राजनीति विज्ञान / Political Science

बेंथम का उपयोगितावाद | बेन्थम के उपयोगितावाद की आलोचना | Bentham Utilitarianism in hindi

बेंथम का उपयोगितावाद
बेंथम का उपयोगितावाद

बेंथम का उपयोगितावाद (Bentham Utilitarianism in hindi)

आधुनिक युग में उपयोगिता का प्रतिपादन ब्रिटिश जेरेनमी बेन्थम ने किया है। बेन्थम के बाद जेम्स मिल, जॉन स्टुअर्ट मिल, आस्टिन आदि ने इस विचारधारा को आगे बढ़ाया है। इस विचारधारा को उपयोगी इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह यह मानती है कि मनुष्य एक उपयोगितावादी प्राणी है। वह जीवन में सुख अथवा उपयोगिता चाहता है। बेन्थम की यह मान्यता है कि प्रत्येक मनुष्य जीवन में सुख प्राप्त करना चाहता है और दुःख से दूर भागता है। हमारे प्रत्येक कार्य के पीछे एक ही उद्देश्य है—सुख प्राप्त करना, जो कार्य हमें सुख प्रदान करने वाले होते हैं, जिनकी हमारे लिए उपयोगिता है, वे कार्य हम करते हैं। हम सब उपयोगितावादी हैं इस मूलभूत सिद्धान्त पर आधारित विचारधारा का नाम उपयोगितावाद है।

बेन्थम को सर्वाधिक प्रेरणा प्रीस्टले की पुस्तक Eassa on Govt. से मिली थी। इस पुस्तक का एक वाक्य ‘अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख पढ़कर बेन्थम बहुत प्रभावित हुआ।

1. उपयोगितावाद का अर्थ- बेन्थम के अनुसार उपयोगिता का अर्थ इस बात से है इससे सम्बन्धित व्यक्ति की प्रसन्नता में वृद्धि होती है अथवा कमी होती है। यदि किसी कार्य अथवा वस्तु के उपभोग से व्यक्ति को सुख मिलता है, तो वह उचित है, यदि दुःख मिलता है, तो वह अनुचित है। बेन्थम ने कहा कि मैं यह बात हर कार्य के लिए कहता हूँ और इसलिए मेरी यह बात किसी एक व्यक्ति पर नहीं वरन् प्रत्येक सरकारी कार्य के विषय में भी लागू होती है।

मानव स्वभाव के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए बेन्थम ने कहा कि वह हमेशा ऐसे कार्य करने के लिए प्रेरित होता है, जिनसे उसे दुख की प्राप्ति हो तथा उन कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है, जिससे उसे दुःख मिलने की आशंका हो ।

2. उपयोगितावाद के आधार- सुख और दुःख–बेन्थम के विचार में “प्रकृति मानव जाति को दो सम्प्रभु स्वामियों सुख और दुःख की आधीनता में रखा है। हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं यह बतलाना उन्हीं कार्य हैं।” बेन्थम ने अपने उपयोगितावादी सिद्धान्तों का प्रतिपादन इसी आधार पर किया है। सुख और दुःख ही यह निश्चित करते हैं कि हमें कौन-सा कार्य करना चाहिये तथा कौन-से कार्य से बचना चाहिये। हम वही कार्य करने के लिए प्रवृत्त होते हैं, जिससे हमें सुख की प्राप्ति होती तथा उस कार्य से बचाना चाहते हैं, जिससे दुःख प्राप्ति की सम्भावना होती है। इस आधार पर जिस कार्य से सुख की प्राप्ति होती है, वह कार्य उपयोगी है तथा जिस कार्य से दुःख की प्राप्ति होती है, वह अनुपयोगी जिस कार्य से जितना अधिक दुःख प्राप्त होती है, वह उतना अधिक अनुपयोगी है।

3. सुख और दुःख के स्त्रोत– बेन्थम ने व्यक्ति को प्राप्त होने वाले सुख अथवा दुःख के कुछ प्रमुख स्रोत बताये हैं। ये स्रोत निम्नलिखित हैं— (i) प्राकृतिक, (ii) राजनैतिक, (iii) नैतिक, (iv) सामाजिक, (v) धार्मिक

