राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जीवनी – Biography of Purushottam Das Tandon in Hindi Jivani
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन का जन्म इलाहाबाद में 1 अगस्त, 1882 को हुआ। उनके पूर्वज मूलतः पंजाब के निवासी थे। उनके पिता श्री शालिग्राम टंडन इलाहाबाद के एकाउण्टेण्ट जनरल आफिस में क्लर्क थे और राधास्वामी सम्प्रदाय के मतावलम्बी थे। पिता संत प्रकृति के थे अतः उनके व्यक्तित्व का प्रभाव बालक पुरूषोत्तम पर प्रारम्भ से ही पड़ा। बालक पुरूषोत्तम का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से हुआ क्योंकि उनके अनुज राधानाथ टण्डन उनसे छह वर्ष छोटे थे।
बालक पुरूषोत्तम की शिक्षा का प्रारम्भ एक मौलवी साहब की देख-रेख में हुआ जो उन्हें हिन्दी पढ़ाया करते थे। इसके उपरान्त इलाहाबाद की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था सी0ए0वी0 स्कूल में प्रवेश लिया। वे एक मेधावी छात्र के रूप में जाने जाते थे। इसके उपरान्त उन्होंने गवर्नमेन्ट हाईस्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ वे वाग्वर्द्धिनी सभाओं, व्यायाम-क्रीड़ाओं तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेकर अपने बहुआयामी व्यक्तित्व को उजागर करने लगे। वे कायस्थ पाठशाला के भी विद्यार्थी रहे। 1899 में उन्होंने इन्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके उपरान्त अत्यन्त ही प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। स्नातक परीक्षा 1904 में उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्होंने कानून की पढ़ाई की और 1907 में इतिहास विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। पूरे विद्यार्थी जीवन में उन्होंने अपने साधुस्वभाव, सजग प्रतिभा, परिश्रमशीलता, स्वध्याय प्रियता तथा सच्चरित्रता के कारण अपनी अलग पहचान बनाये रखा।
हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत 1897 में ही पुरुषोत्तम का विवाह चन्द्रमुखी देवी से कर दिया गया। वे एक आदर्श जीवन संगिनी सिद्ध हुई। इनके सात पुत्र एवं दो कन्याएं हुई। वास्तव में पुरूषोत्तम दास टण्डन आदर्श गृहस्थ और वीतराग सन्यासी- दोनों ही एक साथ थे।
हिन्दी भाषा के प्रति टण्डन के अनुराग का एक महत्वपूर्ण कारण उनका महान समाजसेवी एवं राजनेता पं0 मदन मोहन मालवीय एवं प्रसिद्ध साहित्यकार पंडित बालकृष्ण भट्ट के सम्पर्क में आना था। टण्डन ने 1908 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत की शुरूआत की जहाँ उन्हें उस समय के ख्यातिलब्ध अधिवक्ताओं : तेज बहादूर सप्रू एवं कैलाश नाथ काटजू के सहयोगी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला। वकालत के पेशे में भी टण्डन ने अपनी छाप छोड़ी क्योंकि वे झूठे मुकदमे नहीं लेते थे।
पुरूषोत्तम दास टण्डन का कार्यक्षेत्र अत्यन्त ही विशाल था। उन्होंने राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों यथा राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, शैक्षिक को गहराई से प्रभावित किया। 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के लिए राजर्षि टण्डन इलाहाबाद से प्रतिनिधि चुने गये। इस सम्मेलन हेतु इलाहाबाद से अन्य प्रतिनिधि थे- तेज बहादुर सपू, मोती लाल नेहरू एवं पंडित अयोध्यानाथ।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन 10 अक्टूबर, 1910 में पं0 मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में इलाहाबाद में आयोजित किया गया। टण्डन मंत्री चुने गये। तीन-चार वर्षों में ही सम्मेलन का समस्त कार्यभार उन पर आ पड़ा। वस्तुतः जब तक वे जीवित रहे साहित्य सम्मेलन का इतिहास 1923 में टण्डन का इतिहास कहा जा सकता है। टण्डन अभ्युदय नामक पत्रिका के यशस्वी सम्पादक रहे। साथ ही हिन्दी प्रदीप में भी लगातार लिखते रहे।
1919 में वे इलाहाबाद नगरपालिका के प्रथम चेयरमेन चुने गये। 1921 में सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान टण्डन को कारावास की सजा हुई। उन्होंने राष्ट्रसेवा के लिए हमेशा के लिए वकालत छोड़ दी। 1923 में गोरखपुर में कांग्रेस का अठाहरवां प्रान्तीय अधिवेशन हुआ जिसमें टण्डन सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गये। अब टण्डन गाँव-गाँव में किसानों की सभायें करने लगे। वे किसान जागरण एवं आन्दोलन के अग्रदूत बन गए। 1930 और 1932 में लगान बन्दी के कार्यक्रमों का टण्डन ने नेतृत्व किया।
