समन्वय की परिभाषा
समन्यव- लोक प्रशासन के क्षेत्र में लोक-नीति के लक्ष्यों की पूर्ति तथा कार्यान्वयन की दिशा में समस्त संगठन एवं विभिन्न विभागों की सबसे बड़ी समस्या है और सर्वप्रथम सिद्धान्त है।
समन्वय- जॉन डी. मिलेट लोक प्रशसान को प्रबन्ध कहते हैं एवं प्रबन्ध को वे समन्वय कहते हैं और प्रबन्धक को समन्वयकर्त्ता कहते हैं।
प्रत्येक संगठन की विशेषता होती है (1) विशेषीकरण, एवं (2) कार्य विभाजन । संगठन के भिन्न-भिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न कार्य सम्पन्न करते हैं, परन्तु संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उसके सभी सदस्यों में दो तत्त्व का होना आवश्यक है (1) समूह भाव तथा (2) सहयोग
दो तत्त्व जो किसी भी संगठन के लिए अवरोध हैं, वे हैं- (1) अतिव्यापन तथा (2) दोहरापन। सकारात्मक रूप में समन्वय के द्वार ही किसी संगठन से अतिव्यापन तथा दोहरेपन को हटाया जा सकता है। साथ-साथ समूह भाव और सहयोग भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार लोक प्रशासन में समन्वय एक साधक तत्त्व है न कि साध्य। वह प्रत्यायोजन, संचार और पर्यवेक्षण के साथ-साथ लोक प्रशासन में कार्यकुशलता का जनक है।
परिभाषा
कई विद्वानों ने कई प्रकार की परिभाषाएँ दी हैं; जैसे-एल.डी. व्हाइट के अनुसार, “समन्वय एक ऐसी प्रक्रिया है जो भिन्न तत्त्वों को कई शक्तियों तथा प्रकारों में एकत्रित करती है जिससे स्वतन्त्र तत्त्व इकट्ठे कार्य करने लगते हैं अर्थात् हाइट इसे H’ armonious action’ का प्रेरक मानते हैं।
सेकलर हडसन के अनुसार, “समन्वय कार्य के विभिन्न भागों अन्तः सम्बन्धित करने का महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।” इस प्रकार ये inter-relating को समन्वय कहते हैं।
एक तीसरी परिभाषा डिमॉक एवं डिमॉक की है जो अच्छी मानी जाती है। उनके अनुसार, “समन्वय का अभिप्राय है—किसी संगठन के भिन्न पक्षों को एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा समूचे कार्यक्रम को उचित स्थिति में रखना, यह सभी साधनों तथा कार्यों को ठीक ढंग से जोड़ना है। ताकि निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति हो सके।” उपर्युक्त तीनों परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि समन्वय के दो पहलू हैं—–(1) निषेधात्मक (यह कार्यों के दोहराव को रोकती है) एवं (2) सकारात्मक (यह संगठन के कर्मचारियों में सहयोग एवं समूह भाव की धारा बहाती है)।
इस प्रकार समन्वय किसी भी संगठन की क्रियाओं में एकरूपता लाती है जो कार्यकुशलता के लिए आवश्यक है और जो प्रबन्धक को सम्पूर्ण लोक प्रशासन का निर्देशन एवं नियन्त्रण में सहयोग प्रदान करती है। इसलिए हम चेस्टर बर्नार्ड की इस उक्ति से सहमत हो सकते हैं कि “अधिकांश परिस्थितियों में समन्वय का गुण संगठन के अस्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है।”
समन्वय के प्रकार
यह दो प्रकार का होता है (1) आन्तरिक अथवा कार्यात्मक (संगठन के अन्दर कार्य करने वाले व्यक्तियों के कार्यकलापों में समन्वय), (2) बाह्य अथवा संरचनात्मक (विभिन्न संगठनात्मक इकाइयों के कार्यों में समन्वय)