(i) प्राकृतिक- मनुष्य के जीवन में जो प्राकृतिक घटनाएं होती हैं, इनमें व्यक्ति का कोई हाथ नहीं होता है। इनके कारण मनुष्य को सुख अथवा दुःख की अनुभूति होती है। जैसे वर्षा, बाढ़ तूफान आदि से प्राप्ति होने वाला सुख अथवा दुःख।

(ii) राजनीतिक— शासन के किसी कार्य से प्राप्त होने वाले सुख या दुःख का आधार राजनीतिक है। राज्य तथा शासकीय कर्मचारियों के आचरण से मनुष्य को सुख अथवा दुःख की प्राप्ति होती है। इसी आधार पर बेन्थम ने राज्य का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख निर्धारित किया।

(iii) नैतिक— यदि किसी के करने से आत्मिक सुख अथव, दुःख की प्राप्ति होती है, तो उसका आधार नैतिक होता है। मान लीजिये किसी व्यक्ति को चोरी करने के कारण जेल हो जाती है, तो उससे उसे मानसिक दुःख की प्राप्ति होगी। इसके विप यदि कोई व्यक्ति सदैव सच बोलता है तथा ईमानदारी का आचरण करता है, तो उससे उसे अ मेक सुख की प्राप्ति होगी।

(iv) सामाजिक– यदि समाज द्वारा किसी व्यक्ति को प्रतिष्ठा अथवा सम्मान दिया जाता है, तो इससे उसे सुख की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि उसे समाज द्वारा दण्डित अथवा प्रताड़ित किया जाता है, तो इससे उसे दुःख की प्राप्ति होगी अतः सुख और दुःख का यह स्रोत सामाजिक हैं।

(v) धार्मिक– मनुष्य के लिए सुख एवं दुःख की प्राप्ति होती है उसका स्रोत धार्मिक होता है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठान करता है, तो इसमें उसे सुख की प्राप्ति होगी और यदि इसके विपरीत वह मन्दिर, मस्जिद तुड़वाता अथवा अधार्मिक आचरण- ता है, तो इससे उसे दुःख की प्राप्ति होगी।”

4. सुखवादी मापक यन्त्र- बेन्थम का मत था कि सुख और दुःख को नापा जा सकता और इसी आधार पर अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को भी नापा जा सकता है।

5. सुख और दुःख में मात्रा का अन्तर होता है। गुण का नहीं— बेन्थम की मान्यता कि सुख और दुःख में केवल मात्रा का अन्तर होता है गुण का नहीं अर्थात् किसी वस्तु या कार्य से मिलने वाले सुख और दुःख को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित नहीं किया जा सकता। यह नहीं कहा जा सकता है कि अमुक सुख अथवा दुःख उच्चतम है तथा अमुक सुख अथवा दुःख निम्नतम है। हम इसे उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट कोटि में विभाजित नहीं कर सकते हैं।

6. मात्रात्मक अन्तर– बेन्थम का मत है कि सुख या दुःख की मात्रा में निम्नलिखित सात कारणों से अन्तर हो सकता है-

(i) तीव्रता, (ii) निश्चितता, (iii) अवधि, (iv) उर्वरता अथवा उपजाऊपन, (v) शुद्धता, (vi) विस्तार ।

7. सुखों तथा दुःखों के प्रकार- बेन्थम ने सरल अथवा सामान्य प्रकार के 14 सुख व 12 दुःख बताये हैं। सुख इस प्रकार है । इन्द्रिय सुख, 2. सम्पत्ति का सुख, 3. निपुणता का सुख.. 4. मित्रता का सद्भावना का सुख, 5. यश का सुख, 6. शक्ति अथवा सत्ता का सुख, 7. धार्मिक सुख, 8. दया का सुख, 9. निर्दयता का सुख, 10. स्मृति सुख, 11. कल्पना का सुख, 12. आशा का सुख, 13. मिलन का सुख, 14. सहायता का सुख

