गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक एवं सामाजिक विचार
जीवन परिचय – गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 1866 में महाराष्ट्र में रत्नागिरी जिले के एक गांव में हुआ था। वे बहुत मेधावी थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद गोखले फर्ग्यूसन कालेज, पूना में व्याख्याता हो गए। वहीं वे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं के सम्पर्क में आये। विशेष रूप से महादेव गोविन्द रानाडे का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। पूना में ही गोपालकृष्ण गोखले राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने लगे। 1905 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इसी समय उन्होंने सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी की स्थापना भी की। गोखले केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य भी चुने गए। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के उदारवादी नेताओं में सबसे महत्वपूर्ण थे। उनका उद्देश्य था भारत को ‘स्वायत शासन’ दिलाना। 1915 में उनका स्वर्गवास हो गया। लाला लाजपतराय के शब्दों में— “गोखले सर्वश्रेष्ठ कांग्रेजी कार्यकर्त्ता थे, उनकी भक्ति सबसे ऊँची और विशुद्ध थी।”
गोखले के विचार- गोपाल कृष्ण गोखले एक उच्चकोटि के उदारवादी राजनीतिज्ञ थे। गोखले को महात्मा गांधी ने अपना गुरू माना है। महात्मा गांधी ने ‘भागिनी समाज’ पत्रिका में लिखा था- “श्री कृष्ण ने जो उपदेश अर्जुन को दिया था वही उपदेश भारत माता ने महात्मा गोखले को दिया और उनके आचरणों से सूचित होता है कि उन्होंने उसका पालन भी किया। यह सर्वमान्य बात है कि उन्होंने जो-जो किया, जिस-जिस का उपभोग किया, जो स्वार्थ त्याग किया, जिस तप का आचरण किया, वह भी कुछ उन्होंने भारत माता के चरणों में अर्पण कर दिया।” उनका विश्वास था कि भारतमाता की सेवा, नैतिकता, धार्मिकता, तथा आध्यात्मिकता गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही कर सकता है। वे अपनी योग्यता तथा शक्ति का उपयोग जनहित के कार्य में करते थे तथा औरों को भी इसके लिए कहा करते थे।
गोखले के सामाजिक एवं राजनीतिक विचार
गोपालकृष्ण गोखले ने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर समय-समय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन विचारों से स्पष्ट है कि गोखले एक उदारवादी थे तथा कोई ऐसा मार्ग नहीं अपनाना चाहते थे जो हिंसा या रक्तपात से परिपूर्ण हो ।
उनके मुख्य विचार इस प्रकार है
.1. शिक्षा सम्बन्धी विचार- गोपालकृष्ण गोखले उच्च कोटि के विद्वान थे। क्योंकि वे स्वयं शिक्षक थे, इसलिए शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह समझते थे। उन्होंने कहा कि भारत का उत्थान तभी हो सकता है जब यहाँ व्यापक पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो। उनका कहना था कि भारत की दरिद्रता का अन्त शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है। वे कहते थे कि शासन को प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क कर देनी चाहिए।
गोखले भारत के लिए पाश्चात्य शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते थे। उनका कहना था कि ज्ञान के प्रकाश को सभी दिशाओं में आने दो। डॉ. नागपाल के शब्दों में— “वह भारत के लिए पाश्चात्य शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते थे। वह मानते थे कि भारत के आधुनिकीकरण और भारत की प्रगति के लिये आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा आवश्यक है।” इस सम्बन्ध में गोपालकृष्ण गोखले ने स्वयं कहा था- “मेरा मत है कि भारत की जो वर्तमान दशा है, उसमें पाश्चात्य शिक्षा का सबसे कार्य केवल विद्या को प्रोत्साहन देना नहीं है, जितना भारतीय मानस को पुराने विचारों की दासता से मुक्त करना और पाश्चात्य जीवन, विचार और चरित्र के सर्वोत्तम तत्वों को आत्मसात करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न केवल उच्चतम वरन् सम्पूर्ण पाश्चात्य शिक्षा उपयोगी होगी।
