राजनीति विज्ञान / Political Science

स्वामी दयानन्द सरस्वती के राजनीतिक विचार | Dayanand Sarswati Ke Rajitik Vichar

स्वामी दयानन्द सरस्वती के राजनीतिक विचार

स्वामी दयानन्द राजनीतिक विचारक न होकर एक उच्च श्रेणी के समाज सुधारक थे। लेकिन उन्होने सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही विचारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उनके राजनीतिक प्रभाव के मुख्यतः दो कारण है-

प्रथम – उन्होंने हिन्दी में वेदों का सार प्रस्तुत करके, दलितों एवं नारी उद्धार हेतु संघर्ष करके पुरातन कुप्रथाओं और संकीर्णताओं का विरोध करके स्वराज्य का नारा बुलन्द करके भारतीय जनजीवन में नवचेतना का संचार किया। जिससे भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता की पृष्ठभूमि तैयार हुई। इस पृष्ठभूमि पर ही चलकर भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की दूसरे, स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की, जो एक शक्तिशाली संस्था के रूप में भारतीय रजत पर स्थापित हुई। इसके द्वारा उन्होंने समस्त भारत में समानता एवं स्वतन्त्रता का सन्देश घर घर पहुँचाया। उनके राजनीतिक विचार ‘सत्यार्थ प्रकाश’ तथा ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’ दोनों ग्रन्थों में मिलते हैं। संक्षेप में उनके राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं—

1. स्वराज्य का उद्घोष 

‘स्वशासन’ तथा ‘स्वराज्य’ की पुकार सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के द्वारा उठाई गई थी। उन्होंने यह उद्घोश उस समय किया था जब कोई भी व्यक्ति यह साहस नहीं कर सकता था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध कुछ कहे। उनका यह शक्तिशाली तथा निर्भीक कथन ही सर्वप्रथम भारत के वायु मण्डल में गूंजा थाः विदेशी सरकार चाहे सब में प्रकार से धार्मिक, पक्षपातों से मुक्त तथा देशी व विदेशी लोगों के प्रति निष्पक्ष ही क्यों न हो, लोगों को पूर्ण रूप से प्रसन्नता प्रदान नहीं कर सकती।

स्वामी जी के ये सभी विचार राष्ट्रवादी थे। भारत पर गर्व करो, प्राचीन वैदिक संस्कृति का अनुसरण करो तथा भारत को फिर से उन्नत करने का प्रयास करो। इन्हीं विचारों का स्वामी दयानन्द ने सम्पूर्ण जनता में प्रचार किया जिससे लोगों के मन में विदेशी शासन के प्रति आक्रोश उत्पन्न हुआ और आगे चलकर स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार हुई। राष्ट्रीय चेतना की भावना को जागृत करने में भारत के प्राचीन वैभव एवं शौर्य के प्रति जनता को शिक्षित करके स्वामी दयानन्द ने महत्वपूर्ण कार्य किया था। बेलेटाइन शिरोल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। कि स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं महान् राष्ट्रवाद से ओत प्रोत थी। उनका यह कथन स्मरणीय है: “दयानन्द की शिक्षाओं का महत्वपूर्ण प्रवाह हिन्दूवाद को सुधारने की अपेक्षा इसे सक्रिय विरोध के क्रम में रखना था जिससे कि यह विदेशी प्रवाहों को रोक सके जो कि उनके विचार में इसे अराष्ट्रीय बनाने की धमकी दे रहे थे।”

2. भारतीय राष्ट्रवाद

मुस्लिमकाल में हिन्दू धर्म पर अत्याचार तथा उसका विनाश, 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के पश्चात् की दशा तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के कार्य कलाप और शासन की ओर से उनकी सहायता के फलस्वरूप समाज और धर्म की जो हानि हो रही थी उसे देखकर स्वामी जी ने अनुभव किया कि धर्म ही सब प्रकार की विपत्तियों से रक्षा कर सकता है, अत उनके धार्मिक पुनर्जागरण के प्रयास में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का दूरगामी प्रभाव भी था। उनके विचार से पारस्परिक फूट, शिक्षा की कमी, जीवन में शुद्धता का अभाव, धर्म से विमुखता तथा अन्य धार्मिक कुरीतियों के कारण भारत का पतन हुआ था। भारतीय सामाजिक तथा राष्ट्रीय भावना एवं चरित्र की स्वामी जी के द्वारा चतुर्दिक उन्नति को लक्ष्य करके ही गांधी ने उन्हें बारम्बार आदर एवं श्रद्धा के साथ प्रणाम किया। स्वामी जी के लिए रवीन्द्र का यह कथन अक्षरशः सत्य है:

“वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे जो आधुनिक युग की प्रगतिशील भावना के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और साथ ही साथ देश के उस गौरवशाली अतीत के साथ अटूट सम्बन्ध बनाए रख सके। जिसमें भारत ने अपने व्यक्तित्व का कार्य तथा चिन्तन की स्वतन्त्रता में और आध्यात्मिक साक्षात्कार के निर्मल प्रकाश के रूप में व्यक्त किया था।”

3. विदेशी वस्तुओं का प्रेम

स्वामी दयानन्द ने ही उस राष्ट्रीयता की भावना को उभारा था जिसे आगे चलकर गाँधी ने बढ़ाया। स्वामी जी का मत था कि स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्ततम है। स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी वस्तुएं, और स्वभाषा आदि सभी से सम्बन्ध में उनके जो विचार थे उनसे समाज में स्वराज्य की भावना पुष्ट हुई। उन्होंने जनता को इस बात के लिए समझाया एवं प्रोत्साहित किया कि सब लोग विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करें और देश में बने खादी के कपड़े पहने। जोधपुर के तत्कालीन नरेश स्वामी दयानन्द के विचारों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ कर दिया तथा विदेशी वस्तुओं का परित्याग किया।

4. लोकतन्त्र का समर्थन

अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उस लोकतंत्र के निर्माण, स्वरूप, शासन तथा न्याय सम्बन्धी धारणाओं की विवेचना की है जिसकी वे भारत में स्थापना करना चाहते थे। वह उनका आदर्श लोकतन्त्र था। स्वामी जी के चिन्तन, मनन और व्यवहार में वे तीन आदर्श समान रूप से देखे जाते हैं जिन पर वर्तमान लोकतंत्र आधारित है। वे हैं स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व। स्वामी जी ने जिस लोकतन्त्र की कल्पना की थी उसमें यह व्यवस्था है कि जनसाधारण स्वतन्त्रता को समान आधार पर भोग सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी उचित कार्यों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता है। कोई शक्ति इसमें बाधक नहीं हो सकती। स्वामी जी ने एकाधिकारवाद एवं विशेषाधिकारवाद की प्रवृत्तियों को स्वीकार नहीं किया जिससे कि समानता आ सके। उनका लोकतंत्र प्रत्येक वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति तथा लिंग के लिए मान है और उसमें यह नितान्त आवश्यक है कि समानता के आदर्श पर सभी आचरण करें। स्वामी जी भ्रातृत्व की भावना को आवश्यक मानते थे जिससे सामाजिक जीवन गतिशील बना है। उनके लोकतन्त्र के प्रारूप का मूल स्रोत ‘मनुस्मृति’ है जिसकी शिक्षा के अनुसार ही उन्होंने यह व्यवस्था रखी है कि राज्य व्यवस्था में सभासदों तथा मन्त्रियों का आचरण मर्यादित हो। नैतिकता के आधार पर धार्मिक मान्यताओं का समर्थन भी ‘मनुस्मृति’ के अनुकूल ही है।

5. राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन

स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात में हुआ था। स्वभावतः उन्हें अपनी प्रान्तीय भाषा, गुजराती विशेष प्रिय थी। परन्तु उनकी दृष्टि में केवल प्रान्त नहीं, पूरा राष्ट्र था। वे सम्पूर्ण के प्रतिनिधि थे तथा उनका दृष्टिकोण संकुचित न होकर बड़ा व्यापक था। अपने राष्ट्रवादी सिद्धान्त के अनुसार वे स्वराज्य, स्वदेशी, स्वधर्म और स्वभाषा सभी को पूरे भारत के परिवेष में देखते थे। अतः उन्होंने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर तथा राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करने हेतु अपनी समस्त टीकायें तथा ग्रन्थ राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही लिखे।