इस प्रकार समन्वय लम्ब रूप से तथा क्षैतिज रूप से किये जाते हैं अर्थात् लम्ब रूप से उच्च अधिकारी तथा अधीनस्थ अधिकारियों के बीच एवं क्षैतिज रूप से एक कर्मचारी तथा दूसरे कर्मचारी और एक अनुभाग एक दूसरे अनुभाग के बीच।
एपल्बी का यह कहना सही है कि “समन्वय लम्ब रूप से तथा क्षैतिज रूप से, दोनों रूप से होना चाहिए, चूँकि कर्मचारियों की कतारें दोनों रूप से कार्य करती हैं। ” प्रणालियाँ समन्वय स्वेच्छापूर्वक भी होता है और बाध्यकारी भी होता है। इसे (1) Voluntary एवं (2) Coercive समन्वय भी कहते हैं।
ऐच्छिक समन्वय के साधन हैं—(1) सम्मेलन, (2) निदेशन तथा परामर्श, (3) संस्थात्मक तथा संगठनात्मक विधियाँ, (4) विधियों तथा प्रणालियों का स्तरीकरण, (5) कार्यकलापों का विकेन्द्रीकरण, (6) विचार तथा नेतृत्व, (7) मौखिक तथा लिखित संचार (8) केन्द्रित निकाय (जैसे-इमारत में (Comptroller and Auditor General, C.P.W.D. आदि वित्त मन्त्रालय), (9) अनौपचारिक माध्यम (जैसे-व्यक्तिगत सम्पर्क, भोजन, चाय आदि)।
बाध्यकारी समन्वय के साधन होते हैं—(1) संगठनात्मक ढाँचा, Hieracrchy आदि (2) आदेश, एवं अनुदेश। ये सभी प्रकार से नीचे की ओर आते हैं और ऊपर का निर्णय बन्धनकारी होता है।
बाध्यकारी, समन्वय कुशल प्रशासन को जन्म नहीं देता। ऐच्छिक समन्वय ही कुशल समन्वय होता है।
समन्वय की बाधाएँ
सरकार के बढ़ते हुए कार्यों में इतनी प्रगति आ गयी है, खासकर तृतीय विश्व के देशों में, कि लोक प्रशासन में नियन्त्रण परिधि कम होती जा रही है। फलस्वरूप समन्वय में बाधाएँ उत्पन्न हो रही हैं। लूथर गुलिक ने ‘Notes on the theory of Organisation’ में ‘समन्वय का मार्ग कठिनाइयों से भरा पड़ा है ऐसा कहा है। उन्होंने इन कठिनाइयों के कारण निम्नलिखित बताये हैं—(1) भविष्य की अनिश्चितता, (2) नेताओं में ज्ञान, अनुभव, बुद्धिमानी तथा चरित्र की कमी और उनके उलझे हुए विरोधी विचार तथा उद्देश्य, (3) प्रशासकीय कौशल तथा . तकनीक की कमी; (4) अनेक विभिन्नताओं का जमघट और मानवीय ज्ञान की अपूर्णता, विशेषतः मनुष्य और जीवन के सम्बन्ध में, (5) नवीन विचारों तथा कार्यक्रमों का विकास करके, उस पर विचार करने, उन्हें परिपूर्ण बनाने तथा अपनाने में व्यवस्थित तरीकों की कमी आदि।
संक्षेप में, समन्वय के रास्ते में बाधाएँ इसलिए उपस्थित होती हैं कि लोक प्रशसन का आधार हर राज्य प्रणाली में बढ़ता जा रहा है और नयी-नयी माँगों की मूर्ति के लिए नये-नये अभिकरणों की संरचना हो रही है। इसके कारण नियन्त्रण का फैलाव संकुचित होता जा रहा है। और प्रशासन में तनाव सिद्धान्त काम कर रहा है। प्रशासन के भीतर और बाहर झगड़े पैदा होते हैं और तनाव उत्पन्न होता है। फलस्वरूप लोकहित की उपेक्षा होती है। यह सभी लोग प्रशासन के क्षेत्र में समन्वय स्थापित करने के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करती हैं।
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