मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न हुआ है और वह चारों ओर जंजीरों से जकड़ा हुआ है।” (रूसो)
मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न हुआ है और वह चारों ओर जंजीरों से जकड़ा हुआ है।” (रूसो)- हॉब्स और लॉक के विचारों से सर्वथा भिन्न हैं। हॉब्स ने मनुष्य में नैतिकता का उच्च विकास माना है। लॉक ने मनुष्य को प्राकृतिक नियमों से अनुशासित बताया है। रूसो ने इन दोनों विचारों का खण्डन करते हुए कहा है कि मनुष्य में नैतिक भावना होनी अवश्य है, पर इसका विकास बहुत धीमी गति से होता है। रूसो ने मनुष्य को दुष्ट, पापी और पतित न मानकर, प्लेटो और अरस्तू के समान स्वभाव से अच्छा, निर्दोष और निष्पाप माना है। इस सम्बन्ध में जोन्स ने लिखा है “रूसो की मानव-सम्बन्धी धारणा अनिवार्य रूप से प्लेटो और अरस्तू की धारणा के समान है।” “रूसो के मानव स्वभाव सम्बन्धी विचार उसके दोनों प्रबंधों में मिलते हैं। उसका कहना है कि मनुष्य स्वभाव से भोला और सदाशय होता है। संसार में पाया जाने वाला पाप, दुराचार और भ्रष्टाचार मनुष्य की जन्मजात दुष्टता के परिणाम न होकर, कला और विज्ञान की प्रगति के परिणाम हैं। जिस अनुपात में इनकी प्रगति हुई है, उसी अनुपात में मनुष्य पथभ्रष्ट हुआ है। इनकी प्रगति ने मनुष्य को सभ्य अवश्य बनाया है, पर सभ्य बनकर उसमें भय, छल, घृणा, सन्देह, ईर्ष्या और क्रूरता के दुर्गुण उत्पन्न हो गये हैं।
रूसो ने मानव-स्वभाव और कला तथा विज्ञान की प्रगति में स्पष्ट सम्बन्ध स्थापित किया है। इनकी प्रगति ने मनुष्य के सच्चे साहस और सद्गुणों का अन्त कर दिया है। इस बात की पुष्टि रोमन इतिहास से हो जाती है। जब तक रोम-निवासी निर्धन और सरल जीवन व्यतीत करते थे, तब तक उनमें अनेक देशों को विजय करने और साम्राज्य की स्थापना करने का शौर्य एवं पराक्रम था। किन्तु, कला और विज्ञान की प्रगति के कारण वहाँ के निवासी ऐश्वर्य में निमग्न हो गये। यही कारण था कि वे ऐसे देशों के मनुष्यों द्वारा पददलित किये गये, जो ऐश्वर्य और विलासिता से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। कला और विज्ञान के दूषित प्रभाव का वर्णन करते हुए, रूसो ने लिखा है— “”हमारे मध्य में भौतिकशास्त्री, रसायनशास्त्री, खगोलशास्त्री, कवि, संगीतज्ञ और चित्रकार प्रचुरता में है, किन्तु हमारे मध्य में एक भी सच्चा नागरिक नहीं है।”
इस प्रकार, रूसो का यह तर्क है कि मनुष्य स्वभाव से बुरा नहीं होता है, वरन् कला और विज्ञान की प्रगति के कारण बुरा बन जाता है। अपने इस तर्क को सत्य सिद्ध करने के लिए, रूसो मानव-स्वभाव का निर्माण करने में दो मौलिक प्रवृत्तियों या भावनाओं (Instincts or Sentiments) को सहायक बताता है। पहली प्रवृत्ति है आत्म-प्रेम, आत्म-हित, या आत्म-रक्षा की भावना, रूसो का कहना है कि यदि मानव स्वभाव में यह भावना न होती, तो वह अपने आदि काल में ही नष्ट हो जाता। दूसरी प्रवृत्ति है— दया, सहानुभूति या पारस्परिक सहायता की भावना। रूसो का मत है कि इस भावना के अभाव में मनुष्य के लिए जीवन-संग्राम दुष्कर हो जाता और वह कभी का नष्ट हो जाता।
रूसो का कथन है कि आत्म-प्रेम और सहानुभूति की भावनाएँ सब मनुष्यों में पायी जाती है। वह इन भावनाओं को शुभ मानता है, क्योंकि इनका क्रियात्मक प्रभाव कल्याणकारी होता है। क्योंकि ये भावनाएँ शुभ हैं, इसलिए मनुष्य को स्वभावतः अच्छा माना जाना चाहिए, न कि बुरा। अपनी इसी धारणा के कारण, वह हॉब्स के इस विचार को अस्वीकार करता है कि मनुष्य बुरा होता है। ऐबेन्सटीन के शब्दों में रूसो, हॉब्स के इस विचार को विशेष रूप से अस्वीकार करता है क्योंकि प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य अच्छाई को नहीं जानता है, इसलिए वह निश्चित रूप से दुष्ट है।”
