
प्रशासन में निर्णयन प्रक्रिया
प्रशासन में निर्णय प्रक्रिया : संगठन का आधुनिक सिद्धान्त जिन राजनीतिशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक पहलुओं पर बल देता है, उनका एक सहज परिणाम यह निकला है कि संगठन अध्ययन के क्षेत्र में केन्द्रीय पहलू पदसोपान न रहकर नेतृत्व एवं निर्णय प्रक्रिया बन चुके हैं। साइमन तथा उसके साथियों द्वारा आरम्भ किया जाने वाला यह प्रयास अब जोसेफ कुयर हार्डविक, लैण्डयुर, गोरे तथा डेसन आदि कितने ही प्रशासकीय शोधकर्ताओं के वैज्ञनिक परीक्षणों के आधार पर इतना आगे बढ़ चुका है कि यह एक स्वतन्त्र उपागम, वाद या विचारधारा का रूप ले चुका है।
लोक प्रशासन के निर्णयपरक दृष्टिकोण की प्रमुख मान्यताएँ
लोक प्रशासन के निर्णयपरक दृष्टिकोण की प्रमुख मान्यताओं के वर्णन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-
1. प्रशासन अथवा संगठन निर्माण के लिये कुछ मानसिक निर्णयों की पूर्व आवश्यकता – कोई भी प्रशासन अथवा संगठन किन्हीं कार्य विशेषों को सम्पादित करने के लिए बनाया जाता है और उन सभी मानवीय कार्यों को भौतिक रूप से सम्पन्न किये जाने के लिए कुछ मासिक निर्णयों की पूर्व आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, पहले एक निर्णय प्रक्रिया आरम्भ होती है और जहाँ जिस क्षण वह रुक जाती है वहीं पर कार्य सम्बन्धी निर्णय जन्म लेता है। प्रशासन की सभी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ इन्हीं निर्णयों एवं उपनिर्णयों से बँधी होती हैं।
2. निर्णय प्रक्रिया प्रशासकीय संगठन का केन्द्र है- इस दृष्टिकोण की मान्यता है। कि निर्णय प्रक्रिया प्रशासकीय संगठन का केन्द्र अथवा हृदय है। प्रत्येक संगठन में यह ‘निर्णयकर्त्ता केन्द्र’ एक निर्णायक भूमिका अदा करता है और संगठन के अन्य सभी अंग-प्रत्यंग इसका अनुपालन मात्र करते हैं।
3. प्रशासन अथवा संगठन में यदि उच्च स्तरों पर नीति निर्माण कार्य चलता है तो वह एक सैद्धान्तिक, जटिल एवं व्यापक निर्णय होता है जिससे राजनीति एवं प्रशासनिक प्रक्रियाएँ आपस में अन्तर्बद्ध एवं अन्तर्प्रविष्ट होती रहती हैं।
निर्णयन का अर्थ एवं परिभाषा
निर्णयन से आशय निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने से है। निर्णय करते समय प्रशासन के सामने एक से अधिक विकल्प होते हैं। निर्णय प्रायः नीति, नियम, आदेश अथवा निर्देश के रूप में व्यक्त होते हैं।
डॉ. जे.सी. ग्लोवर के मत में, “चुने हुए विकल्पों में से किसी एक के सम्बन्ध में निर्णय करना ही निर्णयन है।”
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि जटिलतम तथा परस्पर, गँथी हुई परिस्थितियों के अन्तर्गत उपलब्ध कई विकल्पों में से संगठन की क्षमतानुसार एक श्रेष्ठ विकल्प को चुनने तथा उसे प्रभावी ढंग से कार्यरूप प्रदान करने को ही ‘निर्णयन’ के नाम से पुकारा जाता है।
निर्णय प्रक्रिया के विभिन्न चरण
1. समस्या को पहचानना, समझना और स्वीकारना- निर्णय प्रक्रिया का पहला चरण समस्या को पहचानना, समझना तथा स्वीकार करना है। इसका दूसरा अर्थ यह हुआ कि समस्या और समस्याहीनता की स्थिति में अन्तर करना। प्रशासन में यह एक बड़ी दुविधा होती है कि किसे समस्या माना जाय और किसे सामान्यता। समस्या को पहचानना और स्वीकार करना अपने आप में अनेक प्रश्नों को जन्म देता है, जैसे-(i) यह समस्या लगती है अथवा है? (2) क्या समस्या स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है अथवा अन्य समस्याओं से उलझी हुई है? (3) क्या समस्या को देखते समय निर्णयकर्ता अपनी समस्याएँ तो उसमें नहीं डाल रहा है? (4) क्या समस्या को देखते समय इस बात का ध्यान रखा गया है कि संगठन के किस स्तर पर समस्या को देखा अथवा समझा जाना चाहिए?
