रूसो का सामान्य इच्छा सिद्धांत- Rousseau’s General Will in Hindi
रूसों की सामान्य इच्छा को समझने के पूर्व हमारे लिये यथार्थ इच्छा ‘वास्तविक या आदर्श इच्छा’ को समझ लेना आवश्यक होगा। डॉ. आशीर्वादम् ने इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “यथार्थ इच्छा मनुष्य की भावुक एवं विचारशील इच्छा है। यह जीवन के पहलुओं पर सामूहिक रूप से विचार नहीं करती। यह व्यक्तिगत स्वार्थ पर ध्यान देती है। यह व्यक्ति को समाज विरोधी इच्छा है, उसकी क्षणिक तथा तुच्छ इच्छा है। दूसरी ओर आदर्श के समस्त पहलुओं पर व्यापक रूप से दृष्टिपात करती है। यह विवेकपूर्ण इच्छा है। यह व्यक्ति तथा समाज के सामंजस्य में प्रदर्शित होती है।’
उपर्युक्त यथार्थ और आदर्श इच्छा को समझ लेने के उपरान्त अब प्रश्न उठता है। सामान्य इच्छा क्या है? इसके उत्तर में हम कह सकते हैं कि समस्त मनुष्य की आदर्श इच्छाओं का संगठन एवं समन्वय ही सामान्य इच्छा है। बोसांके के शब्दों में, “यह पूर्ण समाज की इच्छा अथवा सभी व्यक्तियों की इच्छा है, यदि इसका ध्येय सामान्य हित हो।” यह इच्छा समाज के व्यक्तियों को आदर्श इच्छाओं का निचोड़ है। डॉ. आशीर्वादम् ने लिखा है, “सामान्य इच्छा की परिभाषा एक समाज के आदर्श योग्य अथवा इससे भी अधिक उत्तम शब्दों में उनके संगठन के एकीकरण के रूप में दी जा सकती है। समाज हित की भावना सामान्य इच्छा का सबसे महत्त्वपूर्ण योग है ।”
जनमत और सामान्य इच्छा में अन्तर है। सामान्य इच्छा में सामान्य हित पर बल दिया जाता है, जबकि जनमत में संख्या पर बल दिया जाता है। सामान्य इच्छा के पीछे जनमत को कितना भाग है, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। यदि कोई इच्छा समाज के लिए कल्याणकारी है, चाहे उसके पीछे जनमत नहीं है तो भी वह सामान्य इच्छा मानी जायेगी। दूसरी ओर जनमत का आधार यह है कि किसी विषय विशेष पर जनता का कितना समर्थन प्राप्त है, जबकि सामान्य इच्छा में सामान्य हित पर ध्यान दिया जाता है। इस सामान्य हित में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ही वर्ग शामिल हैं। दूसरी ओर जनमत में बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यक वर्ग का अहित कर सकता है। सामान्य इच्छा सबके कल्याण की बात करती है, जबकि जनमत या बहुमत में किसी समूह विशेष का सामूहिक स्वार्थ ही हो सकता है।
सामान्य इच्छा का निर्माण- रूसो के अनुसार सबसे पहले किसी समाज में यथार्थ इच्छा होती है। यह समाज के लोगों की व्यक्तिगत इच्छा है। जनता के प्रत्येक प्रश्न पर प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। शनैः शनैः सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ लोगों में नागरिकता की भावना उत्पन्न होती है और तब व्यक्ति अपनी स्वार्थमयी इच्छाओं के अतिरिक्त दूसरों की इच्छाओं पर ध्यान देता है। व्यक्तियों की स्वार्थमयी इच्छाएँ परस्पर समाप्त हो जाती है और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप सामान्य इच्छा का प्रादुर्भाव होता है। सबकी इच्छा से चलते हुए व्यक्ति ‘सामान्य इच्छा’ पर पहुँछते हैं, परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ‘सामान्य इच्छा’ सबकी इच्छाओं में पारस्परिक समझौता है। सर्वसम्मति और सामान्य इच्छा में ही अन्तर है। सामान्य इच्छा में कल्याण की बात भी होती है, जबकि सर्वसम्मति में केवल ऐसे सत्य को ही प्रदर्शित किया जाता है कि सभी लोग विषय विशेष से सहमत हैं। यदि समाज के सभी लोग किसी अकल्याणकारी बात से सहमत हैं तो यह सामान्य इच्छा नहीं कही जा सकती। सामान्य इच्छा से सम्बन्धित निर्णय आदर्श होते हैं। सामान्य इच्छा के पीछे जन-बल रहे या न रहे, परन्तु इसका लक्षण जनहित होता है। यह सामान्य इच्छा जनतन्त्र का आधार है, क्योंकि जब मनुष्य सामान्य इच्छा के करते हैं। अनुसार कार्य करते हैं तभी वह स्वतन्त्रमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं तथा राज्य कल्याण
रूसो की सामान्य इच्छा की प्रमुख विशेषताएँ
सामान्य इच्छा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. एकता– सामान्य इच्छा एक होती है। उसके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इस इच्छा में अभिप्राय का कोई प्रश्न ही नहीं होता। यह इच्छा राष्ट्रीय विचारधारा में ऐक्य स्थापित करती है। रूसो का कथन है, “वह राष्ट्रीय विचारधारा को उत्पन्न और स्थिर कर देती है तथा उन समान गुणों में प्रकाशित होती है, जिनकी किसी राज्य के नागरिकों में होने की आशा की जाती है।”