रूसो के प्राकृतिक अवस्था सम्बन्धी विचार
रूसो के मतानुसार, प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य बहुत कुछ पशु के समान था। उसमें और पशु में यह अन्तर था कि उसमें आत्म-प्रेम और सहानुभूति की मौलिक भावनायें थीं। इनके अतिरिक्त, उसमें विकास करने की क्षमता और दूरदर्शिता का गुण था, जिसका धीरे-धीरे विकास होता चला गया। मनुष्य एकाकी जीवन व्यतती करता था। उसका न तो अन्य व्यक्तियों से कोई निश्चित सम्बन्ध था, न कोई निश्चित निवास स्थान और न कोई निश्चित उत्तरदायित्व वह वनों-उपवनों से भ्रमण करता था और कन्द-मूल आदि खाकर अपना पेट भरता था। प्राकृतिक मनुष्य गुण और अवगुण के सब विचारों से परे थे। वह स्वयं अपना स्वामी था और किसी का दास नहीं था। वह अपने वर्तमान से सन्तुष्ट था और भविष्य की नहीं सोचता था। वह प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करता था और यही नियम उसके व्यवहार को नियन्त्रित करते थे। वह केवल उन्हीं वस्तुओं को प्राप्त करने का प्रयत्न करता था, जिनकी उसको स्वाभाविक आवश्यकता थी। वह सम्पत्ति का संचय नहीं करता था, और उद्योग तथा वाणिज्य के दूषित प्रभावों से मुक्त था। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी, सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। सम्पत्ति के साथ-साथ तेरा और मेरा की भावना ने जन्म लिया होगा। वह हंसता-खेलता सुख की बंसी बजाता हुआ मानव समाज अचानक गुमसुम हो उठा और टुकड़ों में बंटने लगा। गिरोह बनने लगे। स्वर्णिम समानता ने दम तोड़ दिया।
प्राकृतिक अवस्था का पतन-कृषि का आविष्कार एक घातक घटना थी। किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क में कुछ अजीब से विचार उठ होंगे। उसने भूमि का एक टुकड़ा घेर कर इस बात की घोषणा की होगी कि वह उस भूमि का स्वामी है। वही व्यक्ति कथाकथित सभ्य समाज का संस्थापक होगा। फिर तो क्या था? सबने अपने लिए भूमि का टुकड़ा पाना चाहा – भगदड़ मची, छीना-झपटी हुई, संघर्ष हुआ, षड्यन्त्र हुए, अत्याचार, दमन, अपराध। सबके सब खुले आसमान के नीचे, खुली धरती पर अन्धकार बनकर छा गए। कोई अमीर बना, कोई भिखारी हुआ। एक ऐसी स्थिति छा गई, जब लोगों का जीवन दूभर हो गया। इसी समय सर्वनाश के गर्त में गिरने से मानवता सामाजिक अनुबन्धन से बची होगी।
आलोचना :
1. रूसो ने जिस प्राकृतिक अवस्था का वर्णन किया है, वह ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सत्य नहीं है। इस कारण हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते ।
2. यदि मनुष्य मौलिक रूप से उत्तम और श्रेष्ठ गुणों का स्वामी है और तो रूसो सम्पत्ति का मोह आकर्षित नहीं कर सकता है। इस तरह सम्पत्ति का आकर्षण उसकी दुर्बलता का द्योतक है।
3. रूसो का मनुष्य का स्वभाव की धारणा पर एकतरफा विचार है। वह मनुष्य को गुणी और अच्छा समझता है, किन्तु वास्तव में मनुष्य अच्छाई और बुराई का मिश्रण है। पण्डित नेहरू ने भी इसका समर्थन किया जैसे कि, “We are a combination of good and bad of the beast and of something that is a divnine…….!
4. रूसो व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग सामाजिक समझौते में ही ढूँढ़ता है। यह उसकी स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा की नींव है, परन्तु वह नींव ऐतिहासिक दृष्टि से गलत और दार्शनिक दृष्टि से थोथी है। इसलिए इस नींव पर टिका रूसो का स्वतन्त्रता सिद्धान्त भी गलत है।
निष्कर्ष–जो भी हो, रूसो की इन कटु आलोचनाओं के बाद भी उसके मानव स्वभाव सम्बन्धी विचार और प्राकृतिक अवस्था का अपना अगल ही महत्त्व है, जो किसी भी प्रकार घटता नहीं है।
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