शास्त्रीय उपागमः हेनरी फेयोल, लूथर गुलिक एवं लिंडल उर्विक
संगठन की शास्त्रीय विचारधारा को ‘पुरातनवादी विचारधारा’, ‘प्रतिष्ठित विचारधारा’, ‘परम्परावादी विचारधारा’, ‘यान्त्रिक विचारधारा’, ‘औपचारिक विचारधारा’ या ‘संरचनात्मक सिद्धान्त’ के नाम से भी पुकारते हैं। संगठन का शास्त्रीय विचार इस सदी के प्रथम दो दशकों में उदित हुआ था, किन्तु आज भी शास्त्रीय प्रबन्ध विचारधारा प्रशासकों में प्रदत्त रूप से विद्यमान है। शास्त्रीय सिद्धान्तों की सर्वाधिक विशेषता है—इनकी संगठन सिद्धान्तों के निर्माण के विषय में विशेष चिन्ता। शास्त्रीय विचारकों ने संगठन में कार्य विभाजन पूर्ण करने के सच्चे आधारों को खोजने तथा कुशलता के लिए कार्य समन्वय के प्रभावी तरीकों को ढूँढ़ने का प्रयास किया। उन्होंने विभिन्न प्रतिनिधियों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों की सही परिभाषा पर बल दिया तथा कार्य सुचारू रूप से कराने के लिए संगठन में कार्यरत लोगों के ऊपर अवरोध तथा नियन्त्रण पद्धति द्वारा सत्ता प्रयोग का सुझाव दिया।
संगठन का शास्त्रीय सिद्धान्त रचना तथा योजना का एक औपचारिक ढांचा है। इसके अनुसार संगठन सिद्धान्तों का एक ऐसा समूह है जिसके आधार पर मनोनीत उद्देश्य अथवा का के अनुरूप आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संगठन योजना बनायी जा सकती है और फिर उस पूर्वनिर्मित संगठन योजना के अनुसार कार्य के लिए क्षमतावान लोगों को नियुक्त किया जाता है। इस उपागम पर एक ऐसे इन्जीनियर की छाप है जो वैज्ञानिक सूक्ष्मता, तर्कपूर्ण संरचना तथा प्रत्येक कार्य करने का एक सर्वोत्तम तरीका और भागों को एकीकृत करके जोड़ने का प्रयास कर रहा है। इस प्रकार इस उपागम की चार विशेषताएं स्पष्ट कार्य-विभाजन, पदसोपान, निर्वैयक्तिकता तथा कार्यकुशलता।
शास्त्रीय विचारकों के अनुसार संगठन मूलतः एक औपचारिक संरचना अथवा योजना है। तथा कुछ सुनिश्चित सिद्धान्तों की सहायता से विशेषज्ञ इस योजना का निर्माण ठीक उसी प्रकार कर सकते हैं जिस प्रकार कोई वास्तुकार, वास्तुकला के सिद्धान्तों की सहायता से किसी भवन की योजना बनाता है। यह दृष्टिकोण दो धारणाओं पर आधारित है: प्रथम, संगठन के मौलिक सिद्धान्त अथवा आदर्श इतने सर्वविदित है कि किसी प्रकार के प्रयोजन अथवा कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप योजना वनाना विशेषज्ञों के लिए सम्भव है; द्वितीय, कार्मिक अथवा स्टाफ की नियुक्ति करने से पहले संगठन की योजना पर विचार किया जाना चाहिए।
संगठन के शास्त्रीय सिद्धान्त के प्रतिपादकों में हेनरी फेयोल, लूथर गुलिक तथा लिंडल उर्विक का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन्होंने मुख्य रूप से औपचारिक संगठन के ‘सामान्य सिद्धान्तों’ का निर्माण किया। इन्हीं ‘सामान्य सिद्धान्तों’ को आमतौर पर संगठन का ‘पुरातन सिद्धान्त’ कहा जाता है। इन्होंने संगठन में काम करने वाले लोगों वो भूमिका की अपेक्षा संगठन की ‘संरचना को अधिक महत्व दिया।
हेनरी फेयोल ने संगठन के 14 सिद्धान्त बतलाए जिनमें 5 अत्यन्त महत्वपूर्ण माने गए योजना, संगठन, आदेश, समन्वय तथा नियन्त्रण गुलिक एवं उर्विक फेयोल से बहुत प्रभावित थे।