2. स्थायित्व– सामान्य इच्छा स्थायी होती है। इसमें परिवर्तनों की सम्भावना नहीं रहती। यह न तो भावनात्मक होती है और न एक कुचक्र मात्र। रूसो के अनुसार वह मनुष्य की विचारधारा में निहित होती है तथा कल्याण और विवेक पर आधारित होने के कारण इसमें स्थिरता होती है।
3. औचित्य- सामान्य इच्छा सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह सबकी आदर्श इच्छाओं का निषेध है। इसके दोषपूर्ण होने की कोई सम्भावना नहीं होती है। यह इच्छा उचित और न्याय संगत होती है। स्मार्थ की भावना से यह कोसों दूर होती है तथा कल्याणकारी होती है।
4. निरंकुशता—सामान्य इच्छा निरंकुश होती है। एक समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति सामान्य इच्छा के अधीन होते हैं। सामान्य इच्छा जो भी निर्णय ले लेती है उसका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक तथा अनिवार्य होता है। यदि कोई व्यक्ति सामान्य इच्छा का उल्लंघन करता है, तो उस व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार होता है।
5. अविभाज्य- समाज की सम्पूर्ण प्रभुत्व शक्ति सामान्य इच्छा में निहित होती है। सम्प्रभुता को सामान्य इच्छा से पृथक नहीं किया जा सकता, यह सामान्य इच्छा का प्राण है। यदि सम्प्रभुता को सामान्य इच्छा से पृथक कर दिया जाता है तो यह नष्ट हो जाती है। रूसो के अनुसार, “सामान्य इच्छा का कभी अन्त नहीं होता, यह कभी भ्रष्ट नहीं होती, यह नित्य अपरिवर्तनशील तथा पवित्र होती है।”
6. अदेयता—सामान्य इच्छा को किसी अन्य व्यक्ति अथवा समुदाय को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता है। सामान्य इच्छा में तो समाज में व्यक्ति प्रत्यक्षतः अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। यदि इस इच्छा को प्रतिनिधियों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, तो इसका कल्याणकारी रूप समाप्त हो सकता है।
रूसो की सामान्य इच्छा की आलोचना
रूसो की सामान्य इच्छा की विभिन्न विद्वानों ने निम्न आधारों पर आलोचना की है। यहाँ हम उसकी चर्चा संक्षेप में कर रहे हैं-
(1) रूसो की सामान्य इच्छा का सिद्धान्त जटिल, अस्पष्ट, अमूर्त और कठिन है। वह सामान्य व्यक्ति की बुद्धि के परे है।
(2) सामान्य इच्छा जैसी कोई वस्तु हमें जगत में ब्यावहारिक रूप में देखने को नहीं मिलती। में यदि बहुसंख्यक मनुष्यों की इच्छा, इच्छा नहीं है, तो वास्तव में कुछ भी नहीं है। समाज की यह मान्यता है कि बहुसंख्यक सदैव अपने कल्याण की बात करते हैं।
(3) रूसो की सामान्य इच्छा के सिद्धान्त के अनुसार राज्य स्वेच्छाचारी हो सकता है। सामान्य इच्छा के नाम पर घोर अत्याचार किया जा सकता है। इससे जनतन्त्र का धक्का लग सकता है। इस प्रकार वह स्वेच्छाचारिता को बढ़ावा देती है।
(4) सामान्य इच्छा सार्वजनिक कल्याण के उद्देश्य पर निर्मित होती है, किन्तु सामान्य हित की माप एवं उसका आधार निश्चित करना असम्भव है। सामान्य हित का सर्वमान्य मापदण्ड स्थापित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है और इस प्रकार रूसो की सामान्य इच्छा का सिद्धान्त अव्यावहारिक है।
(5) सामान्य इच्छा का सिद्धान्त राज्य को व्यक्ति के ऊपर मान लेता है और इस प्रकार साधन और साध्य बनकर जो हानियाँ सम्भव हो सकती हैं। यहाँ उनकी सम्भावना बनी रहती है।
रूसो की सामान्य इच्छा का महत्त्व
रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त की चाहे जितनी भी आलोचना की जाये, परन्तु इसमें किंचितमात्र भी सन्देह नहीं कि यह सिद्धान्त राजनीतिक विचारधारा की एक महान देन है। उक्त आलोचनाएँ भी अकाट्य नहीं है। सामान्य इच्छा की संकीर्णता, अमूर्तता के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि सामान्य इच्छा पर चलकर व्यक्ति की स्वतन्त्रता सदैव सुरक्षित रहती है, क्योंकि नैतिकता का प्रतिबन्ध प्रभुत्व-शक्ति पर सदैव लगा रहता है। चूँकि सामान्य इच्छा सदैव उचित होती है इसलिए वहाँ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यह ठीक है कि रूसो की सामान्य इच्छा के सिद्धान्त को लागू करने के लिए जिस मशीनरी की आवश्यकता है। वह मशीनरी या सरकार भले ही स्थापित न की जा सके, परन्तु इससे रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धान्त पर कोई आक्षेप नहीं आता है। इस प्रकार रूसो की सामान्य इच्छा ने प्रजातन्त्रवाद का पोषण किया है।
- रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत | सामान्य इच्छा का सिद्धांत
- मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न हुआ है और वह चारों ओर जंजीरों से जकड़ा हुआ है।” (रूसो) व्याख्या कीजिये।
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