिट्टी में गन्ना, काजू, चावल, कहवा तथा रबड़ की खेती की जाती है
(6) मरुस्थलीय मिट्टी –
मरुस्थलीय क्षेत्र में ‘कल्लर’,’थूर’, ‘राँकड़’ तथा ‘ऊसर’ जैसी अनुर्वर मिट्टियाँ पाई जाती हैं, जो लवणता तथा क्षारीय गुणों से युक्त होती हैं । इस मिट्टी में सोडियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम आदि । तत्त्वों की प्रधानता होती है । मरुस्थलीय मिट्टी में नमी तथा जीवांश तत्त्वों को कमी पाई जाती है । यह मिट्टी कोमल व प्रवेश्य होती है ।
इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता नाम-मात्र की ही होती है। बालू के मोटे कणों की मात्रा इस मिट्टी में अधिक पाई जाती है । तेज हवाएँ इस मिट्टी को सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़ा ले जाती हैं । भारत देश में इस मिट्टी का विस्तार 114 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर मिलता है । मरुस्थलीय मिट्टी में सिंचाई द्वारा मूंगफली, उड़द तथा ज्वार-बाजरा आदि फसलें उगाई जाती हैं । पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, दक्षिणी पंजाब तथा दक्षिण पश्चिमी हरियाणा में मरुस्थलीय मिट्टी पाई जाती है ।
निष्कर्ष – उपर्युक्त विवरण के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि मिट्टियाँ छ: प्रकार की होती हैं । ये सभी अपने-अपने निर्माण, गुण तथा फसलों के उत्पादन में एक-दूसरे से भिन्न होती हैं ।
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