गुलिक ने प्रशासनिक प्रक्रियाओं में पोस्डकोर्ब शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया है। पोस्डकोर्ब के रूप में कार्यपालिका के कार्यों को स्पष्ट करने के पश्चात् गुलिक तथा उर्विक ने संगठन के उन सिद्धान्तों की खोज करने के प्रयासों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जिसके आधार पर संरचना की जा सके।
इस दृष्टि से उर्विक ने संगठन के 8 सिद्धान्तों तथा लूथर ने 10 सिद्धान्तों का उल्लेख किया। उर्विक ने सभी संगठनों में क्रियान्वयन योग्य जो 8 सिद्धान्त बतलाए हैं, वे हैं-
1. उद्देश्य का सिद्धान्त
2. अनुरूपता का सिद्धान्त
3. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त
4. व्याख्या का सिद्धान्त
5. नियन्त्रण के क्षेत्र का सिद्धान्त,
6. विशेषीकरण का सिद्धान्त
7. समन्वय का सिद्धान्त
8. परिभाषा या निर्धारण का सिद्धान्त
गुलिक द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त है-
1. कार्य-विभाजन या विशेषीकरण
2. विभागीय संगठनों के आधार
3. पदसोपान द्वारा समन्वय
4. सोद्देश्य समन्वय
5. समितियों के अन्तर्गत समन्वय
6. विकेन्द्रीकरण
7. आदेश की एकता
8. स्टाफ तथा सूत्र
9. प्रत्यायोजन
10. नियन्त्रण का क्षेत्र
हेनरी फेयोल, गुलिक तथा उर्विक जैसे शास्त्रीय विचारकों का पक्का विश्वास था कि प्रशासकों के अनुभवों तथा कुछ सिद्धान्तों के आधार पर प्रशासन का एक विज्ञान विकसित किया जाता है। इस प्रकार अब तक एक कला के रूप में समझा जाने वाला प्रशासन एक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ ।
हर्बर्ट साइमन ने शास्त्रीय संगठन की कटु आलोचना की है। वे कहते हैं कि शास्त्रीय सिद्धान्त से यह स्पष्ट नहीं होता कि किस विशेष स्थिति में कौन-सा सिद्धान्त महत्व देने योग्य है। सहमत प्रशासन के सिद्धान्तों’ को ‘प्रशासन की कहावत’ मात्र कहा है। सुब्रह्मण्यम ने कहा कि सभी शास्त्रीय विचारकों का अपने सिद्धान्तों में प्रबन्ध की ओर झुकाव प्रदर्शित होता है। ये केवल प्रबन्ध की समस्याओ के विषय में चिन्तित थे, न कि प्रबन्ध तथा व्यक्तियों से सम्बन्धित अन्य संगठनात्मक समस्याओ के विषय में। इस सिद्धान्त को व्यक्तिपरक कहकर भी इसकी आलोचना की गयी है। कि यह एक संकुचित विचार है जो व्यक्तियों को संगठन में उनके साथियों से अलग रखकर नेरीक्षण करता है। यह कार्य करने वाले मानवों की अपेक्षा कार्य के विषय में अधिक चिन्तित है। इसने मानव तत्व तथा मानव व्यवहार को कम महत्व दिया है। यह व्यक्ति को संगठन का केवल पूर्जा मात्र मानता है। इस विचारधारा से औपचारिक संगठन का जन्म होता है।
इन आलोचनाओं के बावजूद यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शास्त्रीय सिद्धान्त से संगठन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित विचार उभर कर सामने आए हैं, जो निम्न प्रकार है-
1. शास्त्रीय विचारकों ने यह विचार प्रतिपादित किया कि प्रशासन एक ऐसा कार्य है जिसकी बुद्धिपरक खोज आवश्यक है।
2. प्रबन्ध तथा संगठन की समस्या के विषय में लोगों को सोचने तथा संलग्न करने के लिए विवश करना भी व्यावहारिक उपलब्धि है।
3. इससे सत्ता, उत्तरदायित्व तथा प्रत्यायोजन के विषय में स्पष्ट चिन्तन प्रारम्भ हुआ।
4. कुछ सीमा तक औद्योगिक संगठन में उत्पादन को संगठन का आधार बनाने तथा बढ़ाने में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
5. शास्त्रीय सिद्धान्त की सीमाओं और कमियों ने ही संगठनात्मक व्यवहार में और अधिक अनुसन्धान का मार्ग प्रशस्त किया।
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