2. ब्रिटिश शासन सम्बन्धी विचार- गोपाल कृष्ण गोखले भारत में अंग्रेजी शासन के प्रशंसक थे। वह पूरी तरह अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के स्थान पर भारत में स्वायत्त शासन चाहते थे। वह चाहते थे कि धीरे-धीरे अंग्रेजों को इस शासन प्रणाली में सुधार करना चाहिये और इस शासन व्यवस्था में भारतीयों को अधिक भाग देना चाहिए। डॉ. लक्ष्मण सिंह के ब्दों में “गोखले ने बार-बार यह दोहराया कि भारत के लिये ब्रिटिश सम्पर्क एक दैनिक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत ही भारत अपनी प्रगति के लिये आवश्यक परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकता है।
गोखले मानते थे कि भविष्य का भारत गरीबी विहीन भारत होगा। उसमें विस्तृत उद्योगों का जाल बिछा होगा। इसके लिए अंग्रेजों का सहयोग आवश्यक है। गोखले के शब्दों में “अपनी मातृभूमि के लिए मेरी आकांक्षाएँ असीमित हैं। मेरी कामना है कि मेरे देशवासियों की स्थिति वैसी ही हो जैसी अन्य लोगों की अपने-अपने देश में होती है। मैं मानता हूँ कि इस आकांक्षा को साम्राज्य के अन्तर्गत ही पूरा किया जा सकता है।”
3. स्वायत्त शासन सम्बन्धी विचार – गोपालकृष्ण गोखले भारत के लिए स्वायत्त शासन चाहते थे। वह एक पक्के सुधारवादी थे। उनका कहना था कि भारत को धीरे-धीरे राजनीतिक सुविधाएं मिलनी चाहिये। साथ ही देश में सामाजिक और आर्थिक सुधार किये जाने चाहिये। 1905 में गोखले ने बनारस में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए भारत के लिए निम्न सुधारों की माँग की थी
(1) विधान परिषद के कम से कम एक तिहाई सदस्य भारतीय होने चाहिए। तथा बजट को तभी क्रियान्वित किया जाये, जब विधान परिषद उसे पारित कर दें। (2) भारत सचिव की परिषद में कम से कम तीन सदस्य भारतीय होने चाहिये। (3) सम्पूर्ण भारतवर्ष में जिला स्तर पर परामर्श मण्डलों की स्थापना की जानी चाहिये। जिलाधीशों में कहा जाये कि वे इन मण्डलों के परामर्श पर कार्य करें। (4) सैनिक व्यय में कमी की जाये। (5) न्यायपालिका और कार्यपालिका को पूरी तरह पृथक किया जाये। (6) भारत में प्राथमिक शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिये।
गोखले मानते थे कि धीरे-धीरे अधिक सुधारों की मांग की जानी चाहिये। अन्ततः भारत को एक स्वायत्तशाली राज्य बनाया जाना चाहिये।
4. स्वदेशी की धारणा – गोपालकृष्ण गोखले यद्यपि अंग्रेजी शिक्षा से बहुत प्रभावित थे यथापि वह व्यक्तिगत रूप से पूरी तरह भारतीय थे। वह भारतीय वेषभूषा पहनते थे, भारतीय भाषा बोलते थे और भारतीय संस्कृति के पुजारी थे। साथ ही गोखले भारतीय और स्वदेशी के पुजारी थे। वह भारत में स्वदेशी आन्दोलन के पूर्ण समर्थक थे। वह चाहते थे कि भारत के लोग भारत में ही निर्मित वस्तुओं का उपयोग करें। गोखले के शब्दों में—”स्वदेशी आन्दोलन देशवासियों को, देश के लिये बलिदान करने के स्वेच्छापूर्ण विचार का अभ्यस्त बनाता है। यह उन्हें देश के आर्थिक विकास में रुचि लेने के भी योग्य बनाता है।”
गोखले के लिये स्वदेशी का विचार एक राजनीतिक और नैतिक विचार ही नहीं था। इस विचार का आर्थिक पक्ष भी था। डॉ० नागपाल के शब्दों में—“स्वदेशी आन्दोलन के माध्यम से गोखले भारत को आर्थिक शोषण से मुक्त करना चाहते थे। वह चाहते थे कि इससे भारत में ही उद्योग-धन्धे पनपे, भारतीयों को ही काम मिले और भारत की आर्थिक स्थिति सुधरे।”
5. राष्ट्रीयता एकता सम्बन्धी विचार- गोखले व्यक्तिगत रूप से एक अच्छे हिन्दू थे। साथ ही वह यह भी मानते थे कि इस देश की उन्नति एवं प्रगति तभी सम्भव है जबकि भारत में रहने वाले सभी सम्प्रदायों के लोग आपस में मिलजुल कर रहें। वह राष्ट्रीय एकता में विश्वास करते थे और अंग्रेजों द्वारा भारत में फूट डालो और शासन करो की नीति के विरोधी थे। डॉ० लक्ष्मणसिंह के शब्दों में— “गोखले की हिन्दूओं एवं मुसलमानों से धार्मिक अपील थी कि वे परस्पर सहिष्णुता एवं आत्म संयम से काम ले तथा आपसी मतभेदों पर बल देने की बजाय परस्पर मैत्रीपूर्ण सहयोग की भावनाएँ पैदा करें।” गोखले कहा करते थे कि हम सब भारतीय पहले हैं, हिन्दू मुसलमान और ईसाई बाद में।
6. साधन सम्बन्धी विचार- गोखले उग्रवादी साधनों में विश्वास नहीं करते थे। उन्हें संघर्ष का मार्ग पसन्द नहीं था। उन्हें अंग्रेजों की न्यायप्रियता और सज्जनता का पूरा विश्वास था। वह कहते थे कि हमारी उचित माँगों को यदि संवैधानिक और शांतिपूर्ण उपायों से सरकार के सम्मुख रखा जाय तो शासन उसे अवश्य मानेगा।
गोखले और तिलक में मुख्य रूप से साधनों के बारे में ही मतभेद था। तिलक मानते थे कि संवैधानिक और विनम्रतापूर्ण उपायों से कुछ नहीं होगा, उनकी दृष्टि से उन साधनों का अपनाया जाना आवश्यक है।