6. अन्तर्राष्ट्रीयता का शोषण

स्वधर्म और स्वराष्ट्र के प्रबल समर्थक स्वामी दयानन्द परन्तु इससे उनके हृदय में किम्चित भी संकुचित दृष्टिकोण नहीं पनपा था। वे सभी धर्मों के प्रति प्रेम रखते थे तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना से भरे थे। वे सभी धमावलाम्बियों का समुचित आदर करते थे। ईसाई, मुसलमान तथा सूफी मत के अनुयायी उनकी दृष्टि में सब समान है। चमूपति ने सत्य ही लिखा है कि “महर्षि दयानन्द धार्मिक एकता के आधार पर विश्व एकता चाहते थे। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने देश के धार्मिक नेताओं से विचार विमर्श किए।”

स्वामी दयानन्द की देन

ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जिसे स्वामी दयानन्द से कुछ प्राप्त न हुआ हो और प्रत्येक को जो प्राप्त हुआ वह इस महान् ही था। धर्म की और ही उनका ध्यान सर्वप्रथम गया था। इस क्षेत्र में उनकी तीन महान् देन थीं। रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं का विरोध, वैदिक धर्म की सर्वश्रेष्ठता की स्थापना तथा धर्म के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीयता का समर्थन । सामाजिक क्षेत्र में स्वामी जी ने १) जातीय भेदभाव ऊंच नीच की भावना तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियों का घोर विरोध किया। उन्होंने प्रयत्न किया कि नारी जाति शिक्षित हो तथा गरिमामय बने। राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने बहुत कुछ किया। श्री अरविन्द घोष का कथन -“उनमें स्वामी दयानन्द में राष्ट्रीयता की भावना थी। उस अनुभूति को उन्होंने राष्ट्रीय भावना के सन्दर्भ में ज्योतिमर्य बना दिया। उनकी कृतियाँ भले ही वह कितनी भी मान्यताओं से भिन्न हों, वास्तव में राष्ट्रीय भावना को समर्पित है।” स्वराज्य की भावना के सर्वप्रथम प्रचारक वे ही थे। उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का आन्दोलन चलाया उससे राष्ट्रीय भावना का सम्पूर्ण भारत में प्रसार हुआ। राजनीतिक के क्षेत्र में उनकी यह सब देन महानतम् हैं। जो

बम्बई में आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को करके स्वामी जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण एवं दूरदर्शिता का कार्य किया। उनके पश्चात् भी यह संस्था उनके विचारों का सर्वत्र प्रचार कर रही है तथा उन्हें कार्यरूप में परिणत कर रही है। यह संस्था आज भी भारतीय समाज को जागृत रखने का महत्वपूर्ण कार्य उत्तरदायित्व के साथ कर रही है। स्वामी की इन दोनों को ध्यान में रखे तो हमें यही अनुभव होता है कि स्वामी जी वास्तव में एक महान् सुधारक, धर्म रक्षक, देश भक्त ईश्वरीय दूत थे। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ में लिखा है “आन्तरिक रूप से यह एक सुधारवादी आन्दोलन था तथा बाह्य रूप से आक्रमणों से बचने के लिए एक रक्षात्मक संगठन था।” रोम्मां रोलां ने भी आर्य समाज के कार्य का सच्चा विश्लेषण करते हुए उसे उचित रूप से बहुत सराहा है। उनके अनुसार, “आर्य समाज उस समय राष्ट्रीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीय चेतना के महत्वपूर्ण कार्य में महत्वपूर्ण शक्ति थी। स्वामी जी ने राष्ट्रीय संगठन एवं पुनर्निर्माण के लिए यह एक महान कार्य किया। उनके आर्य समाज ने 1905 के बंगाली राष्ट्रवादी आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त किया।”

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