राष्ट्रीय एकता का महत्व व आवश्यकता पर निबंध
राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य है- सम्पूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक एकता। हमारे कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा में अन्तर हो सकता है, किन्तु हमारे राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में प्रत्येक दृष्टि से एकता की भावना दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है।
राष्ट्र की आन्तरिक शान्ति, सुव्यवस्था और बाहरी शत्रुओं से रक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। यदि हम भारतीय किसी कारणवश छिन्न-भिन्न हो गए तो हमारी पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर अन्य देश हमारी स्वतन्त्रता को हड़पने के प्रयास में सफल हो जाएँगे।
अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में बोलते हुए भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था- “जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप से इसकी कीमत चुकानी पड़ी। जब जब भी विचारों में संकीर्णता आई, आपस में झगड़े हुए। जब कभी भी नए विचारों से अपना मुख मोड़ा, हानि ही हुई और हम विदेशी शासन के अधीन हो गए।”
बाधाएँ : कारण और निवारण
राष्ट्रीय एकता की भावना का अर्थ मात्र यही नहीं है कि हम एक राष्ट्र से सम्बद्ध हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए एक-दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना भी आवश्यक है। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् हमने सोचा था कि अब पारस्परिक भेदभाव की खाई पट जाएँगी; किन्तु साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता और भाषागत अनेकता ने अब तक भी पूरे देश को आक्रान्त कर रखा है। राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर देने वाले कारकों को जानना आवश्यक है, जिससे उनको दूर करने का प्रयास किया जा सके। इस प्रकार के कारण और उनके निवारण निम्नलिखित हैं-
1. साम्प्रदायिकता – राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा साम्प्रदायिकता की भावना है। साम्प्रदायिकता एक ऐसी बुराई है, जो मानव-मानव में फूट डालती है, दो दोस्तों के बीच घृणा और भेद की दीवार खड़ी करती है, भाई को भाई से अलग करती है और अन्त में समाज के टुकड़े कर देती है। स्वार्थ में लिप्त राजनीतिज्ञ सम्प्रदाय के नाम पर भोले-भाले लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव से तात्पर्य यह है कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी मतावलम्बी भारतभूमि को अपनी मातृभूमि के रूप में सम्मान प्रदान करें।
हमें सोचना चाहिए कि हम अच्छे हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय के सदस्य होने के साथ-साथ अच्छे भारतवासी भी हैं। हमें यह जानना चाहिए कि सभी धर्म आत्मिक शान्ति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय और साधन अपनाते हैं। सभी धर्मों में छोटे-बड़े का भेद अनुचित ही माना गया है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक सत्य, अहिंसा, प्रेम, समता, सदाचार और नैतिकता पर ही जोर देते हैं। साम्प्रदायिक कटुता दूर करने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरे धर्म या धर्मस्थानों का भी उसी प्रकार मान्यता दें, जिस प्रकार हम अपने धर्म या पूजास्थलों को देते हैं। यदि हम अपने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधना चाहते हैं तो इसके लिए आवश्यक है कि हम सभी भारतीयों को अपना भाई समझें, चाहे वे किसी भी धर्म के मत को मानते हों। “हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई” का नारा हमारी राष्ट्रीय अखण्डता का मूलमन्त्र होना चाहिए।
धार्मिक एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने धर्म-ग्रन्थों के वास्तविक सन्देश को समझें। विभिन्न धर्मों के आदर्श सन्देशों को संगृहीत किया जाए। प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में उनके अध्ययन की विधिवत् व्यवस्था की जाए, जिससे भावी पीढ़ी उन्हें अपने आचरण में उतार सके।
2. भाषागत विवाद- भारत के विभिन्न प्रान्तों की अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा और उस भाषा पर आधारित साहित्य को ही श्रेष्ठ मानता है। इससे भाषा पर आधारित विवाद खड़े हो जाते हैं तथा राष्ट्र की अखण्डता भंग होने के खतरे उत्पन्न हो जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा के मोह के कारण दूसरी भाषा का अपमान या उसकी अवहेलना करता है तो वह राष्ट्रीय एकता पर ही प्रहार करता है। होना तो यह चाहिए कि अपनी मातृभाषा को सीखने के बाद हम संविधान में स्वीकृत अन्य प्रादेशिक भाषाओं को भी सीखें तथा राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास में सहयोग प्रदान करें।
3. प्रान्तीयता या प्रादेशिकता की भावना- प्रान्तीयता या प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। कभी-कभी यदि किसी अंचल-विशेष के निवासी अपने पृथक् अस्तित्व की माँग करते हैं तो राष्ट्रीयता की परिभाषा को सही रूप में न समझने के कारण ही वे ऐसा करते हैं। इस माँग से राष्ट्रीय एकता और अखण्डता का विचार ही समाप्त होने लगता है।
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