गोखले के इन्हीं विचारों के कारण उन्हें उदारवादी कहा जाता था। उग्रवादी अनेक विचारों की कटु आलोचना करते थे और उनके विचारों को भिक्षावृत्ति कहा जाता था। परन्तु यह आलोचना सही नहीं थी। डा. लक्ष्मणसिंह के शब्दों में इस प्रकार का आरोप अनुचित था, क्योंकि गोखले ने भिक्षावृत्ति का नहीं, बल्कि आत्म निर्भरता और बलिदान का संदेश दिया था। गोखले की नीति बहुत अधिक श्रम साध्य थी और इसकी सफलता भारी बलिदान पर निर्भर थी।
7. आर्थिक विचार- गोखले एक श्रेष्ठ बुद्धि जीवी और राजनीतिक विचारक थे। वह मानते थे कि भारत की प्रगति केवल राजनीतिक और सामाजिक सुधारों से नहीं हो सकती। जब तक भारत आर्थिक रूप से सम्पन्न और सशक्त नहीं बनता भारत की तरक्की नहीं होगी। भारत से गरीबी के अन्त के लिए वह चाहते थे कि देश का तेजी से औद्योगीकरण हो ।
गोखले यह भी मानते थे कि भारत की दरिद्रता का एक कारण हमारा परम्परावादी होना भी है। भारत को मानसिक जड़ता समाप्त करके नई वैज्ञानिक शिक्षा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए। कृषि और उद्योग के क्षेत्र उन्हें नये-साधनों को अपनाना चाहिये। पूंजी के निवेश के महत्व को समझना चाहिये तथा देश में अधिक उत्पादन करना चाहिए। गोखले एक यथार्थवादी विचारक थे। उनकी आर्थिक धारणाएँ थी यथार्थ पर आधारित थीं।
गोखले का मूल्यांकन
गोखले एक उदारवादी विचारक थे। यद्यपि वह अपने समय की सन्तान थे, और अंग्रेजों को भारत से निकालने के पक्ष में थे, तथापि वह स्वशासन के समर्थक थे। मोतीलाल नेहरू के शब्दों में “गोखले स्वशासन के महान् देवदूत थे।”
गोखले के विचारों से असहमत होना स्वाभाविक है, परन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह महान देशभक्त और एक सुलझे हुए राजनीतिक विचारक थे। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के आरम्भिक चरणों में गोखले ने आन्दोलन को नेतृत्व एवं विचारों को कारण एक
गरिमा प्रदान की। गोखले के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने कहा था “यदि इस महान देश भक्त के चरित्र का कोई अंश हमारे ग्रहण करने योग्य है, तो वह उनका धर्म है। उसी का अनुसरण हमें करना है। उनकी निर्भयता, सत्य, धैर्य, नम्रता, सरलता, न्यायशीलता, और अध्यवसाय, आदि गुणों को हम अन्दर विकसित कर सकते हैं।
“गोखले ने मुझे इस बात की शिक्षा दी थी कि प्रत्येक भारतवासी को, अपने देश से प्रेम का दम भरता हो, सदा राजनीतिक क्षेत्र में काम करने का ध्यान रखना चाहिए। उसे केवल जबानी जमा खर्च ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे अपने देश के राजनीतिक जीवन तथा राजनीतिक संस्थाओं को आध्यात्मिक बनाना चाहिए।”
इसे भी पढ़े…
- महादेव गोविन्द रानाडे के धार्मिक विचार | Religious Thoughts of Mahadev Govind Ranade in Hindi
- महादेव गोविंद रानाडे के समाज सुधार सम्बन्धी विचार | Political Ideas of Ranade in Hindi
- महादेव गोविन्द रानाडे के आर्थिक विचार | Economic Ideas of Ranade in Hindi
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचार | Swami Dayanand Sarswati Ke Samajik Vichar
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार | दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवादी विचार
- भारतीय पुनर्जागरण से आप क्या समझते हैं? आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?
- राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार | आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन को राजाराम मोहन राय की देन
- राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Raja Rammohan Raay Ke Samajik Vichar
- मैकियावेली अपने युग का शिशु | Maikiyaveli Apne Yug Ka Shishu
- धर्म और नैतिकता के सम्बन्ध में मैकियावेली के विचार तथा आलोचना
- मैकियावेली के राजा सम्बन्धी विचार | मैकियावेली के अनुसार शासक के गुण
- मैकियावेली के राजनीतिक विचार | मैकियावेली के राजनीतिक विचारों की मुख्य विशेषताएँ
- अरस्तू के परिवार सम्बन्धी विचार | Aristotle’s family thoughts in Hindi
- अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार | Aristotle’s property ideas in Hindi
- प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में (Plato As the First Communist ),
- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System)