इस बीच टण्डन के हिन्दी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कार्य भी जारी रहे। कानपुर में सर्वसम्मति से हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति चुने गए। इसमें प्रसिद्ध साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी स्वागताध्यक्ष थे। सम्मेलन की नियमावली तैयार करना हो या धन संग्रह, सारी जिम्मेदारी टण्डन पर ही थी। हिन्दी साहित्य सम्मेलन में ‘मंगला प्रसाद’ पारितोषिक की स्थापना टण्डन ने ही की। प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता लाला लाजपत राय के आग्रह पर 1925 से 1929 तक वे पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजर के रूप में लाहौर और आगरा में कार्यरत रहे। महात्मा गाँधी के आग्रह पर टण्डन 1929 में लोक सेवा मण्डल के अध्यक्ष बने । नमक सत्याग्रह के दौरान उन्हें डेढ़ वर्ष की कारावास की सजा हुई। उन्होंने सत्याग्रह हेतु अपनी निजी भूमि ‘तपोभूमि’ को राष्ट्र को समर्पित किया। 1931 में कानपुर में सम्प्रदायिक दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या हो गई। इस संदर्भ में भगवान दास की अध्यक्षता में गठित जाँच समिति की रिपोर्ट हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। किसानों के अधिकार के लिए वे लगातार संघर्षरत रहे। वे 1934 में बिहार प्रान्तीय किसान सभा के भी अध्यक्ष रहे। वे उत्तर प्रदेश विधान सभा का तेरह वर्षों तक (जुलाई 31, 1937 से अगस्त 10, 1950 तक)
अध्यक्ष रहे। 1946 में वे भारतीय संविधान सभा (कांस्टीट्यून्ट एसेम्बली) के सदस्य चुने गए। कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में टण्डन ने देश के विभाजन का मुखर विरोध किया। विभाजन के विरोध स्वरूप 15 अगस्त, 1947 के स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने भाग नहीं लिया। 1950 में पं0 जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। अंततः महान आत्मा की तरह बिना हर्ष या विषाद के उन्होंने अध्यक्ष
पद से इस्तीफा दे दिया। 1952 में टण्डन इलाहाबाद से लोकसभा के लिए और 1956 में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गए। 5 मई, 1956 को संसदीय विधिक और प्रशासकीय शब्दों के संग्रह हेतु गठित समिति के टण्डन सभापति बनाए गए। एक वर्ष के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने कुशलतापूर्वक इस कार्य को सम्पादित किया।
सम्पूर्ण राष्ट्र पुरूषोत्तम दास टण्डन की अमूल्य सेवाओं के महत्व को श्रद्धा की दृष्टि से देख रहा था। कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हें 1961 में ‘भारत रत्न’ की उपाधि दी पर वे तो इस उपाधि से भी कहीं बड़े थे। सरयू तट पर 15 अप्रैल, 1948 को देवरहवा बाबा द्वारा प्रदत्त विशाल जनसमूह की हर्षध्वनि के मध्य उन्होंने ‘राजर्षि’ उपाधि का सम्मान बढ़ाया। वे वास्तव में राजनीति में सर्वोच्च पदों पर रहते हुए ऋषि बने रहे। 1 जुलाई, 1962 को इस महान संत, साहित्यकार, राजनेता एवं समाजसेवी का देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु पर इलाहाबाद के प्रमुख दैनिक भारत ने लिखा “बाबू पुरूषोत्तम दास टण्डन की मृत्यु से भारत का एक बहुमूल्य रत्न चला गया जिसने कि लगभग चालीस वर्षों तक राष्ट्रीय जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।”
“श्री टण्डन अनन्य देशभक्त थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने जो कार्य किए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। आप ऐसे राजनेता थे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार और सच्चाई के लिए प्रख्यात थे। अपने दाढ़ीयुक्त भव्यता से आप राजर्षि नहीं अपितु अपने आहार-व्यवहार से भी आप इस नाम को सार्थक करते थे। राजर्षि होने के बावजूद भी आप सात्विक जीवन व्यतीत करते थे और ऐश्वर्य, भोग तथा विलास-प्रसाधनों से बहुत दूर रहते थे।”
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