दुख के 12 प्रकार इस प्रकार हैं- 1. दरिद्रता का दुःख, 2. भावना, 3. परेशानी, 4. शत्रुता, 5. अपयश, 6. धार्मिकता, 7. दया, 8. निर्दयता या दुर्भावना, 9 स्मृति, 10. कल्पना, 11. 12. सम्पर्क। TRIT,

8. राज्य के कार्यों का आधार उपयोगितावाद-बेन्थम ने अपने उपयोगितावादी दर्शन के आधार पर राज्य का कार्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख निर्धारित किया। राज्य को ऐसे कार्य करने चाहिये जो सुख की प्राप्ति में सहायक हो तथा ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये, जिनसे दुःख प्राप्त होने की सम्भावना हो। उपर्युक्त कसौटी पर कसने के पश्चात् ही ऐसे नियमों का निर्माण किया जाना चाहिये, जिनसे ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख की प्राप्ति हो।

बेन्थम के उपयोगितावाद की आलोचना

बेन्थम के उपयोगितावाद की आलोचना निम्नलिखित कारणों से भी की जाती है-

1. भौतिकवादी दर्शन – बेन्थम का उपयोगितावाद का सिद्धान्त पूर्णतः भौतिकवादी है। उसका विचार है कि मनुष्य के प्रत्येक कार्य की प्रेरक शक्ति सुख की प्राप्ति है। बेन्थम इस तथ्य को भूल जाता है कि सुख के अतिरिक्त मानवीय कार्यों की और भी कुछ प्रेरक शक्तियाँ हैं, ये हैं—प्रेम, सदाचार, परोपकार, देशभक्ति तथा समाजसेवा आदि। जब मनुष्य इन भावनाओं से प्रेरित होकर कार्य करता है, तो वह अपने सुख को ध्यान में नहीं रखता, वरन् अपार कष्ट सहन करने के लिए भी तैयार हो जाता है। प्रभु ईशू का सूली पर चढ़ना, सुकरात का विषपान, भगतसिंह की फाँसी, इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। मैक्सी ने इसी आधार पर लिखा है। “आचार शास्त्रियों और आदर्शवादियों ने सम्मिलित रूप से उपयोगितावाद के सिद्धान्त के भौतिकवादी आधार की निन्दा की है।”

2. अमनोवैज्ञानिक सिद्धान्त- बेन्थम का उपयोगितावाद अमनोवैज्ञानिक धरातल पर खड़ा है। बेन्थम सम्भवतः यह नहीं जान पाया कि समय और परिस्थितियों के कारण एक ही कार्य का परिणाम सुख अथवा दुःख हो सकता है। साथ ही सभी व्यक्तियों को सुख समान नहीं होते वे एक दूसरे से भिन्न हो सकते हैं। इसके साथ-ही-साथ व्यक्तियों के सुख एवं दुःख की अनुभूतियाँ भी समान नहीं होती। ऐसा हो सकता है कि एक कार्य से एक ही व्यक्ति को सुख की प्राप्ति हो तथा उसी कार्य से दूसरे को दुःख हो। इसके साथ ही यदि उस कार्य से सभी व्यक्तियों को सुख हो, तो यह आवश्यक नहीं कि सभी व्यक्तियों को उससे समान सुख की प्राप्ति हो। इस प्रकार ब्रिण्टल के शब्दों में “बेन्थम के मनोविज्ञान के दोष सैकड़ों स्थानों पर प्रकट होते हैं।

3. मानव समाज का गलत चित्रण– बेन्थम का उपयोगितावाद इस मान्यता पर आधारित है कि मनुष्य सुख की प्राप्ति तथा दुःख से निवृत्ति चाहता है, परन्तु मानव स्वभाव का यह चित्रण एकांगी हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य एक परोपकारी जीव भी है तथा अनेक बार कष्ट सहन करके भी उसे सुख की अनुभूति होती है। बेन्थम व्यक्ति की उदात्त भावनाओं की अवहेलना करता है। भण्डारी के शब्दों में, “बेन्थम का उपयोगितावादी सिद्धान्त इस त्रुटिपूर्ण धारणा पर आधारित है कि मनुष्य केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करते हैं और केवल अपने सुख की ही खोज करते हैं।”

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