2. समस्या के इतिहास को पहचानना- प्रथम चरण का दूसरा उपचरण समस्या के इतिहास को पहचानना है। ऐसी कितनी ही समस्याएँ होती हैं जो पूर्व निर्णयों और निष्कर्षों से जन्म लेती हैं। समस्या का इतिहास स्थितियों से पूर्ण अनुभव तथा स्थिति का निरन्तर विकास एवं बदली हुई स्थिति को समझने में सहायता करता है। यह सच है कि ऐतिहासिक ज्ञान किसी भी प्रशासनिक समस्या की नवीनता एवं अद्भुतता का परिचय नहीं देता किन्तु समस्या के इतिहास से परिचित निर्णयकर्त्ता एक विशेष लाभदायक स्थिति में रहता है, जहाँ से वह पुरानी और नयी स्थितियों की तुलना द्वारा समस्या की गम्भीरता, जटिलता एवं अन्तः निर्भरताओं को सरलता से समझ सकता है।
3. समस्या से उत्पन्न स्थिति का सर्वेक्षण करना- यह सर्वेक्षण निर्णयकर्ता को इस दृष्टि से सहायता देता है कि वह यह समझ सके कि स्थिति किस प्रकार की है। समस्या स्पष्ट रूप से क्या चेतावनी देती है? समस्या में कौन-कौन सी नयी और अद्भुत बातें हैं? समस्या का संगठनात्मक प्रभाव किन-किन बातों पर और कितना गहरा होगा ? इत्यादि ।
4. समस्या की भावी दिशाओं तथा नये क्षितिजों का अन्वेषण- प्रथम चरण का चतुर्थ उपचरण समस्या की भावी दिशाओं तथा नये क्षितिजों का अन्वेषण है। ऐसा करते समय निर्णयकर्त्ता स्थिति का विश्लेषण करने का प्रयास करता है और उसमें स्वयं सक्रिय भाग लेने लगता है। कल्पित तथ्यों और मूल्यों की अपनी तस्वीर से बस यह पहचानने का प्रयास करता है कि संगठन के उद्देश्य इस निर्णय के कितने उत्प्रेरक हैं अथवा रहेंगे। कौन-कौन सी क्रिया प्रतिक्रियाएँ बिन्दुओं को जन्म देंगी? क्या निर्णय आगे की निर्णय प्रक्रिया को गम्भीर मोड़ दे सकेगा? निर्णय की अनुपालना किस स्तर पर होगी और कौन-कौन से व्यक्ति अमुक निर्णय से किस सीमा तक प्रभावित होंगे?
5. तथ्यों का मूल्यांकन- दूसरे चरण का द्वितीय उपचरण तथ्यों का मूल्यांकन करना है। एक तथ्य, तथ्य होता है। यह कथन इसलिए सही नहीं है कि देखने वालों की मानसिक दृष्टि विकल्पों को एक ही प्रकार से नहीं देखती। तथ्यों का मूल्यांकन करते समय किसी भी निर्णयकर्त्ता के लिए यह आवश्यक है कि तथ्य संग्रह की सारी विशेष सतर्कताएँ बरतने के बाद वह अपने तथ्यों को निम्न प्रश्नों के सन्दर्भ में देखे और जाँचें।
6. निर्णय प्रक्रिया का तीसरा और अन्तिम चरण है, विकल्पों का चयन । यद्यपि प्रत्येक संगठन और प्रत्येक निर्णयकर्त्ता के साथ इस चयन की कसौटी में कुछ-न-कुछ परिवर्तन होना अनिवार्य है, किन्तु प्रशासन के सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर यह सम्भव है कि चयन का एक मापक यन्त्र निश्चित किया जा सकता है।
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